कुछ दिन पहले एक मल्टीनेशनल कंपनी में काम करने वाले एक युवक ने अपने ऑफिस के एक वरिष्ठ अधिकारी की खूबियां बताईं।
जब यह युवक मुसीबत में मदद के लिए उसके पास जाता है, तो साहब तुरंत उसकी मदद करते है। यह एक अच्छी बात है।
प्रश्न यह है कि अपनी कंपनी के कर्मचारी की मदद की जाती है, तो क्या दूसरी कंपनी या उसके कर्मचारी की मदद उसी भांति की जा सकती है? बहुत कम लोग ऐसा शिष्टाचार सद्भाव दिखा सकते हैं, क्योंकि वहां कंपनी की प्रोटोकॉल पॉलिसी आदि तुरंत आड़े आ जाती है। हो सकता है कि कोई थोड़ी बहुत मदद करे लेकिन लोग प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से उसका चार्ज तो वसूल कर ही लेते है।
एक बड़े केस में सरकार के एक वरिष्ठ अधिकारी उलझे हुए थे। सामनेवाली कंपनी बहुत उद्दंड थी। वह किसी भी तरह अपनी मनमानी कर ही लेती थी। उनका मामला कोर्ट में विचाराधीन था। किसी ने उन्हें एक शख्स से मिलने की सलाह दी और कहा कि वह भी सरकारी आदमी हैं। वह आपको निःशुल्क परामर्श देंगे। अधिकारी उस व्यक्ति से मिलते है। साथ बैठकर पूरा केस समझते है । कुछ मिनट की चर्चा के बाद वे अपने घर वापस लौट आए । अगली सुबह उसे उस विशेषज्ञ से एक बड़ा बिल मिलता है। बिल की रकम देख उन्हें चक्कर आ जाता है। उन्होंने महसूस किया कि मुफ्त जैसी कोई चीज नहीं होती है। इस समाज में कुछ भी मुफ्त नहीं है।
प्रमुख स्वामी महाराज एक ऐसे संत थे जिन्होंने हमेशा बिना कोई शर्त रखे और बिना किसी इनाम की अपेक्षा के अजनबियों की मदद की। उन्होंने कभी भी किसी भी व्यक्ति की लाचारी का फायदा नहीं उठाया।
सन् 1997 का वर्ष था । सत्यम शिवम सुंदरम समिति ने वडोदरा शहर के मध्य में सुरसागर सरोवर में दुनिया की सबसे ऊंची 111 फीट ऊंची शिव प्रतिमा की स्थापना करने का आयोजन किया गया । काम बहुत बड़ा था। इसलिए जब भी कोई समस्या होती, तो समिति के अध्यक्ष योगेश भाई और उनके सहयोगी स्वामीजी के पास दौड़ पड़ते। स्वामीजी उन्हें शांति से सुनने और उनकी मदद करने और प्रोत्साहित करने के लिए समय निकालते थे। उन्होंने मुख्य मूर्ति के चारों ओर 10 से 12 फीट ऊंची महादेवजी की विभिन्न आठ मूर्तियों को स्थापित करने की भी योजना बनाई। लेकिन छह से आठ महीने की छोटी सी अवधि में इसे तैयार करना असंभव था।
यह भी अनुमान लगाया गया कि कुल लागत 50 लाख रुपये से अधिक होगी। योगेशभाई आदि फिर स्वामीजी की सहायता लेने आए। उन्होंने विनम्रता से स्थिति बताते हुए मूर्तियों को खड़ा करने की गुहार लगाई। स्वामीजी ने प्रस्ताव स्वीकार कर लिया और उनकी उपस्थिति में हर्षदभाई चावड़ा को फोन किया और शिवजी की मूर्तियां बनाने का आदेश दिया। उन्होंने यह भी सिफारिश की कि कम लागत पर सबसे अच्छा काम किया जाए। एक तरफ दिल्ली अक्षरधाम का काम अलग-अलग जगहों पर तय कार्यक्रम के मुताबिक युद्धस्तर पर चल रहा था । स्वामीजी के कहने पर एक स्थल का कार्य छह माह के लिए स्थगित कर दिया गया और वहां सर्वोच्च प्राथमिकता महादेवजी की आठ प्रतिमाओं को गुलाबी पत्थर से तराशने की दी गई।
समिति को उनके निर्धारित समय से पहले प्रतिमाएं दी गईं! समिति के कार्यकर्ताओं को डर था कि जल्दबाजी में किया गया काम संतोषजनक नहीं होगा। लेकिन मूर्तियों को देखकर वे बहुत खुश और चकित हुए! अपेक्षा से अधिक सुंदर, कलात्मक मूर्तियों को देखकर उनके हृदय को शान्ति पहुंची। मूर्तियों के जिस काम में लाखों रुपये खर्च होने थे, वह स्वामी जी बहुत कम दाम में करवा दिया था और वह भी समय से पहले! स्वामीजी की सहायता मंदाकिनी वहीं नहीं रुकी। आयोजकों ने उद्घाटन समारोह के दौरान योजना बनाने और व्यवस्था करने में स्वामीजी से मदद मांगी। स्वामीजी के आदेश से वडोदरा जिले के एक हजार स्वयंसेवकों ने ही उनकी सेवा में लगन से काम किया और समिति के सदस्यों, आमंत्रित अतिथियों और शहर के लोगों का दिल जीत लिया।
इस प्रकार, उन्हें विश्व की इस विशाल शिव प्रतिमा के निर्माण से लेकर इसके लोकार्पण तक की यात्रा में स्वामी जी का सहयोग मिला। सब बहुत खुश थे। मन ही मन स्वामीजी का वंदन कर रहे थे । ऐसे उदार हृदय वाले संत ही वास्तव में सत्यम, शिवम और सुंदरम हैं।
इसके अलावा, जब भी गुजरात या देश या विदेश में भूकंप, सूखा, भारी बारिश या अन्य प्राकृतिक आपदा आती है, तो स्वामी जी सबसे पहले बचाव के लिए आगे आते हैं। उनके कहने पर बीएपीएस संगठन ने अपनी कार्यक्षमता से अधिक सेवायें की है। स्वामीजी ने किसी भी तरह के भेदभाव के बगैरह सेवा व मदद की है ।
जैसा कि महा उपनिषद में कहा गया है
अयं निज: परो वेत्ति गणाना लघुचेतसाम् ।
उदारचरितानां तू वसुधैव कुटुंबकम् ॥
छोटे मन वाले व्यक्ति मेरा तेरा करते है, लेकिन प्रमुख स्वामी महाराज के मन में कोई अपना पराया नहीं था। वे वसुधैव कुटुम्बकम की भावना के साथ जीते थे। इस तरह उन्होंने पूरी दुनिया का दिल जीत लिया। स्वामी जी का नेतृत्व ऐसा उदार था।
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