“हिंदू” शब्द की उत्पत्ति कैसे हुई, क्या है इसका वास्तविक अर्थ ?

नृपेंद्र कुमार मौर्य | navpravah.com

नई दिल्ली | “हिन्दू” शब्द की उत्पत्ति और इसके अर्थ को लेकर सदियों से अनेक धारणाएं प्रचलित रही हैं। आज भी कई लोग मानते हैं कि ‘हिन्दू’ शब्द का मूल ‘सिंधु’ नदी से जुड़ा है और फारसी भाषा में ‘स’ का उच्चारण ‘ह’ होने के कारण ‘सिंधु’ को ‘हिन्दू’ कहा जाने लगा। यह धारणा भारत में मुगल आक्रमण के समय से प्रचलित है, लेकिन इस विचार को पूरी तरह से सही नहीं माना जा सकता है। वास्तव में, ‘हिन्दू’ शब्द का मूल संस्कृत में है, और इसका महत्व केवल भौगोलिक पहचान तक सीमित नहीं है, बल्कि यह एक गहरी आध्यात्मिक और सांस्कृतिक पहचान को दर्शाता है।

संस्कृत में “हिन्दू” शब्द का विश्लेषण करने पर हमें इसका एक व्यापक और गहन अर्थ मिलता है। “हिन्दू” शब्द का सन्धि-विच्छेद करने पर यह “हीन” और “दू” से मिलकर बना है, जिसका अर्थ है “हीन भावना से दूर”। अर्थात्, जो व्यक्ति अज्ञानता, दुर्भावना, और हीनता से मुक्त हो, उसे हिन्दू कहा जाता है। यह व्याख्या न केवल हिन्दू धर्म के नैतिक मूल्यों को प्रतिबिंबित करती है, बल्कि यह भी बताती है कि हिन्दू होने का तात्पर्य केवल एक धार्मिक पहचान से नहीं, बल्कि एक उच्च नैतिक और आध्यात्मिक जीवन जीने से है

“वेदों” और “पुराणों” में हिन्दू शब्द के कई उल्लेख मिलते हैं। “ऋग्वेद” के “ब्रहस्पति अग्यम” में हिन्दू शब्द का उल्लेख करते हुए कहा गया है:

“हिमालयं समारभ्य यावद् इन्दुसरोवरं।
तं देवनिर्मितं देशं हिन्दुस्थानं प्रचक्षते।।”

इस श्लोक का अर्थ है कि हिमालय से लेकर इंदु सरोवर तक के इस विशाल भूभाग को देवताओं द्वारा निर्मित किया गया है और इसे हिन्दुस्थान कहा जाता है। यह श्लोक न केवल हिन्दू शब्द की वैदिक उत्पत्ति को स्पष्ट करता है, बल्कि यह भी दिखाता है कि इस शब्द का सांस्कृतिक और भौगोलिक संदर्भ प्राचीन समय से ही मौजूद था।

इसके अलावा, “शैव” ग्रंथों और अन्य धर्मग्रंथों में भी “हिन्दू” शब्द का उल्लेख मिलता है। “शैव” ग्रंथ में कहा गया है:

“हीनं च दूष्यतेव् हिन्दुरित्युच्च ते प्रिये।”
अर्थात, जो व्यक्ति अज्ञानता और हीनता का त्याग करता है, वह हिन्दू है। इसी प्रकार “कल्पद्रुम” में भी इस श्लोक को दोहराया गया है। यह सिद्ध करता है कि हिन्दू शब्द केवल एक भौगोलिक पहचान नहीं, बल्कि एक मानसिक और आध्यात्मिक स्थिति का प्रतीक है, जो जीवन में हीनता और अज्ञानता से ऊपर उठने का प्रतीक है।

इतिहास में भी हिन्दू शब्द का उल्लेख मिलता है। “ऋग्वेद” में हिन्दू नामक एक राजा का उल्लेख है, जिन्होंने 46,000 गायों का दान किया था। यह उल्लेख बताता है कि हिन्दू शब्द का प्रयोग प्राचीन काल से ही एक विशेष जीवनदर्शन और महानता के प्रतीक के रूप में होता आया है। केवल “ऋग्वेद” ही नहीं, बल्कि अन्य ग्रंथों में भी हिन्दू शब्द को विभिन्न रूपों में व्याख्यायित किया गया है। “माधव दिग्विजय” में हिन्दू को इस प्रकार परिभाषित किया गया है:

“ओंकारमन्त्रमूलाढ्य पुनर्जन्म द्रढ़ाश्य:।
गौभक्तो भारत: गरुर्हिन्दुर्हिंसन दूषक:।”

इसका अर्थ है कि जो व्यक्ति ओंकार को ईश्वरीय ध्वनि मानता है, पुनर्जन्म में विश्वास रखता है, गौ-पालन करता है और बुराइयों से दूर रहता है, वह हिन्दू कहलाता है। यह दर्शाता है कि हिन्दू जीवनशैली का आधार सत्य, अहिंसा, और करुणा पर टिका हुआ है।

वेदों और अन्य धार्मिक ग्रंथों में यह बार-बार स्पष्ट किया गया है कि हिन्दू एक व्यक्ति नहीं, बल्कि एक विचारधारा है, जो जीवन में सत्य, धर्म, और न्याय को अपनाने पर आधारित है। हिन्दू धर्म के मूल सिद्धांतों में कर्म का महत्व, पुनर्जन्म में विश्वास, और अहिंसा की अवधारणा निहित है। इस प्रकार, हिन्दू केवल एक धर्म नहीं, बल्कि जीवन जीने का एक मार्ग है, जो व्यक्ति को उसकी आध्यात्मिक और नैतिक उन्नति की दिशा में प्रेरित करता है।

“हिन्दू” शब्द की उत्पत्ति और इसके वास्तविक अर्थ पर ध्यान देने से यह स्पष्ट होता है कि यह केवल एक धार्मिक पहचान नहीं, बल्कि एक सम्पूर्ण जीवन दर्शन है। इसका उद्देश्य व्यक्ति को अज्ञानता, हीनता और बुराइयों से मुक्त करना है। प्राचीन वैदिक साहित्य से लेकर आधुनिक समय तक, हिन्दू शब्द हमेशा से एक उच्च नैतिक और आध्यात्मिक जीवन जीने के मार्ग को दर्शाता रहा है।

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