“मेरी बात सुनो, दोस्तों, रोमन और देशवासियों …” मार्क एंटनी ने अपनी प्रसिद्ध श्रद्धांजलि इस प्रकार शुरू की ।
लोगों की एक बड़ी सभा के सामने उन्होंने घोषणा की, “मैं यहां सीज़र को दफनाने के लिए हूं किन्तु उसकी प्रशंसा करने के लिए नहीं। आदरणीय ब्रूटस ने कहा कि सीज़र महत्वाकांक्षी था। और यदि ऐसा है, तो यह एक भयानक दोष होगा। मैं यहां हूं जो ब्रूटस ने जो सीजर के लिए जो कहा है उसे मैं गलत करने नहीं आया, लेकिन…” यह कहकर, मार्क एंटनी, जो सीज़र के करीबी दोस्त थे, उन्होंने एक ऐसा अद्भुत उद्बोधन किया कि जिसके प्रभाव से जो रोमन जो सीज़र के खिलाफ थे, अंततः ब्रूटस और सीज़र को मारने वाले अन्य षड्यंत्रकारियों के दुश्मन बन गए। अंत में मार्क एंटनी कहते हैं कि Here was a Ceaser, when come such another? यहाँ एक सीज़र था, ऐसा दूसरा कब आएगा ? मार्क एंटनी ने समाज के बारे में जो सच है उसका वर्णन करने के लिए अपनी शब्द शक्ति का इस्तेमाल किया। यदि उनका एक-एक शब्द सच्चा था, तो वह श्रोता के मन की शंकाओं में प्रवेश कर गया और उन्हें सत्य समझाता गया । वाक्पटुता एक शक्तिशाली कप्तान का एक अमोघ हथियार है। यह अपेक्षा के अनुरूप काम करता है।
प्रमुख स्वामी महाराज की वाणी सदैव प्रभावशाली रही। उसकी बातें संजीवनी की तरह थीं। स्वामी जी जब बोलते तो उनकी भावना ऐसी थी कि सुनने वाले को ज्ञान होता था । श्रोता को शांति होती थी । उनको जीवन की दिशा मिलती थी । उनके मन में आए शुभ संकल्पों की पूर्ति होती थी । कुछ साल पहले अक्षरधाम गांधीनगर का काम जोर-शोर से चल रहा था। समय बहुत कम था और काम बहुत ज्यादा। शिल्पियों वहां पत्थर की नक्काशी का काम करते थे। उनको वहा सेवा करते करते बहुत समय हो गया था इसलिए यह स्वाभाविक ही था कि सभी को घर की याद आती थी । उन सभी ने फैसला किया कि अब हमें कुछ देर के लिए घर आ जाना चाहिए. परिवार को मिलना चाहिए । उन्होंने इस बारे में जिम्मेदार लोगों से भी बात की। बहुत काम बाकी था इसलिए किसी एक के चले जाने पर भी काम पे बड़ा गहरा असर होने वाला था । ऐसे में स्वामी जी अपने विचारण के दौरान वहां आते है । सभी संतों भक्तों को मिलते है । अक्षरधाम परिसर भी पूरा देखा. उन्हें अंदाजा हो गया कि कितना काम बाकी है। व्यवस्थापकों ने स्वामी जी साथ शिल्पी बंधुओं की एक विशिष्ट सभा थी रखी । उन्हें यह भी बताया गया कि मजदूर घर जाने की बात कर रहे हैं, अगर ऐसा हुआ तो काम रुक जाएगा और कुछ भी पूरा नहीं होगा. स्वामी जी सबका भला करना चाहते थे।
सभा में उन्होंने बहुत आदर और प्रेम के साथ सभी की सेवा की प्रशंसा की । बाद में उन्हों ने जो कहा इसका सार था: ‘आप सब यह भगवान की सेवा कर रहे हो। बहुत समय बीत चुका है। काम अभी भी बाकी है। लेकिन अगर आप सेवा करने के इच्छुक हैं तो सब कुछ पूर्ण हो जाएगा । सबको पुण्य मिलेगा। शांति भी होगी। अक्षरधाम का काम पूरा होने के बाद यहां लाखों दर्शनार्थियों आयेंगे और वे सभी आपको याद करेंगे। घर तो सभी को जाना है किन्तु कुछ समय के बाद में जाना । स्वामी जी के वचन दिव्य थे। उनकी भावना भी भव्य थी।अंत में स्वामीजी ने सब का आभार माना । उन सभी को कार्य का महत्व समझाया और समय पर पूरा करने का भी अनुरोध किया। इस प्रकार उनकी अमृतमय वाणी ने कारीगरों के मन को बदल दिया। उन्होंने यह भी महसूस किया कि यह अक्षरधाम निर्माण कार्य हमारा है। किसी को भी घर जाकर काम में देरी नहीं करनी चाहिए। सभी को जोरों से काम करना चाहिए। घर तो बाद में भी जा सकते है । लेकिन यह सेवा दोबारा उपलब्ध नहीं होगी। ऐसे स्वामीजी के भावपूर्ण सरल शब्दों का जादुई प्रभाव पड़ा और वे घर जाने के अपने इरादे को टालते रहे।
स्वामीजी जो कहते थे उसे सुनने वाले को सुनना अच्छा लगता है। उनका एक एक शब्द हृदय परिवर्तन कराता था. ऐसा ही एक प्रसंग अटलादरा वडोदरा में हुआ। एक बार स्वामीजी अटलादरा मंदिर में आशीर्वाद दे रहे थे. उन्होंने कहा, ‘… आत्मा के साथ भक्ति करने से आपको कितना भी सम्मान या अपमान मिले, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। अवसर आने पर मन खट्टा नहीं होना चाहिए। जो ज्ञानी है वह अपने मन से ही समाधान पाकर खुश होगा। उसे हमेशा आनंद और केवल आनंद ही मिलता है…’ आशीर्वाद के बाद स्वामी जी अपने निवास की ओर जा रहे थे। वहाँ भीड़ में से एक भक्त स्वामी जी के पास पहुँचा और उनके चरणों में गिर कर रोने लगा। यह देख संत और भक्त वहीं खड़े हो गए। किसी ने धीरे से उसका हाथ पकड़ और खड़ा किया । स्वामीजी करुणा से उसकी ओर देख रहे थे। भक्त की आंखों में आंसू थे. उन्होंने स्वामी जी की ओर देखा और कहा: ‘ स्वामी जी ! यदि आज की सभा में आपने यह आत्मा की बात नहीं बताई होती तो आज मैं सत्संग को बुरा समज कर और उसका अभाव लेकर में सदा के लिए विमुख हो जाता। यहां के कार्यकर्ता की लापरवाही के कारण मुझे सत्संग का अभाव आ गया था । आपने मेरे दिल की बात कही और मेरे संदेह को दूर किया।’
स्वामीजी मंद-मंद मुस्कराए। उन्होंने हरिभक्त के सिर पर हाथ रखकर उन्हें आशीर्वाद दिया। प्रसिद्ध भागवत रसज्ञ माननीय कृष्ण शंकर शास्त्रीजी ने स्वामीजी के व्यक्तित्व की विशेषताओं का वर्णन करते हुए कहा, ‘प्रमुखस्वामी बोलते हैं तब मुझे लगता है कि जैसे गंदे कपड़े धोने के लिए पानी की आवश्यकता होती है, वैसे ही गंदे विचारों को धोने के लिए उनकी वाणी की आवश्यकता है।’ स्वामी जी का बोलना ऐसा था। . उनके शब्दों के प्रकाश से अंतर का अँधेरा मिट जाता था और उजाला होता था।
जब सबसे श्रेष्ठ कर्णधार बोलते है तो उसे सुननेवालों का दिल, दिमाग और व्यवहार अवश्य बदलता है । स्वामीजी इतने शब्दपति संत थे..When comes such another? उनके जैसा दूसरा तो कहा से आएगा ?
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