डॉ० कुमार विमलेन्दु सिंह | Navpravah Desk
“शायर-ए-फ़ितरत हूँ मैं,
जब फ़िक़्र फ़रमाता हूँ मैं
रूह बनकर, ज़र्रे ज़र्रे में
समा जाता हूँ मैं”
-जिगर
फ़ितरत की ही तो बात होती है, आग़ाज़ और अंजाम की परवाह के बग़ैर, हयात में, हर ज़र्रे को अपना मान लेना, क़लंदर की तरह हर मुसाफ़िरख़ाने को अपना आशियाना मान लेना, सब का मुदावा करने की फ़िक़्र में होना और कम-व-कास्त, लेकिन फ़क़ीर होना| ये मिज़ाज किसी किसी को कभी-कभी ही मिलता है और अगर ये फ़क़ीरी, किसी अदीब, फ़नकार या सियासतदान को मिले, तो तारीख़ में दर्ज़ हो जाती है उसकी शख्सियत, जिसे हम भुलाना भी चाहें तो नहीं भुला सकते, और अगर कभी, धूल पड़ भी जाए, वक़्त के साथ तो सबा-ए-बहार, उसे फिर से ताज़ा तरीन कर देती है|
1941 में ऐसा ही एक क़लंदर और क़लमदस्त, ईस्ट इंडिया कंपनी में, बतौर मुलाज़िम, कलकत्ता (अब कोलकाता) पहुंचा, नाम था, सज्जन लाल पुरोहित| जल्दी ही लिखने के शौक़ और एक बेहतर ज़िंदगी की ख़्वाहिश ने, क़दम, बंबई (अब मुंबई) की ओर मोड़ दिए| दूसरी जंग-ए-अज़ीम, ज़ोरों पर थी, पर इनके दिल में सपने पल रहे थे|
बंबई पहुंचते ही कुछ छोटे किरदार करने के बाद, इन्होंने मशहूर डायरेक्टर किदार शर्मा की शागिर्दी में काम करना शुरू किया| महान अभिनेता राज कपूर भी उन दिनों, वहीं काम सीख रहे थे|
1944-1950 के बीच इन्होंने, अभिनय के साथ, “मीना”, “दूर चलें” और “धन्यवाद” जैसी फ़िल्मों के डायलॉग और गीत भी लिखे. 1950 में आई फ़िल्म, “मुक़द्दर” में मशहूर अदाकारा नलिनी जयवंत, इनकी नायिका थीं और इस फ़िल्म ने #सज्ज्न जी को ख़ूब शोहरत दी.
1950 से 1960 के बीच, इन्होंने ख़ूब काम किया और तमाम बड़ी अदाकाराएं, जैसे, मधुबाला, नरगिस वगैरह, इन फ़िल्मों में इनकी नायिकाएं रहीं| वैसे तो इन्होंने 1986 तक फ़िल्मों में काम किया, इसी साल आई फ़िल्म “शत्रु” में, राजेश खन्ना के साथ ये दिखे| बतौर नायक, इनकी आख़िरी फ़िल्म “दो चोर” थी| इतना काम करने के बाद, जिस किरदार ने उन्हें कभी न भूलने वाला चेहरा बनाया, वो था इनका निभाया , बेताल का किरदार, जो इन्होंने मशहूर धारावाहिक “विक्रम और बेताल” में निभाया| ये कभी न भूलने वाला किरदार था|
एक कामयाब अदाकार होने के साथ ये शानदार शायर और बेहतरीन अदीब भी थे| मशहूर फ़ोटोग्राफ़र ओ०पी०शर्मा के साथ इन्होंने, भरतमुनि के नाट्यशास्त्र पर आधारित किताब , “रस, भाव, दर्शन” लिखी, जो आज भी पढ़ी जाती है|
एक दौर वो भी था जब सब के महबूब ग़ज़ल गायक तलत महमूद, सभी जलसों में, इनकी लिखी, एक ग़ज़ल ज़रूर गाते थे|
“मेरा प्यार मुझे लौटा दो
मैं जीवन में उलझ गया हूं
तुम जीना सिखला दो”
साल 2000 में इनका इन्तक़ाल हो गया| इतनी सलाहियत रखने वाला एक बेहतरीन अदाकार, शायर और अदीब, बेपरवाह फ़क़ीर सा, अपने धुन में चलता रहा, ये सोचे बिना कि क्या मिलेगा, वो हमेशा शुक्रगुज़ार रहा उसके लिए जो मिला था, फ़रेब की रोशनियों के परे सय्यार की ख़ुशी भी इसी नामालूमी में है कि सरचश्मा मिले न मिले|
(लेखक जाने-माने साहित्यकार, स्तंभकार, व शिक्षाविद हैं.)