“कलाकार” -भावनाओं का महासागर समेटती एक छोटी फ़िल्म

डॉ० कुमार विमलेन्दु सिंह | Cinema Desk

“मैं सोचती रही, तुम रचना कर रहे हो और मैं सार्थक हो रही हूं”, ये भावपूर्ण संवाद, किसी ग्रंथ में भरतमुनि के वर्णित विधियों के अनुसार बोलते किसी ऐतिहासिक पात्र का नहीं, लेकिन अभिनय के लिए वांछित सभी गुणों को धारण किए हुए, एक महिला के वेश में, महान रंगकर्मी, आलोक चटर्जी का है। फ़िल्म, “कलाकार”, निर्माण, “रिशिमम प्रोडक्शन्स” और निर्देशन, चिर परिचित और दिग्गज निर्देशक, अनिल दूबे।

निर्देशक ‘अनिल दुबे’

20वीं शताब्दी अपने मध्य तक युद्ध और राजनैतिक उथल-पुथल से कभी व्यवस्था और निश्चित संरचना का समर्थन नहीं कर पाई। साहित्य और सिनेमा की प्रस्तुतियों पर भी इसका प्रभाव पड़ा और संपूर्ण जीवनकाल को रेखांकित करती किसी एक विचारधारा या अवधारणा की जगह, क्षणिक अनुभूतियों के चित्रण को भी प्रोत्साहन मिला और लघु फ़िल्में या शॉर्ट फ़िल्मों के लिए एक सार्थक जगह बनी। लेकिन इन लघु फ़िल्मों का प्रचलन 21वीं सदी में ही खूब हो पाया क्योंकि यहां दर्शकों के पास धैर्य और समय दोनों की कमी थी।

“कलाकार”, इसलिए एक विशेष फ़िल्म है क्योंकि इसमें एक रंगकर्मी की रंगमंच के लिए चिंतापूर्ण प्रेम और एक पिता की पुत्री के लिए प्रेमपूर्ण चिंता को समानान्तर और बेहद सटीक तरीके से दिखाया गया है। आलोक चटर्जी के अभिनय की जितनी प्रशंसा की जाए कम है, लेकिन कनुप्रिया, जो कि बिल्कुल ताज़ादम चेहरा हैं फ़िल्मों की दुनिया में, उनका सधा हुआ अभिनय, चकित कर देता है।”

मंच पर या पर्दे पर आलोक चटर्जी और कनुप्रिया द्रोण और अश्वत्थामा से दिखते हैं, एक अनुभव से भरा, अजेय तो दूसरी उत्साह से भरी अदम्य।

फ़िल्म के एक दृश्य में ‘आलोक चटर्जी’

रंगमंच के कलाकारों का फ़िल्मों की ओर प्रवजन भी एक चिंताजनक तथ्य के रूप में दिखाया गया है और सबसे बड़ी और भावुक कर देने वाली बात, जो इस फ़िल्म में दिखी है, वो है पिता का गुरू के रूप में कर्तव्य और प्रेम।

इतने गांभीर्य से पूर्ण फ़िल्म का निर्देशन, उसी निर्देशक ने किया है, जिसने “लापतागंज” और “चिड़ियाघर” जैसे हल्के फुल्के मनोरंजन वाले धारावाहिक भी निर्देशित किए हैं, यानि अनिल दूबे। ये निर्देशक के विशाल कलात्मक क्षितिज को प्रदर्शित करता है।

देखें यह फ़िल्म:

कुल मिलाकर एक ज़बरदस्त फ़िल्म बन पड़ी है “कलाकार”, जिसमें भविष्य की आशा, वर्तमान की चिंता, पिता का प्रेम, कलाकार की निष्ठा, गुरू का महत्व और बहुत सी भावनाएं झलकती हैं। ये कहना अतिशयोक्ति नहीं माना जाएगा कि इस छोटी फ़िल्म ने अपने अंदर, भावनाओं का महासागर समेट लिया है।

(लेखक जाने-माने साहित्यकार, स्तंभकार, व शिक्षाविद हैं.)

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