जलवायु परिवर्तन का वैश्विक सन्दर्भ

Dr.JitendraPandey@Navpravah.com 

 

यजुर्वेद में वरुण देवता की उपासना करते हुए लिखा गया है – “शन्नो देवीरभिष्टय आपो भवन्तु पीतये।” अर्थात् हे परमेश्वर!  हमारे जल पवित्र हों जिससे हम पर सुखों की वर्षा हो । ऋषियों द्वारा पर्यावरण पर इस प्रकार का चिंतन उनके दूरदृष्टि का परिचायक है। दुनिया पर गहराते संकटों में से “पर्यावरण की समस्या” प्रमुख है। इससे जीवन-चक्र में एक असन्तुलन सा पैदा हो गया है। इसकी चपेट में मानवजाति के साथ-साथ अन्य प्रजातियां भी हैं। इस पर नियंत्रण पाने के लिए विश्व के तमाम राष्ट्र अपनी चिंता समय-समय पर व्यक्त करते आए हैं। पर्यावरणविद् विश्व समुदाय को इसके भयंकर परिणाम भुगतने की चेतावनी वर्षों पहले कड़े शब्दों में जारी कर चुके हैं।

इन दिनों प्राकृतिक आपदाओं के साथ-साथ हमारा स्वास्थ्य भी प्रभावित हो रहा है। अनेक नई बीमारियों का जन्म इसी बात का द्योतक है कि प्रदूषण में बेतहासा वृद्धि हो रही है। देश की राजधानी दिल्ली में श्वास सम्बन्धी बीमारी का कारण वायु-प्रदूषण को ठहराया गया। कल-कारखानों के साथ-साथ आराम मुहैया कराने वाले वस्तुओं में भारी बढ़ोत्तरी हो रही है।

ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन अनियंत्रित हो चुका है। स्थिति गम्भीर बनी हुई है। इसे एक उदाहरण द्वारा आसानी से समझा जा सकता है, “अगर मेंढक को उबलते पानी में डाल दें तो वह छलांग लगा कर बाहर आ जाएगा और उसी मेंढक को अगर सामान्य तापमान पर धीरे -धीरे गरम करने लगें तो क्या होगा ? मेंढक फौरन मर जाएगा? जी नहीं।ऐसा बहुत देर के बाद होगा। दरअसल होता यह है कि जैसे-जैसे पानी का तापमान बढ़ता है, मेढक अपने शरीर का अनुकूलन उस तापमान के अनुसार करने लगता है। पानी खौलने तक ऐसा ही करता रहता है। अपनी पूरी उर्जा पानी के तापमान से तालमेल बिठाने में खर्च करता रहता है। जब पानी खौलने लगता है, मेढक अपने शरीर को उसके अनुसार समायोजित नहीं कर पाता है, क्योंकि उसने अपनी सारी ऊर्जा वातावरण के साथ खुद को अनुकूलित करने में खर्च कर दी है। परिणामतः मर जाता है। मेढक क्यों मरता है? कौन मारता है उसको? पानी का तापमान? गरमी या उसका स्वभाव? इसका उत्तर होगा, मेढक की असमर्थता। सही वक्त पर फैसला न लेने की अयोग्यता। इसी तरह हम भी अपने वातावरण के साथ सामंजस्य बनाए रखने की तब तक कोशिश करते हैं, जब तक कि छलांग लगा सकने की हमारी सारी ताकत खत्म नहीं हो जाती। तय हमें करना होता है कि हम मेंढक की तरह मरें या समय रहते चेतें।” यह धरतीवासियों का सौभाग्य है, समय ने करवट ली।

अब तक यूरोपीय देश “जलवायु परिवर्तन सम्बन्धी” सभी जिम्मेदारियों को एशियाई देशों के मत्थे मढ़ते आए हैं। स्थिति की भयावहता उन्हें पुनर्विचार के लिए बाध्य कर रही है। मात्र अपने वर्तमान को देखने वाले इन देशों को आगामी पीढ़ियों की चिंता सताने लगी है। परिणामतः वैश्विक मंच पर उनका सहयोग और सहकारिता देखने को मिल रही है। भारत में स्वच्छ ऊर्जा के उत्पादन के लिए अमेरिका द्वारा 2.5 अरब डॉलर की मदद इसी श्रृंखला की एक कड़ी है। इसी तरह अन्य यूरोपीय देश भी प्रगतिशील राष्ट्रों को वित्तीय मदद प्रदान कर स्वच्छ ऊर्जा से सम्बंधित प्रौद्योगिकी का वहां विकास करना चाहते हैं। इससे जलवायु परिवर्तन की जटिलताओं से मुक्त होने में अवश्य मदद मिलेगी।

जलवायु-परिवर्तन सम्बन्धी बारीकियों का विश्लेषण करते हुए रिचर्ड वर्मा ने लिखा है, ” अभी विश्व का 85 प्रतिशत से अधिक उत्सर्जन करने वाले 150 से अधिक देशों ने ग्रीनहॉउस गैसों का उत्सर्जन कम करने का संकल्प लिया है। इस वचनवद्धता को ‘इंटेंडेड नेशनली डिटरमाइंड कंट्रीब्यूशन्स’ या आईएनडीसी कहा गया है। अमेरिका वर्तमान अकार्बनीकरण की दर को दोगुना करके अगले 10 सालों में इसमें 26 से 28 प्रतिशत और कटौती का प्रयास कर रहा है।इसे 2005 के स्तर से भी नीचे लाने का लक्ष्य है।

भारत की आईएनडीसी में गैर-जीवाश्म इंधन से विद्युत उत्पादन क्षमता बढ़ाना शामिल है। इसके अलावा कार्बन सोखने वाले वनों के विस्तार का लक्ष्य भी लिया गया है। “इस प्रकार दुनिया में होने वाली इस प्रकार की सकारात्मक पहल प्रशंसनीय है। यह गर्व का विषय है कि इस मुद्दे पर भारत सरकार की अहम् भूमिका है। दुनिया की नज़रें भारत पर टिकी है। यह कोई भावुक राष्ट्र-प्रेम नहीं किन्तु हवा के रुख से साफ है कि भविष्य में भारत काल के कपाल पर पुनः लिखेगा, ” सहनाववतु सहनौभुनक्तु “अर्थात् एक साथ चलें, एक साथ भोग करें, एक साथ पुरुषार्थी बनें तथा किसी को किसी के प्रति विद्वेष न हो।

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