“अनजाने में भी नीति न छोड़ने वाले प्रमुख स्वामी जी महाराज” -साधु अमृतवदनदास जी

रामकृष्ण परमहंस ने कहा है कि सारी साधना का फल यह है कि हमारा मन और मुख एक हो जाए ।

नीति तब शुरू होती है जब मानव मन और मानव मुख एक हो जाते हैं।  नीतिमय पुरुष नीति के बारे में बात कर सकते हैं और उस पर लिख सकते हैं।  चाणक्य नीति लिखने वाले चाणक्य ऋषि एक बहुत पवित्र आत्मा थे।  वे जैसे रहते थे वैसे ही बोलते थे ।  वे राज्य एक जिम्मेदार मंत्री थे।  इसलिए उनके पास साधन एवं उपकरणों की कोई कमी नहीं थी।  फिर भी उन्होंने घर में दो दीपक रखे थे।  जब राज्य का काम पूरा हो जाता, तो वे एक दिया बुझा देते और दूसरा जलाते थे।  फिर वे उस दिये के प्रकाश से पूजा आदि कार्य करते थे।  उन्हें ऐसा करते देख किसी ने उससे पूछा कि आप ऐसा क्यों कर रहे हों ?  आप केवल एक दीपक का उपयोग करें।  चाणक्यजी कहते हैं: “पूजा मेरे व्यक्तिगत जीवन के लाभ के लिए है। उसके लिए मैं राज्य के धन एवं राज्य के दीपक का उपयोग नहीं करता ।”  कितनी ऊँची नीति है यह !  आज बड़े लोग अपने बच्चों के लिए सरकारी विमानों और चार्टर्ड उड़ानों का उपयोग करने से नहीं हिचकिचाते हैं.  ऐसा करने में, उन्हें ऐसा लगता है कि उन्होंने देशभक्तिपूर्ण नैतिक कार्य का एक बड़ा कार्य किया है।

 प्रमुख स्वामी महाराज की नीति थी कि भगवान के लिए भी कोई भी अवैध रूप से कुछ भी लाना या उपयोग नहीं करना चाहिए।  उन्होंने वैसा ही व्यवहार किया और दूसरों को भी वैसा व्यवहार करने का सिखाया ।

 1977 के वर्ष में स्वामीजी इंग्लैंड के एक शहर लेस्टर मे थे । वहां डोनकास्टर रोड दयाभाई पटेल के घर उनका निवास था ।  बच्चों को स्वामी जी की प्रात:कालीन पूजा के लिए ताजे फूल लाने की सेवा सोपी गई थी ।  बच्चे  सड़क पर घूमते रहे और दर्ज किया करते थे कि एक अंग्रेज भाई  के घर के बगीचे से कितने फूल लेने हैं।  अंग्रेज भाई भले ही एक-दो फूल लिखते हैं, लेकिन बच्चे दो की जगह तीन फूल तोड़ते थे और सोचते हैं कि शाम को उन्हें बता दिया जाएगा।  स्वामीजी को यह जानकारी मिली।  उन्होंने एक सुबह एक संत से पूछा: ‘फूल कौन लाता है? जो बच्चा फूल लाता उसे मेरे पास लाओ’. एक बच्चा खुश खुश होकर स्वामी जी के पास पहुंचा।  उसने सोचा कि मेरी फ़ूलों लाने की सेवा से स्वामी जी प्रसन्न हुए है और मुझे आशीर्वाद देंगे।

जब वो स्वामी जी के पास पहुचा तो स्वामी जी उस समय शिक्षापत्री पढ़ रहे थे।  उसे एक श्लोक दिखाकर स्वामी जी बोले : ‘ भगवान स्वामिनारायण ने लिखा है कि मालिक से पूछे बिना एक भी फूल नहीं तोड़ा जाना चाहिए।  अगर हम एक फूल भी ले लें तो इसे चोरी कहते हैं।  अगर मेरी पूजा में फूल न हो तो चलेगा , लेकिन मुझे ऐसे फूल नहीं चाहिए।  सत्संगी कभी चोरी नहीं करते!’  बच्चे तो इजाज़त से फूल लाते थे, लेकिन दो की जगह तीन तोड़ देते थे।  ऐसा करना भी  स्वामीजी के मन में एक चोरी ही थी.. भले ही उसने शाम को मालिक को बताया क्यों न हो।

फ्रेंक्लिन रूजवेल्ट

अमेरिकी राष्ट्र के राष्ट्रपति रूजवेल्ट ने एक बार डर के मारे कहा था कि A man who will steal for me, is a man who will steal from me. जो आदमी मेरे लिए चोरी करेगा वह एक दिन मुझसे भी चोरी करेगा।  स्वामी जी को ऐसा कोई भय नहीं था।  क्योंकि उसके पास लूटने के लिए कुछ नहीं था।  उनके पास लिखने के लिए एक साधारण कलम तक नहीं थी।  लेकिन उन्हें इन बच्चों को शुद्ध नैतिक जीवन की उच्च भूमिका में ले जाना था ।

स्वामीजी ऐसे नीतिमंत संत थे. वे अनजाने मे भी नीति छोड़ते नहीं थे.

एक बार स्वामीजी बोचासन मंदिर में थे।  एक दिन विश्राम के लिए जाते समय उन्होंने एक भक्त को बुलाया और कहा, ‘जन्मदिन के लिए निकले सोवेनियर में से दो विज्ञापन मुझे पसंद नहीं आए।  आइए मैं आपका ध्यान उस ओर आकर्षित करता हूं।  एक तंबाकू के विज्ञापन और दूसरा विज्ञापन है पेस्ट्री फार्म का  ।”  फिर वे कहते हैं,” हमें जो करने से मना किया गया है, उसका विज्ञापन हमें नहीं करना चाहिए।  भले ही वह करोड़ों रुपये क्यों न दे! आप सभी इस पर विचार करें।

संस्थागत आधार पर इस तरह के विज्ञापन न लेने का निर्णय लिया गया है।” स्वामीजी के मन में श्रेष्ठतम नैतिकता थी।  कहना कुछ और करना कुछ और य़ह उनकी नीति नहीं थी।  उनके ऐसे आग्रह  के कारण छोटे-छोटे गांवों में रहने वाले सत्संगी भी तिनका भर भी हराम का नहीं रखते और न ही उसे पचाने की वृत्ति रखते हैं।

धरमपुर के छोटे से गांव वाहियाल में आदिवासी हरिभक्त रसिकभाई लल्लूभाई मोहिला में रहते हैं।  वे 15 साल से डेकोरेटर की कंपनी में काम कर रहे हैं।  एक बार, वापी में एक मानव कल्याण क्षेत्र में एक शादी के बाद मंडप से निकलने समय, उन्हें आधी रात को मंडप के एक कोने में एक बड़ा बैग मिला।  जब  उन्होंने बेग खोला तो अंदर दो छोटे बैग देखे।  एक में सोने के आभूषण और दूसरे में रुपये थे।  उसने बैग को सुरक्षित स्थान पर रख दिया ताकि कोई लालच में आकर उसे ले न जाए ।  अगले दिन सुबह 11 बजे जिस भाई के  घर में शादी थी वह भागे भागे आए ।  वे बहुत चिंतित लग रहे थे।  उनको अपनी बेग की जरूरत थी ।  यहां उनकी मुलाकात रसिकभाई से हुई।  बैग के बारे में पूछने पर वे भाई बताते है कि , ”बैग में 1,60,000 रुपये नकद थे और 20,000 रुपये की साड़ी और एक लाख रुपये से ज्यादा कीमत का सोना है.  रसिकभाई को यकीन हो गया कि बैग इसी भाई का है।  उन्होंने बैग लाकर उसे दे दिया।  भाई ने बैग खोलकर संपत्ति की जांच की।  अंदर सब कुछ सुरक्षित देख भाई प्रसन्न हुए और आश्चर्य से पूछा, “तुमने इसमें से कुछ रखा क्यों नहीं ?”  तब रसिकभाई कहते हैं, ”मुझे खुशी है कि अब घर पर मेरे सो रुपये हैं और मैं सुखी हू. पराया धन मुझे खुशी नहीं देगा ।  मैं प्रमुखस्वामी महाराज के सत्संग से खुश हूं।’

 स्वामीजी के सैद्धांतिक नेतृत्व ने दुनिया में ऐसे ईमानदार और नैतिक जीवन जीने वाले लाखों बाई भाई भक्तों की एक विशाल सेना बनाई है।  अगर उनके पास नीतिमय सौ रुपये हैं, तो भी वे पर्याप्त है. उनके लिए मन की नीति और भक्ति ही सच्चा धन है।  यह स्वामीजी के नैतिक नेतृत्व का चमत्कार है।

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