एडवोकेट आनंद रूप द्विवेदी | navpravah.com
नई दिल्ली | हाल ही में प्रसिद्ध फिल्म निर्माता अनुराग कश्यप ने सोशल मीडिया पर एक विवादास्पद टिप्पणी की, जिसमें उन्होंने ब्राह्मणों पर मूत्र त्यागने जैसी अमर्यादित और अपमानजनक बात कही। इस टिप्पणी ने देशभर में सामाजिक और कानूनी बहस को जन्म दिया है। धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाने वाली इस तरह की टिप्पणियाँ न केवल सामाजिक ताने-बाने को नुकसान पहुंचाती हैं, बल्कि भारतीय न्याय संहिता (BNS) और भारत की न्याय व्यवस्था के दायरे में भी गंभीर रूप से विचारणीय होती हैं।
क्या है मामला?
दरअसल अनुराग कश्यप की यह टिप्पणी सोशल मीडिया पर सामने आई, जिसमें उन्होंने कथित रूप से कहा कि “मैं ब्राह्मण पर मूतूंगा…।” यह कथन न केवल अशोभनीय है, बल्कि भारत जैसे बहुजातीय और बहुधार्मिक देश में साम्प्रदायिक तनाव को भड़काने वाला माना जा सकता है। इस तरह की टिप्पणियाँ सामाजिक ध्रुवीकरण को बढ़ावा देती हैं और भारत के संविधान में वर्णित “समानता” और “धर्मनिरपेक्षता” जैसे मूलभूत सिद्धांतों का उल्लंघन करती हैं।
भारतीय न्याय संहिता (BNS) के अंतर्गत क्या कानूनी प्रावधान हैं ?
अनुराग कश्यप की टिप्पणी को भारतीय दंड संहिता की निम्न धाराओं के अंतर्गत देखा जा सकता है:
1. धारा 196 – समुदायों के बीच वैमनस्य फैलाना:
यदि कोई व्यक्ति धर्म, जाति, जन्मस्थान, भाषा या किसी अन्य आधार पर विभिन्न समुदायों के बीच वैमनस्य या द्वेष फैलाने का प्रयास करता है, तो उसे इस धारा के अंतर्गत सज़ा दी जा सकती है। अनुराग की टिप्पणी इस धारा के अंतर्गत लाई जा सकती है, क्योंकि यह विशेष रूप से ब्राह्मण समुदाय को लक्षित करती है।
2. धारा 299 – धार्मिक भावनाओं को आहत करना:
जानबूझकर और दुर्भावना के साथ किसी धर्म या धार्मिक समुदाय की भावनाओं को आहत करने के लिए की गई कोई भी टिप्पणी इस धारा के अंतर्गत दंडनीय है। यदि यह प्रमाणित होता है कि अनुराग की टिप्पणी किसी धार्मिक भावना को जानबूझकर ठेस पहुंचाने के इरादे से की गई है, तो उनके खिलाफ इस धारा के तहत मामला दर्ज किया जा सकता है।
3. धारा 352 – शांति भंग करने के इरादे से अपमान करना:
किसी व्यक्ति या समुदाय को जानबूझकर अपमानित करना जिससे सार्वजनिक शांति भंग हो सकती है, यह भी दंडनीय अपराध है।
भारतीय न्याय व्यवस्था का दृष्टिकोण:
भारतीय न्याय व्यवस्था का मूल उद्देश्य है – निष्पक्षता, स्वतंत्रता और कानून का शासन। किसी भी नागरिक को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता (अनुच्छेद 19(1)(a)) का अधिकार है, परंतु यह स्वतंत्रता पूर्णतः निरंकुश नहीं है। अनुच्छेद 19(2) के तहत यह स्वतंत्रता “सार्वजनिक व्यवस्था”, “शालीनता” और “नैतिकता” जैसे प्रतिबंधों के अधीन है।
इस दृष्टिकोण से यदि अनुराग कश्यप की टिप्पणी सामाजिक शांति को भंग करने वाली, धार्मिक द्वेष को उकसाने वाली या किसी विशेष जाति/धर्म के प्रति अपमानजनक सिद्ध होती है, तो न्यायपालिका इस पर कठोर कदम उठा सकती है।
सुप्रीम कोर्ट और उच्च न्यायालयों ने भी अपने अनेक निर्णयों में यह स्पष्ट किया है कि hate speech या incitement to violence किसी भी प्रकार से अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की सीमा में नहीं आता। अतः ऐसे मामलों में अदालतें अभियुक्त की मंशा, वक्तव्य का प्रभाव और समाज पर पड़ने वाले परिणामों का गहन परीक्षण करती हैं।
समाज और कानून का संतुलन:
भारतीय लोकतंत्र में सभी वर्गों, जातियों और धर्मों को समान सम्मान मिलना चाहिए। अनुराग कश्यप जैसे जन-संवाद माध्यमों से जुड़े व्यक्ति से यह अपेक्षा की जाती है कि वे सार्वजनिक मंच पर संयमित भाषा का प्रयोग करें। कानून को बिना पक्षपात के काम करना चाहिए ताकि कोई भी व्यक्ति—चाहे वो आम नागरिक हो या कोई सेलिब्रिटी—यदि समाज में ज़हर फैलाता है, तो उसे उसके दुष्परिणामों के लिए ज़िम्मेदार ठहराया जाए।
अनुराग कश्यप की विवादास्पद टिप्पणी को केवल एक व्यक्तिगत राय कहकर नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता। यह टिप्पणी सामाजिक ताने-बाने को नुकसान पहुंचा सकती है और भारतीय दंड संहिता के तहत दंडनीय हो सकती है। भारत की न्याय व्यवस्था को ऐसे मामलों में सख्ती से कार्यवाही करनी चाहिए ताकि समाज में यह संदेश जाए कि “अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता” का मतलब किसी धर्म या जाति के अपमान की छूट नहीं है।
यदि यह टिप्पणी साबित होती है कि दुर्भावना और वैमनस्य फैलाने के उद्देश्य से की गई है, तो न्यायपालिका को निष्पक्ष और कठोर रुख अपनाकर इस पर उदाहरणात्मक निर्णय देना चाहिए।
(लेखक, मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय के अधिवक्ता हैं।)