नृपेन्द्र कुमार मौर्य| navpravah.com
नई दिल्ली |यह न्यूज स्टोरी लिखते हुए मेरा हृदय द्रवित है, मेरी कलम कांप रही है, और हर शब्द मेरी आत्मा को छलनी कर रहा है। यह कहानी है एक बेटे की, जिसने अपने माता-पिता का सहारा बनने का वादा किया था। यह कहानी है एक भाई की, जिसने अपनी बहन के सपनों को साकार करने की ठानी थी। यह कहानी है एक पिता की, जिसने अपने बच्चे की मुस्कुराहट के लिए अपनी पूरी दुनिया दांव पर लगा दी। और यह कहानी है एक पति की, जिसने प्रेम के नाम पर अपना सबकुछ न्योछावर कर दिया—लेकिन बदले में मिला क्या? घुटन, अपमान और अंततः मौत।
एक सपना जो मौत की चादर में लिपट गया
2019 में उत्तर प्रदेश के जौनपुर की निकिता सिंघानिया के साथ अतुल सुभाष ने सात फेरे लिए थे। उस वक्त उनके चेहरे पर एक मुस्कान थी, एक उम्मीद थी, कि उनका जीवन अब खुशियों से भर जाएगा। लेकिन उन्होंने यह सपने में भी नहीं सोचा था कि वही अग्नि, जिसके चारों ओर उन्होंने फेरे लिए थे, एक दिन उनकी जिंदगी को राख में बदल देगी।
कुछ महीनों तक सब ठीक चला, फिर निकिता ने अतुल और उनके परिवार पर दहेज उत्पीड़न, घरेलू हिंसा, और हत्या की कोशिश जैसे आरोप लगाए। उसने उन्हें निचली अदालत से लेकर हाई कोर्ट तक घसीटा। एक के बाद एक झूठे केस दर्ज किए गए। उनके खिलाफ ऐसी धाराएं लगाई गईं, जिनमें जमानत मिलना असंभव था।
न्यायपालिका की क्रूरता और भ्रष्टाचार
क्या भारतीय न्यायपालिका न्याय का मंदिर है? या यह एक ऐसा बाजार बन गया है, जहां केवल वही बच सकता है, जिसके पास पैसा और ताकत हो? अतुल ने अपनी जान देने से पहले 84 मिनट का एक वीडियो बनाया, जिसमें उन्होंने बताया कि पिछले दो सालों में उन्हें 120 बार अदालत के चक्कर लगाने पड़े। 40 बार बेंगलुरु से जौनपुर का सफर किया।
किसी तारीख पर जज नहीं होते, किसी तारीख पर वकील हड़ताल पर। एक बार तो जब अतुल ने जज से कहा कि उनकी पत्नी उन्हें आत्महत्या के लिए उकसा रही है, तो जज हंस पड़ीं। क्या यह है हमारा न्याय तंत्र? जहां पीड़ित की पुकार को मजाक समझा जाता है?
अतुल ने अपने सुसाइड नोट में लिखा कि जौनपुर के फैमिली कोर्ट की जज ने केस सुलझाने के नाम पर पांच लाख रुपये की रिश्वत मांगी। जब उन्होंने रिश्वत नहीं दी, तो एलिमनी और मेंटेनेंस के नाम पर हर महीने 80,000 रुपये देने का आदेश जारी कर दिया। क्या यह वही न्यायपालिका है, जिसे हम “आम आदमी का सहारा” कहते हैं?
महिला कानूनों का शोषण: एक निर्दोष का खून
महिलाओं के लिए बनाए गए कानूनों का उद्देश्य उन्हें सुरक्षा देना था। लेकिन जब इन्हीं कानूनों का इस्तेमाल निर्दोषों को बर्बाद करने के लिए किया जाता है, तो वह कितना घातक हो सकता है, यह अतुल की कहानी से साफ हो जाता है।
निकिता ने तलाक के बदले तीन करोड़ रुपये की मांग की। उसने अपने बच्चे से अतुल को मिलने तक नहीं दिया। अजीबोगरीब यौन इच्छाओं की मांग करते हुए वह उन्हें मानसिक और शारीरिक रूप से प्रताड़ित करती रही। यहां तक कि उसने अपने परिवार को भी इस षड्यंत्र में शामिल कर लिया।
अतुल ने अपनी पत्नी और सास के बीच हुई चैट का जिक्र किया है, जिसमें उनकी सास ने कहा:
“मैं तो समझ रही थी कि तुम सुसाइड कर लोगे। अब तक किया क्यों नहीं?”
और जब अतुल ने जवाब दिया कि उनके मरने के बाद उनकी पार्टी कैसे चलेगी, तो सास का जवाब था:
“तुम्हारे मरने के बाद भी हमारी पार्टी चलेगी। तुम्हारा बाप और पैसे देगा।”
जब उम्मीदें टूट गईं
अतुल ने अपने सुसाइड नोट में लिखा:
“मैं जो कमा रहा हूं, वह मेरे ही दुश्मनों को ताकत दे रहा है। मेरे टैक्स के पैसे से यह अदालत, यह पुलिस, और यह सिस्टम मुझे और मेरे जैसे लोगों को खत्म कर रहा है।”
उन्होंने गुजारिश की कि उनकी मौत के बाद उनकी अस्थियां गंगा में न बहाई जाएं, बल्कि अदालत के सामने गटर में फेंक दी जाएं। उन्होंने कहा,
“अगर मेरे गुनहगारों को सजा नहीं मिलती, तो मेरी अस्थियां इस देश की न्यायपालिका की क्रूरता का प्रतीक बनेंगी।”
एक अंत, जो सवाल छोड़ गया
अतुल सुभाष की आत्महत्या ने न केवल उनकी जिंदगी खत्म की, बल्कि इस समाज और कानून व्यवस्था की कमजोरी और भ्रष्टाचार को उजागर किया। आखिर कब तक निर्दोष लोग इस तरह कानून के नाम पर बलि चढ़ते रहेंगे? कब तक न्यायपालिका, जिसे न्याय का आधार माना जाता है, भ्रष्टाचार और पैसे के आगे झुकती रहेगी?
अतुल सुभाष की कहानी न केवल एक इंसान की मौत है, बल्कि उस विश्वास की हत्या है, जो हर नागरिक न्यायपालिका पर करता है। यह कहानी हर दिल को झकझोरती है और हमें सोचने पर मजबूर करती है कि क्या हम सचमुच एक सभ्य समाज में जी रहे हैं?