डॉ. जितेन्द्र पाण्डेय | Navpravah.com
भूमण्डलीकरण के दौर में हिंदी की दिन दूनी रात चौगुनी प्रगति देखकर हर हिंदुस्तानी का सीना गर्व से चौड़ा हो रहा है। विश्व की अट्ठारह प्रतिशत जनता हिंदी बोलती है और समझती है। दुनिया की बारह भारोपीय भाषाओं में से चार भारोपीय भाषाएं तो हमारे देश में अपनी खुशबू लुटा रही हैं। भाषाओं की इस विविधता पर कोई भी राष्ट्र इतरा सकता है। ये खुशनुमा यथार्थ हमें विश्वगुरु का एहसास दिलाता है। इन सबके अलावा मेरा सरोकार यथार्थ के कुछ अन्य चट्टानों से टकराना है।
तकरीबन डेढ़ दसक के अंदर-अंदर देश में अंग्रेजी माध्यम के विद्यालयों की बाढ़-सी आ गई है। अंग्रेजी भाषा के नाम पर अप्रशिक्षित छोकरे (अध्यापक) राष्ट्र के भविष्य से खिलवाड़ कर रहे हैं। स्कूल प्रबंधन को भी कम दाम में चोखा काम (आर्थिक लाभ) मिल रहा है। कुकुरमुत्ते की तरह पनपे इन स्कूलों का हमला सर्वप्रथम भारतीय भाषाओं पर होता है। ऐसा प्रतीत होता है ‘वर्नाकुलर’ शब्द भारतीय भाषाओं की गरिमा पर प्रश्नचिन्ह खड़ा कर रहा हो। हिंदी भाषा को हेय दृष्टि से देखते ये शैक्षणिक संस्थान “कैम्पस फ्री हिंदी” की बात करते हैं। उन छात्रों पर फाइन लगाते हैं, जो हिंदी बोलने की ज़ुर्रत करते हैं। यह है हिंदुस्तान की ज़मीनी हक़ीकत। विद्या के इन मंदिरों को तो यह एहसास होना चाहिए कि कोई भी व्यक्ति मात्र अंग्रेजी बोलकर विवेकशील, ज्ञानी और बुद्धिमान नहीं बनता। यदि ऐसा होता तो बंग्ला में लिखी ‘गीतांजली’ को नोबेल पुरस्कार नहीं मिलता। हर साल अंग्रेजी भाषा के ही साहित्य को यह प्रतिष्ठित अवार्ड दिया जाता।
पिछले दिनों जब मैं हिंदी के एक समारोह में शामिल होने मुंबई गया था,तो एक अज़ीब वाकया सामने आया। एक सम्मानित विद्यालय के प्राचार्य ने बताया कि वे अपने संस्थान में हिंदी बोलने की इजाज़त नहीं देते। सिर्फ ब्रेक में। अपनी बात आगे बढ़ाते हुए उन्होंने कहा, “यदि कोई ब्रेक में हिंदी बोलता है तो मैं कहता हूँ, बच्चों ने हिंदी बोला नहीं, मैंने सुना नहीं।” शैक्षणिक संस्थानों में हिंदी की यही असलियत है। ज़ुर्माना, दंड, घृणा आदि। यदि इसे मनोवैज्ञानिक ढंग से विश्लेषण किया जाय, तो पाएंगे कि हमें जिस साँचे में ढालने की कोशिश हो रही है, हम ढल रहे हैं। अंग्रेजियत हिंदी को दब्बू और हतवीर्य बनाने पर आमादा है। आधुनिकता के नाम पर भारतीय शिक्षा में हिंदी माध्यम को पिछड़ा मानना और मनवाना गहरे षड्यंत्र का उदाहरण है। आखिर इस विचार को क्या कहेंगे ?
“We must do our best to form a class who may be interpreters between us and the millions whom we govern;a class of persons Indian in blood and colour, but English in taste, in opinions, words, and intellect. ” (हमारे तथा जिन पर हमारा शासन है, ऐसे करोड़ों जनों के बीच दुभाषिए का कार्य करने में समर्थ एक वर्ग तैयार करने के लिए हमें भरपूर कोशिश करनी है; उन लोगों का वर्ग जो खून एवं रंग में भारतीय हों, लेकिन रुचियों, धारणाओं, शब्दों एवं बुद्धि से अंग्रेज हों।)
– T.B. Macaulay
हम सभी जानते हैं कि भाषा और संस्कृति अभिन्न हैं। जब कोई हमारी भाषा छीनता है, तो वह परोक्ष रूप से हमारे ऊपर सांस्कृतिक हमला करता है। हमारी नई पीढ़ी अपनी संस्कृति से कितनी दूर जा चुकी है! इसके लिए शिक्षा जगत में प्रचलित कुछ उदाहरण ज़रूर देखें- भारतीय परिधान धारण करने में हीन भावना, हिंदी बोलने में शर्मिंदगी महसूस करना, किसी के द्वारा पैर छूता देख हँसी के फव्वारे छूटना, आदरसूचक शब्दों के प्रयोगकर्ता को मूर्ख समझना इत्यादि। नई पीढ़ी की यही सोच जब व्यापक और व्यवहारिक स्तर पर उतरती है, तो वृद्धाश्रमों में बेतहाशा बढ़ोत्तरी होती है। आत्महत्याओं का ग्राफ बढ़ने लगता है और अपराध निरंकुश हो उठता है। संवेदनाएं सूखती हैं और मानवता मरने लगती है।
यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि हमारी सरकारें और ब्यूरोक्रेसी आए दिन अंग्रेजी को बढ़ावा दे रही हैं। इनका यही मानना है कि कोई भी व्यक्ति अथवा राष्ट्र अंग्रेजी पढ़कर ही विकास कर सकता है। संभवतः इसी कारण दिल्ली नगर निगम की सभी पाठशालाओं को अंग्रेजी माध्यम में बदलने की योजना बनाई गई होगी। बाल-मन पर भाषा का गहरा असर पड़ता है। यह वही समय होता है, जब स्वभाषा के प्रति बालक के मन में अनुरक्ति और आदर जगाया जा सकता है, अन्यथा सरकारी तंत्र है। उनका राजभाषा विभाग है। हिंदी दिवस पर छलछलाता भाषाई प्रेम है। हिंदी सेवी संस्थाओं के मान-सम्मान, पुरस्कार हैं। उनके प्राप्तकर्ताओं तथा दाताओं की अपनी दुनिया और अपना पैतरा है।
मुझे लगता है कि हिंदी की सच्ची सेवा तो तब होगी, जब शिक्षा जगत में उसे उचित स्थान मिले। बच्चा-बच्चा हिंदी बोले और हिंदी जिए। आज सवा सौ करोड़ भारतवासियों की भावनाओं पर अंग्रेजियत राज कर रही है। अभी हम भाषाई गुलाम हैं। प्रतिभाएं दम तोड़ रही हैं। यह गुलामी ही कही जा सकती है, जिसके कारण विश्व के शीर्ष 200 विश्वविद्यालयों की सूची में भारत का नाम तक नहीं है। उधार पैसा हो, मकान हो, कपड़ा हो या भाषा, कभी भी गौरव का कारण नहीं बन सकती। हिंदी के सभी आंदोलन यदि शिक्षा पर फोकस करें, तो बात बनें अन्यथा वह दिन दूर नहीं जब किसान का बेटा, मजदूर का बेटा, सब्जी विक्रेता का बेटा, ऑटो चालक का बेटा हिंदी बोलने से कतराएगा। बोलेगा अंग्रेजी ही, भले टूटी-फूटी हो। गली-मोहल्ले में अंग्रेजी माध्यम के स्कूल जो खुल रहे हैं।
हतभाग्य हमारा कि हिंदी जैसी समृद्ध भाषा को छोड़ हम ‘पर भाषा’ के पीछे दौड़ लगा रहे हैं। कितना खो रहे हैं! इसका अनुमान भी हम नहीं लगा सकते। पिछले दिनों भारत के उपराष्ट्रपति माननीय वेंकैया नायडू ने इसी तरह की पीड़ा को एक समारोह में शब्द दिया था, “उस समय दक्षिण में हिंदी का विरोध जोरों पर था। रेलवे स्टेशन, पोस्ट ऑफिस पर लगे हिंदी के बोर्ड्स उखाड़े जा रहे थे, उन पर कालिख पोती जा रही थी। उन आंदोलनकारियों में मैं भी था। मुझे नहीं मालुम था कि यह कालिख हिंदी पर नहीं बल्कि हमारे भाग्य पर पोती जा रही थी।” कमोबेश यही स्थिति पूरे देश की है। दुनिया के साथ कदमताल करने और करवाने की ललक में हम सभी जिम्मेदार हैं।
मानसिक गुलामी की इस अमावस का सवेरा होना हमारे अस्तित्त्व के लिए ज़रूरी है। उम्मीद की किरण कहीं-न-कहीं अवश्य है। आइए, पहचानें और अपने हिस्से की जिम्मेदारी निभाएं।
(लेखक वरिष्ठ साहित्यकार और नवप्रवाह.कॉम के साहित्य सम्पादक हैं।)
अतिसुंदर लेख