यात्रावृत्त: “स्वप्नलोक -महाबलेश्वर, पंचगनी और वाई”

डॉ. जितेन्द्र पाण्डेय,

महाराष्ट्र के पर्वतीय स्थलों में महाबलेश्वर अपनी खूबसूरती के लिए जाना जाता है । मराठी के सुप्रसिद्ध साहित्यकार ‘बालकवि’ ने महाबलेश्वर को प्रकृति-देवता का साकार स्वप्न माना है। इसीलिए इस हिल स्टेशन को “भारत का स्वप्नलोक” भी कहा जाता है। समुद्र तल से इसकी ऊंचाई 1372 मीटर है । महाराष्ट्र के सबसे ऊँचे पर्वतीय क्षेत्रों में महाबलेश्वर का नाम शुमार है। यह सह्याद्री रेंज के पश्चिमी भाग में स्थित है।

इस पर्वतखंड की उत्पत्ति और महात्म्य का उल्लेख प्राचीन महाबलेश्वर मंदिर के शिलालेख पर इस प्रकार किया गया है – “स्कंद पुराण में सह्याद्री खंड के पहले व दूसरे अध्याय में प्रकृति के उत्पत्ति की कथा दी गयी है। इन अध्यायों में महाबलेश्वर किबउत्पत्ति के बारे में भी लिखा गया है। पद्मयुग में महाबल और अतिबल, इन दो असुर भाईयों ने त्राहि त्राहि मचा रखी थी । उनसे छुटकारा पाने के लिए ब्रह्मा , विष्णु और महेश इन देवताओं को उनसे लोहा लेना पड़ा । युद्ध में श्री विष्णु ने अतिबल को मौत के घाट उतार दिया । लेकिन इच्छा मरण का वरदान पाने वाले महाबल के सामने किसी की भी एक न चली । यह देखकर इन देवताओं ने मिलकर देवी आदिमाया की शरण ली।

आदिमाया ने वास्तविक स्थिति समझकर महाबल को मोहित किया। इस कारण महाबल ने देवताओं से वरदान मांगा कि मेरी मृत्यु आपके हाथों हो, लेकिन यह शर्त रखी कि हमारे नाम से देवताओं का निवास यहां पर हो। इस तरह श्री शिवजी महाबल के नाम से, श्री विष्णुजी अतिबल के नाम से और श्री ब्रह्माजी कोटि असुर सेना के नाम से इसी स्थान पर अंशरूप में स्थित हैं। तबसे यह स्थान महाबलेश्वर, अतिबलेश्वर तथा काटेश्वर ऐसे त्रिगुणायक रूप में प्रसिद्ध है। श्री महाबलेश्वर शिवस्वरूप, रुद्राक्ष के आकार में स्वयंभू स्थान परम पवित्र बन गया।” महाबलेश्वर के इस शिव मंदिर का निर्माण पांच-छह सौ वर्ष पहले हुआ है, जबकि गर्भगृह में स्थापित स्वयंभू लिंग हज़ारों वर्ष पुराना है। छत्रपति शिवाजी महाराज ने अफ़जल खान के कैम्प का स्वर्ण कलश और अपनी माँ जीजामाता की स्वर्णतुला भी यहीं रखवाई थी।

शिवमंदिर से लगभग 100 मीटर दूर पंचगंगा मंदिर है। यह वही मंदिर है जहाँ से पांच नदियां निकलती हैं। गोमुख से निकली इन नदियों के नाम कोयना, वेन्ना, सावित्री, गायत्री और कृष्णा हैं। इन नदियों के बारे में दंतकथा है कि सावित्री के शाप के कारण भगवान विष्णु कृष्णा नदी , महेश्वर शिव वेन्ना और सृष्टि-सर्जक ब्रह्मा कोयना नदी के रूप में प्रवाहित होने के लिए मजबूर हो गए। इनमें से कृष्णा , कोयना और वेन्ना एक दिशा में प्रवाहित होती हैं। कृष्णा और वेन्ना का संगम सतारा के माहुली क्षेत्र में होता है। यहां वेन्ना का अस्तित्त्व कृष्णा में समा जाता है। अस्तित्त्व-समाप्ति की प्रक्रिया यहीं खत्म नहीं होती। आगे चलकर कराड में कोयना नदी भी अपने को कृष्णा में विलय कर लेती है। विलय का यह स्थान “प्रीति संगम” के नाम से जाना जाता है। महाराष्ट्र के कद्दावर नेता यशवन्त राव चव्हाण की समाधि इसी पवित्र स्थान पर है। आगे का रास्ता कृष्णा नदी अकेले तय करती है। कर्नाटक तथा आंध्र प्रदेश होते हुए यह बंगाल की खाड़ी में मिल जाती है। दूसरी तरफ सावित्री नदी कोंकण से होते हुए अरब सागर में मिलती है। गायत्री नदी का प्रवाह लुप्त है। कहा जाता है कि प्रत्येक 12 वर्ष पर भागीरथी और प्रत्येक 60 वर्ष पर सरस्वती नदी इनसे मिलने महाबलेश्वर क्षेत्र में आती है। पौराणिक अथवा भौगोलिक जो भी कारण हो किंतु यह पक्का है कि इन नदियों के कारण महाबलेश्वर और पंचगनी की शोभा पल-पल अंगड़ाई लेती है। घुमावदार सड़कों के दोनों ओर घने पेड़ों की चटक हरियाली नंदनवन का एहसास कराती है। यहां की हरीतिमा में पीलापन नहीं बल्कि श्यामलता है। ऊंची-ऊंची फुनगियों से खेलते बादल अचानक आँखों के सामने धमाल चौकड़ी करते तेजी से गुज़र जाते हैं। कभी घने धुंध का आपातकाल लागू हो जाता है, तो दूसरे क्षण छिटका सौंदर्य निखर उठता है। यहां की रमणीयता प्रहरों में बँटी होती है । इनका आस्वाद यहां के विभिन्न पॉइंट्स से किया जा सकता है।

ब्रिटिशकाल में महाबलेश्वर ‘बॉम्बे प्रेसीडेंसी’ की ग्रीष्मकालीन राजधानी हुआ करती थी। ईस्ट इंडिया के गवर्नर सर जॉन मैलकम ने इस जगह को दुनिया की नज़र में सन् 1828 में लाया था। सर एल. फिस्टन, सर लॉडविक, डुके कनॉट, सर ऑर्थर, विल्सन आदि अंग्रेज अधिकारियों की यह पसंदीदा जगह रही है। यहां के ज्यादातर पॉइंट्स का आधुनिक नामकरण इन्हीं के द्वारा अथवा इन्हीं के नाम से हुआ। मसलन एलफिस्टन पॉइंट, आर्थर पॉइंट, विल्सन पॉइंट, हेलन पॉइंट, लाकविग पॉइंट आदि। इसके अलावा मजोरी पॉइंट, सावित्री पॉइंट, नाथकोट, बॉम्बे पार्लर, कर्निक पॉइंट, फाकलेक पॉइंट से भी महाबलेश्वर की खूबसूरत वादियों के दर्शन किए जा सकते हैं। कुछ पॉइंट्स के नाम तो यहां की भौगोलिक स्थिति को ध्यान में रखकर सुनिश्चित किए गए हैं मंकी पॉइंट, हाथी माथा या निडिल पॉइंट, टेबल लैंड आदि ऐसी ही पहाड़ी टेकड़ियां हैं। वेन्ना लेक तो महाबलेश्वर का प्रवेश द्वार है। आकाश की नीलिमा पारदर्शी झील को अपने रंग में रंग लेती है। कभी- कभी इसका सौंदर्य डल झील को भी फीका कर देता है। झील के किनारे की हरियाली और उसके ऊपर नीला आकाश, ऐसे में नौका विहार करना असीम आनंददायक होता है। लगता है झील और आकाश के बीच मात्र सैलानी और उनकी नावें तिर रही हों। यहीं से डेढ़ किलोमीटर दूर लिंगमाला जलप्रपात है। 600 फीट की ऊंचाई से गिरते इस झरने का पानी वेन्ना लेक में मिल जाता है। जुलाई से लेकर दिसंबर तक यह पर्यटकों के आकर्षण का केंद्र बना रहता है। निसर्ग के इस खूबसूरत तोहफे का जादू सैलानियों के सिर चढ़कर बोलता है। इसके अलावा भिलार वॉटरफाल जैसे दर्ज़नों झरने अपनी मस्ती में गुनगुनाते रहते हैं।

सूर्यास्त और सूर्योदय का मनमोहक दर्शन विल्सन पॉइंट से किया जा सकता है। समुद्रतल से 1439 मीटर की ऊंचाई पर स्थित इस टीले से महाबलेश्वर के चारों ओर का सौंदर्य जी भर कर निहार सकते हैं। पॉइंट के तीनों बुर्ज़ महाबलेश्वर का अधिकाधिक दर्शन कराने में सक्षम हैं। शहर से यहां तक की दूरी डेढ़ किलोमीटर है। ऑर्थर सीट और विडो पॉइंट एक दूसरे से सटे हैं जो सैलानियों के कौतूहल बढ़ाते रहते हैं। ऑर्थर पॉइंट्स के संदर्भ में मेरे एक साथी ने बताया कि इसका नामकरण सर ऑर्थर की याद में किया गया है। श्री मंगेश ने इस अंग्रेज अधिकारी के जीवन की अंतिम त्रासदी सुनाई। उन्होंने बताया कि ऑर्थर महोदय ने इस पॉइंट से एक कागज का टुकड़ा नीचे फेंका। दबाव के कारण कागज का टुकड़ा हवा में तैरने लगा। मिस्टर ऑर्थर की उत्सुकता बढ़ी। उन्होंने एक सिक्का उछाला । यही हाल सिक्के का भी हुआ। इसके बाद उत्तेजित हो वे स्वयं नीचे कूद गए । इससे उनकी आकस्मिक मृत्यु हो गई। एक तरफ जहाँ ऑर्थर सीट के पास सावित्री नदी का गुप्त प्रवाह देखा जा सकता है, वहीं प्रकृति प्रेमियों के लिए विडो पॉइंट निसर्ग की खिड़की है। दोनों पॉइंट्स 200 फीट के अंतर पर स्थित हैं। यहां से तोरण, रायगढ़ और कांगारी के किले स्पष्ट रूप से देखे जा सकते हैं।

महाबलेश्वर की जलवायु समशीतोष्ण है। यही कारण है कि पूरे भारत की स्ट्रॉबेरी का 85 प्रतिशत उत्पादन अकेले महाबलेश्वर-पंचगनी में होता है। जैम, क्रश, जेली, सिरप, चॉकलेट, फलेरो, चिक्की, फ़ज आदि अनेक प्रकार के प्रोडक्शन स्ट्रॉबेरी से होते हैं। अभी तो इसकी वाइन भी बनाई जा रही है। बाज़ार में इसकी अच्छी-खासी खपत है। मधुसागर प्रोडक्ट्स की होलसेल विक्रेता मानसी गाडेकर ने यहां के “मधुमक्खी पालन” एवं शहद के बारे में चौंकाने वाली जानकारी दी। उन्होंने बताया, “महाबलेश्वर के जंगलों में शहद की कई किस्मों की पैदावार होती है। मसलन पीसा शहद, जाम्भुल शहद, हिरडा शहद, गेला शहद, अखारा शहद, कार्वी शहद और व्हायटी शहद। इनमें से अखारा शहद प्रत्येक चार साल बाद और कार्वी तथा व्हायटी शहद की पैदावार प्रत्येक सात साल में होती है क्योंकि इन पौधों पर फूल इसी समय आते हैं। गेला एक औषधीय गुणों से युक्त पौधा है। आंख और ब्रेन के टॉनिक के रूप में इस शहद का सेवन किया जाता है। कफ, कोल्ड, डायबिटीज़, गैस, अस्थमा जैसी 118 बीमारियों को दूर भगाने में शहद की ये किस्में गुणकारी हैं।” मानसी की इस जानकारी से मेरी कई शंकाओं का समाधान स्वतः हो गया। मधुसागर, मैप्रो, मालाज़ और कैडबरी उद्योग तो स्ट्रॉबेरी के साथ-साथ अमला, आम, संतरा, टमाटर, नींबू, कोकम, अदरक, जामुन, पाइनएपल आदि फलों से कई प्रकार के उत्पाद बाजार में मुहैया करा रहे हैं। पर्यटक अपने परिजनों के लिए यहां से इन खाने-पीने की चीजों को ले जाना नहीं भूलते। लोनावला की चिक्की की तरह यहां की भी चिक्की और चने की अपनी ख़ासियत है। रोजमर्रा की चीजें मंगलवार की साप्ताहिक बाज़ार में मिल जाती हैं।

भारतीय इतिहास में अमर प्रतापगढ़ का किला महाबलेश्वर से मात्र 23 किलोमीटर दूर है। छत्रपति शिवाजी ने इस किले के निर्माण की जिम्मेदारी अपने प्रधान मंत्री मोरोपन्त को सौंपी थी। यह किला तल भाग और अपर भाग में विभाजित है। भवानी माँ का मंदिर निचले भाग के पूर्वी छोर पर बनाया गया है। किले के उत्तर पश्चिम दिशा में शिव का मंदिर स्थापित है। 10 नवंबर ,1659 को प्रतापगढ़ की प्राचीर के नीचे शिवाजी ने अफ़ज़ल खान का धोखे में वध कर दिया था। अफ़ज़ल खान की दरगाह और टॉवर दोनों किले के विभिन्न हिस्सों में मौजूद हैं। तबसे इन क्षेत्रों में “अफ़ज़ल खां वध आनंदोत्सव” बड़ी धूमधाम से मनाया जाता है । इस किले में गेस्ट हॉउस और राष्ट्रीय उद्यान के साथ-साथ 17 फीट ऊंची शिवाजी की अश्वारोही कांस्य प्रतिमा भी है। भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने इस भव्य प्रतिमा का अनावरण 30 नवंबर , 1957 को किया था। मौजूदा समय में प्रतापगढ़ किला सतारा के वर्तमान सांसद और वीर शिवाजी के वंशज उदयराज भोसले की देखरेख में है। यहां आकर हम अतीत की इस अनमोल धरोहर पर गर्व कर सकते हैं।

महाबलेश्वर से मुम्बई लौटते समय 18 किलोमीटर की दूरी पर पंचगनी है। पंचगनी का अर्थ है – “पांच पहाड़ियों का समूह”। इसकी ऊंचाई समुद्र सतह से लगभग 1350 मीटर है। यहां की रमणीयता का अंदाज़ इसी बात से लगाया जा सकता है कि इन्हीं पहाड़ियों के मध्य कृष्णा नदी का फैलाव है। जिस कोण से देखें, नदी का जल ऊंची-ऊंची नीली पहाड़ियों की गोंद में मचलता दिखाई देगा। सिलवर ओक और क्रिसमस ट्री इस छोटे से टाउन की अपनी पहचान है। 1860 में एक ब्रिटिश अधिकारी जॉन चेसन ने पंचगनी हिल स्टेशन में खासी दिलचस्पी दिखाई। उसने यहां के सौंदर्यीकरण में मानवीय हस्तक्षेप की पहल की थी। 1863 में जॉन चेसन को पंचगनी का प्रथम सुपरिटेंडेंट और मजिस्ट्रेट नियुक्त किया गया। उन्होंने देशी-विदेशी अनेक फूलों एवं फलों की प्रजातियां यहां विकसित कीं। चेसन ने अपने पहले , दूसरे और तीसरे ब्रोशर में पंचगनी के क्रमिक प्रगति की चर्चा की है। सन् 1913 में प्रकाशित व्हिटनी वी. लिन ने अपनी पुस्तक “गाइड टू पंचगनी” में तत्कालीन परिवेश की चर्चा करते हुए जनजीवन की रोजमर्रा की ज़रूरतों के बारे में विस्तार से लिखा है। उसने इस पुस्तक में बंगलों के नाम गिनाने से लेकर यूरोपीय छात्रों की शिक्षा आदि में काफी दिलचस्पी दिखाई है। क्रिश्चियन, पारसी, मुस्लिम और हिन्दू समुदाय के प्रारंभिक विकास की सचित्र व तलस्पर्शी व्याख्या लिन द्वारा उनकी पुस्तक में की गई है।

महाबलेश्वर की ही तरह यहां भी कई छोटे-बड़े पॉइंट्स हैं। 95 एकड़ में फैले टेबल लैंड की खूबसूरती देखकर लगता है मानो प्रकृति-देवता के जलपान के लिए विधाता ने मनोरम मेज की व्यवस्था कर दी है। बरसात में तो हरी कारपेट पर पीले और सफेद फूलों की डिज़ाइन बन जाती है। यहां पर दो गुफाएं और पांडव चूल्हा है। टूरिस्ट गाइड कहते हैं कि पांडव इन गुफाओं में कुछ दिनों तक ठहरे थे, जबकि स्थानीय लोगों का मानना है कि ये मानव निर्मित हैं। टेबल लैंड पर जुड़वीं खूबसूरत झीलें सैलानियों को अपनी ओर खींचती हैं। घुड़सवारी करवाने के लिए घुड़सवार चारों ओर तब तक मंडराते रहते हैं जब तक कि उन्हें सैलानियों की मंशा का पता न चल जाय। सैलानी घुड़सवारी कम, किन्तु घोड़ों के अज़ीबोगरीब नाम पढ़कर लोटपोट होने लगते हैं। जैसे – व्हाट्सएप्प, फेसबुक, शाहरुख़, सलमान, अक्षय कुमार आदि। इस पॉइंट का दुःखद पहलू यह है कि मुख्य द्वार पर खोमचे वालों ने कब्जा कर रखा है। मनमोहक जगह पर बदनुमा धब्बा। सम्भवतः यहां के नगर परिषद की इनसे आय होती हो।

पंचगनी शैक्षणिक संस्थानों का हब है। यहां के आवासीय विद्यालय देश के गिने-चुने विद्यालयों में शुमार हैं। सेंट पीटर्स विद्यालय, सेंट जोसेफ कॉन्वेंट, किमिन्स विद्यालय, अंजुमन इस्लाम तथा बिलिमोरिया जैसी संस्थाएं ब्रिटिश काल से अपनी सेवाएं दे रही हैं। इनके अलावा दर्ज़नों आवासीय विद्यालय पंचगनी में चल रहे हैं। हलांकि इन दिनों यहां शिक्षा की गुणवत्ता में तेजी से गिरावट आयी है। शायद संस्थान-संचालकों की व्यावसायिक सोच और नीति का असर हो। कमोबेश यही हश्र पूरे देश की शिक्षा व्यवस्था का है। प्रोडक्शन तो है, लेकिन “जिय बिनु देह नदी बिनु बारी” (प्राण के बिना शरीर और पानी के बिना नदी) की तरह। संवेदनाएं सूख रही हैं और मूल्य मर रहे हैं। बस उत्पादन हो रहा है।

अन्य पर्यटन स्थलों की तरह यहां का भी लोकजीवन कठिन है। छोटे से नगर की सीमित सुविधाएं। घाटियों में बसे जनजीवन की हलचल बुधवार के साप्ताहिक बाज़ार में देखने को मिलती है। बाकी दिनों में आसमान छूती वस्तुओं की कीमतें इनकी पहुंच से बाहर होती हैं। यहां एक वर्ग ऐसा भी है जो अपने को अंग्रेजी दा समझता है। अपने में सीमित और तंग। महानगरों वाली व्यस्तता और आपाधापी का स्वांग रचते ये लोग असली जीवन से कोसों दूर हैं। न भारतीयता की ललक और न ही पश्चिम की समझ। त्रिशंकु की तरह अधर में झूल रहे हैं। ऐसे लोग प्रकृति की सुरम्य वादियों में रहकर भी अपनी प्रकृति (स्वभाव) से तालमेल नहीं बिठा पाते। शहरी लोगों पर निशाना साधने वाले रचनाकार अगर इनसे मिलते तो उनका भ्रम दूर हो जाता।

पारसी समाज यहां दशकों से बसा है। परम्परागत रूप से बने इनके बंगलों में लकड़ियों का प्रयोग अधिक है। सीमेंट और लाल टिन से बनीं छतें ढलावदार किंतु आकर्षक होती हैं। इन्होंने बेकरी सहित कई उद्योगों को अपने पेशे के रूप में चुना है। मालाबार और लकी बेकरी काफी लोकप्रिय हैं। पंचगनी का “पारसी पॉइंट” पारसियों के नाम और उनके सहयोग से बना है। यहां से खड़ा होकर घाटियों का विहंगम दृश्य खुली आँखों और टेलिस्कोप दोनों से देखा जा सकता है। नीचे कृष्णा नदी के किनारे बसे गांव ऊंघते से प्रतीत होते हैं। यहीं से कुछ दूरी पर “सिडनी पॉइंट” है। मदहोश कर देने वाली ठंडी हवाओं का झोंका सारी थकान दूर कर देता है। जिधर नज़र उठे , ठहर जाए। यहां का मंत्रमुग्ध कर देने वाला वातावरण सदाबहार है। सम्भवतः इसी नाते फ़िल्म अभिनेता अमीर खान और मशहूर सिने गायिका आशा भोसले का पंचगनी में अपना बंगला है। पुराने और नये कई फ़िल्मी गीतों की शूटिंग यहां हुई है। बदलते मौसम के साथ आज भी प्रेम गीतों की शूटिंग होती रहती है।

पूरे साल पर्यटकों की सरगर्मी पंचगनी में बनी रहती है। त्योहारों की चहल-पहल का पता ही नहीं चलता। हाँ , गणेशोत्सव की धूम में महाराष्ट्रीयन संस्कृति की झलक अवश्य दिखाई देती है। मूर्ति विसर्जन के समय अद्भुत नज़ारा होता है। प्रशिक्षण प्राप्त सैकड़ों नवयुवक और नवयुवतियां सड़क के किनारे अलग-अलग वाद्य यंत्रों के साथ खड़े रहते हैं। निर्देशक का इशारा पाते ही दर्ज़नों नगाड़े झांझ , तुरही , मृदंग , ढोल और तिनगोड़िया से लटके एक बड़े घण्टाल के साथ बज उठते हैं। विशेष परिधान पहने ये वादक लय और ताल में माहिर होते हैं। यातायात में बिना व्यवधान पहुंचाए इनका कारवां आगे बढ़ता रहता है। उत्सवधर्मिता का शानदार प्रदर्शन। मुझे बताया गया कि पुणे के आई. टी. प्रोफेशन में कार्यरत दर्ज़नों एम्प्लॉयी इस उत्सव के लिए बकायदे प्रशिक्षण लेते हैं। पिछले कई वर्षों से स्वामी समर्थ मंडल द्वारा बेबी पॉइंट पर गरबा और डंडिया का भी आयोजन हो रहा है।

पंचगनी से 14 किलोमीटर घाट के मार्ग से होकर उतरना होता है। प्रकृति की कारीगरी को कम देख पाने की कसक जिन पर्यटकों को रह जाती है, यहां पूरी होती है। इसी रास्ते में पैराग्लाइडिंग का भी मज़ा लिया जा सकता है, हलांकि कुछ दुर्घटनाओं के कारण अब इस पर रोक लगा दी गई है। 20 मिनट की ड्राइविंग के बाद निसर्ग के निर्दोष विस्तार में बसा है – “वाई” । “वैराज” नाम का यह प्राचीन नगर ऋषियों और मनीषियों की तपस्थली रहा है। कहा जाता है “रामडीह” नामक स्थान पर प्रभु राम ने कृष्णा नदी में स्नान किया था। पांडव भी यहां कुछ दिनों तक रहे थे। सत्रहवीं शताब्दी में संत समर्थ रामदास ने इस भूमि को अपनी कर्मस्थली के रूप में चुना था। कृष्णा नदी के समानांतर इस प्रज्ञा चक्षु ने ज्ञान की पावन गंगा बहाई। यहां आकर हरिद्वार और वाराणसी का स्मरण हो आता है। नदी के किनारे सुशोभित सैकड़ों मंदिर वाई के वृहद् इतिहास की कहानी बया करते हैं। सम्भवतः इन्हीं कारणों से इस क्षेत्र को “दक्षिण काशी” की उपाधि मिली होगी। वैदिक शिक्षा देने के लिए 1901 में प्रज्ञा पाठशाला की शुरुआत हुई। प्रसिद्ध तर्कतीर्थ लक्ष्मण शास्त्री जोशी ने वाई के गौरवमय इतिहास का उल्लेख कई स्थानों पर किया है। उपासना-स्थलों की दृष्टि से पेशवा काल में काफी प्रगति हुई। मैसूर के शासक टीपू सुल्तान से लोहा लेने वाले चतुर और दूरदर्शी मराठा नाना फड़नवीस का वाड़ा यहीं से कुछ दूर मेडवली में है। नाना फड़नवीस आजीवन मराठा संघ को एक सूत्र में बांधे रहे। मराठी विश्वकोश मंडल के मुख्यालय के कारण यह शहर महाराष्ट्र का सिरमौर है।

आजकल इस प्राचीन नगरी में विकास की नई बयार बहने लगी है। भवन निर्माताओं और राजनेताओं के गठजोड़ से यहां प्रगति की नई परिभाषा गढ़ी जा रही है। व्यावसायिक लाभ की भेंट चढ़ रही यह सांस्कृतिक नगरी आंसू बहा रही है। गरवारे और भारत पेट्रोलियम जैसे व्यावसायिक घराने यहां अपने कारखाने स्थापित कर रहे हैं। साफ-सुथरी सड़कें, आधुनिक तकनीकी से सुसज्जित अस्पताल, आधा दर्जन पेट्रोल पंप और उच्च शिक्षा देते कई संस्थान वाई की अहमियत को रेखांकित करते हैं। यहां के असली सौंदर्य को चखने के लिए दूर-दराज गांवों में धंसना ज़रूरी है। वहां किसानों के पसीने की गंध घ्राणेन्दियों को तृप्त कर देगी। प्रकृति-साहचर्य में अपनापन महसूस होगा। इक्कीसवीं सदी के दौर में ऐसा स्थान दुर्लभ है। दुःखद यह कि आने वाले कुछेक दशकों में यह स्थान आधुनिक विकास की भेंट चढ़ जाएगा। मशीनों की गड़गड़ाहट से पक्षी और पशु सहमे-सहमे होंगे। धरती-पुत्र किसान किसी कारखाने में मज़दूर बना होगा।

महाबलेश्वर , पंचगनी और वाई के सुदीर्घ व विस्तृत इतिहास में सदियां बोलती हैं। पर्यटन के इस महातीर्थ की कई परतें हैं। कुरेदने पर हर्ष और विस्मय से आंखें फैलती जाती हैं। यहां आकर सैलानी निर्वाण प्राप्त करते हैं – अकथनीय व शब्दातीत!

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