भूली हुई यादें- “अनवर हुसैन”

डॉ. कुमार विमलेन्दु सिंह | Navpravah Desk

“कोई दम का मेहमां हूं ऐ अह्ले महफ़िल

चिराग़े सहर हूं, बुझा चाहता हूं

भरी बज़्म में राज़ की बात कह दी

बड़ा बेअदब हूं, सज़ा चाहता हूँ”

-इक़बाल

जब अपनी ही आवाज़ के मायने नग़्मापरदाज़ी से बदल कर दिलख़राश मामलों में उलझ जाए और भीड़ में खो जाने का डर उसे सताने लगे, तो बेशक गुमनामी के अब्र तले पूरी शख़्सियत, मायूसी से भीगी सी लगने लगती है| ऐसा कई दफ़ा हो चुका है और खो गए हैं जाने कितने सितारे, और सबसे पहले ग़ैब के हवाले वे हुए, जिन्हें दुनिया आफ़ताब, मान ही लेने वाली थी| कभी उन्हें बेअदब ठहराया गया तो कभी ज़िंदगी आसान न रही| ऐसी ही कहानी है, अनवर हुसैन की, जो गाता था तो सब ठहर जाता था और जब वो ठहरा तो फिर कभी चल न सका|

अनवर के वालिद आशिक़ हुसैन, एक बेहतरीन सितार और हारमोनियम वादक थे| वे मशहूर मौसिक़ार ग़ुलाम हैदर के असिस्टेंट थे| अनवर की मौसिक़ी की तालीम उस्ताद अब्दुल रहमान ख़ान से मिली| मो० रफ़ी से अनवर की आवाज़ इतनी ज़्यादा मिलती थी कि जब 1973 में कमल राजस्थानी के साथ, फ़िल्म “मेरे ग़रीब नवाज़”, में इन्होंने, अपना पहला गाना, “क़समें हम अपने जान की”, रिकॉर्ड किया, तो ख़ुद रफ़ी साहब ने, अपने आस पास पूछना शुरू कर दिया कि “ये गाना मैने कब रिकॉर्ड किया?”

एक टीवी इंटरव्यू में अनवर (PC-RajyaSabhaTV)

इसके बाद 1977 में आई फ़िल्म “जनता हवलदार” में उनका गाना, “हमसे का भूल हुई, जो ये सज़ा हमका मिली”, बहुत मशहूर हुई| एक शानदार सफ़र, एक चमकदार सितारे का, शुरू हो चुका था| 1981 में आई नसीब और 1984 में आई, “सोहनी महिवाल” के गीतों ने इनकी आवाज़ को आवाम से आशना कर दिया| “सोहनी मेरी सोहनी सोहनी”, “ज़िंदगी इम्तेहान लेती है”, इन गानों को कौन भूल सकता है|

इनके गीत 1991 में आई फ़िल्म “साथी” के आने तक मशहूर हुआ करते थे, लेकिन इनका मुस्तक़बिल उसी वक़्त तय कर दिया गया था जब इन्होंने मनमोहन देसाई और राज कपूर साहब से अपने हक़ के कुछ पैसे खुलकर मांग लिए| इनकी फ़ीस 80 के दशक में 5000 रुपये हुआ करती थी, इन्होंने 6000 मांगे, क्योंकि काम थोड़ा ज़्यादा किया था| इसे बेआदबी कह कर , धीरे धीरे इन्हें काम मिलना कम हो गया और फिर बंद|

ग़ुरबत से बचने के लिए ये अमरीका चले गए और अपना एक म्यूज़िक स्कूल खोल लिया| लेकिन ये भी बहुत चल न सका| इन्हें वापस मुंबई आना पड़ा|

वापस आ कर इन्होंने फिर से कोशिश की, एक एल्बम भी “तोहफ़ा” के नाम से निकाला और ये करने के लिए क़र्ज़ भी लिया| एल्बम नहीं चली और इनका घर भी ज़ब्त हो गया| हालात इतने बिगड़े कि इन्हें मैख़ानों तक में गाना पड़ा| अभी भी हालातों से लड़ते हुए, इनकी ज़िंदगी बसर हो रही है और इनके भाई (सौतेले), मशहूर अदाकार अरशद वारसी भी, मदद तो दूर, इनका ज़िक्र करते भी नहीं सुने जाते|

ऑटो ट्यूनर के ज़माने में, आलिया भट्ट, सलमान ख़ान, परिनीति चोपड़ा जैसे अदाकारों को गायक साबित करने की ज़िद के दौर में, तरन्नुम के मायने बदल से गए हैं और एक शास्त्रीय संगीत के जानकार और तैयार गायक को जद्दोजहद करनी पड़ रही है|

आज जब अनवर अपने गाए गाने “मोहब्बत अब तिजारत बन गई है” को सुनते होंगे तो इसके मायने ज़्यादा समझते होंगे और फिर अपने ही एक गीत से मन को बहला भी लेते होंगे, जिसके बोल थे:

हाथों की चंद लकीरों का

सब खेल है ये तक़दीरों का”

(लेखक जाने-माने साहित्यकार, स्तंभकार, व शिक्षाविद हैं.)

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