अनुज हनुमत,
पिछले लोकसभा चुनाव (2014) में प्रशांत किशोर के नेतृत्व में भाजपा ने प्रचण्ड बहुमत प्राप्त किया। इसके बाद बिहार में नीतीश-लालू की जोड़ी ने भी पीके के नेतृत्व में विरोधियों को परास्त करते हुए बहुमत प्राप्त किया। बहरहाल इस बार पीके कांग्रेस की डूबती नैय्या के खेवनहार हैं।
असल में प्रशांत किशोर का ज्यादातर दखल सोशल मीडिया द्वारा प्रभावित होने वाले वोटर्स पर होता है, जिसकी मौजूदा समय में सबसे अधिक संख्या है। इसीलिए अब अन्य पार्टियां भी ऐसे ही किसी यूनिक पर्सनालिटी की तलाश में हैं, जो उन्हें आगामी चुनाव में सफल बना सके।
सूत्रों की माने तो ऐसा ही प्रयास अब बहुजन समाज पार्टी का केंद्रीय नेतृत्व भी कर रहा है। सूत्रों के मुताबिक़, बसपा सुप्रीमों मायावती भी अपनी पार्टी के लिए एक प्रशांत किशोर की तलाश कर रही हैं। सूत्रों के अनुसार, आने वाले विधानसभा चुनाव में बसपा भी ठीक वही रणनीति अपनाना चाहती है, जैसा भाजपा और कांग्रेस ने अपनाई है। बसपा का दलित वोट बैंक तो कहीं खिसकने वाला नहीं, लेकिन ऐसा भी नहीं है कि सिर्फ इसी वोट बैंक के बल पर बसपा यूपी की सत्ता का स्वाद चख पाये।
जानकारों की मानें तो बसपा की नजर उन बौद्धिक तबके के वोटर्स पर है, जो बाबा साहब अम्बेडकर और कांशीराम के प्रशंसक हैं। सूत्रों के अनुसार, बसपा का थिंक टैंक एक ऐसी टीम की तलाश में है, जो इलेक्ट्रानिक, प्रिंट मीडिया से लेकर सोशल मीडिया तक विरोधियो के आरोपों का जवाब दे सके।
आपको बता दें कि भारत में इस समय इंटरनेट यूजर की संख्या लगभग 30 करोड़ है और सोशल मीडिया पर लगभग 15 करोड़ लोग हैं। बहुजनों की ज्यादातर आबादी सोशल मीडिया से अभी बाहर है। लेकिन जल्द ही ट्विटर और फेसबुक पर बहुतायत मात्रा में बसपा के फालोअर दिखने वाले हैं।
दरअसल, बसपा के थिंकटैंक माने जाने वाले एक ब्राह्मण नेता का कहना कि इस बार बसपा का बदला हुआ रूप विरोधी पार्टियों और जनता को सोचने पर मजबूर कर देगा। उनके अनुसार बसपा ही एकमात्र पार्टी है, जो जनता को हर मामले में राहत दिला सकती है। बसपा को लेकर विरोधी पार्टियों ने खूब अफवाह फैला रखी है जिसका पार्टी उन्ही की भाषा में जवाब देगी।
अगर 2017 में होने वाले उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव की तैयारी की बात करें तो इस मामले में बीजेपी सबसे आगे चलती दिखाई दे रही है और उसके पीछे कांग्रेस और सपा में नजदीकी लड़ाई है। 2014 के लोकसभा चुनाव में केंद्र की सत्ता से बाहर जाने वाली कांग्रेस को भी धीरे-धीरे इसकी ताकत का अंदाजा लगने लगा है, जिससे वो पीके के नेतृत्व में सक्रिय तो हुई है, लेकिन अभी भी कम है।
देखना दिलचस्प होगा कि बसपा की इस नई चाल का विरोधियों के कांफिडेंस पर क्या असर पड़ता है। क्योंकि सभी अपनी जीत जीत के प्रति लगभग आश्वस्त हैं। लेकिन एक बात तो तय है कि यूपी में होने वाले आगामी विधानसभा चुनाव में सोशल मीडिया का प्रभाव जबरदस्त तरीके से दिखाई देने वाला है।