नेतृत्व की पहली योग्यता है नैतिक जीवन। इसके बिना किसी भी व्यक्ति का समाज और लोगों पर प्रभाव नहीं पड़ता ।
इसीलिए हितोपदेश में कहा गया है कि
मनस्येकं वचस्येकं कर्मण्येकं महात्मनाम् ।
मनस्यन्यद् वचस्यन्यद् कर्मण्यन्यद् दुरात्मनाम् ॥
दैत्यों के मन, वचन और कर्म अलग-अलग होते हैं, महान आत्माओं के मन, वचन और कर्म एक ही होते हैं। लोग तो अलग अलग तरह से बोलते और जीते हैं। यह एक अद्भुत सुभाषित है।
अक्सर ऐसा होता है कि नीति-सिद्धांतों की बात करने वाला व्यक्ति समय आने पर आदर्शों को भूल जाता है। स्टोनी ब्रुक विश्वविद्यालय, न्यूयॉर्क के प्रो. पीटर डी स्किओली ने अपना शोधनिबंध Equity or Equality? Moral judgments follows the money में कहा है कि नैतिक निर्णय धन का अनुसरण करते हैं। ऐसा कहा जाता है कि जब धन का लाभ प्रकट होता है या कुछ लाभ दिखाई देता है, तो व्यक्ति अपने सिद्धांतों को त्याग देता है। पैसा आने पर नैतिकता का स्तर बदल जाता है।
कुछ दिनों पहले कानपुर के एक इत्र उद्योगपति पर CBIC (केंद्रीय बोर्ड ऑफ इंडिरेक्ट टेक्सस एन्ड कस्टम ) ने छापा मारा । उन्हें वहाँ से 150 करोड़ रुपये नकद मिले! यह सारा पैसा बेहिसाबी था। इसे गिनने के लिए भारी संख्या में अधिकारी आए थे । इनके अलावा नोट गिनने की तीन मशीनें भी लगानी पड़ीं। एक एक पैसा इस बात का पुख्ता सबूत था कि नैतिकता को उन्होंने किनारे कर दिया गया है।
इत्र बनाने वाले का जीवन बिना नीति के गंदगी की गंध से कलंकित हो गया था।
यदि कोई अच्छा व्यक्ति एक पैसे को भी बिना हिसाब के देख लेता है, तो वह चिंतित हो जाता है। हालाँकि, इस कलियुग में ऐसा शुद्ध सज्जन कहाँ मिल सकता है? बहुत कम होंगे।
एक अन्य मामले में विश्व प्रसिद्ध मुंबई के एक अरबपति को डराने-धमकाने के लिए 2021 में बम की धमकी दी गई थी। उसकी जाँच से पता चला कि अपराधी बहुत बड़े वर्दीधारी अधिकारी ही थे! जो लोग के सिर पर कानूनी रूप से लोगो की सुरक्षा अवलंबन कराने की जिम्म्मेदारी थी, वही लोग खतरे और भय का कारण बने। कोई नीति नहीं, कोई नियम नहीं।
प्रमुख स्वामी महाराज के जीवन में ऐसे कई सुभाषित जीवित और सुगंधित थे। उनकी नीति की प्रेरणा नदी निरंतर बह रही थी।
वर्ष 2002 में स्वामी जी लंदन मंदिर में थे। ठाकुरजी को प्यार से झूले में झुलाकर स्वामीजी गुंबद के नीचे बैठे मेहमानों की ओर मुड़े। यहाँ बच्चों की आज दर्शनार्थियो में खास उपस्थिति थी । ललितभाई के चिरंजीवी तिलक उठ खड़े हुए। उसने स्वामी जी के हाथ में एक सोने की अंगूठी रख दी और कहा: “पिताजी! यह घनश्याम महाराज के लिए दी है। स्वामी जी ने अंगूठी नहीं ली। पहले पूछाः “कहां से लाए?” “माँ ने दिया।”
“माँ से पूछा था?” “हाँ।”
“तुम्हारे पिता ने तो ना कही थी।”
” उन्होंने ही देने को कहा है।” “बहुत अच्छा।” यह कहकर स्वामी जी ने ठाकोर जी के चरणों में अँगूठी भेंट की। लेकिन जब ललितभाई नीचे पाए गए, तो स्वामीजी ने तुरंत पूछा: ‘उसने ( तिलक ने ) वह अंगूठी दी है, क्या उसने तुमसे पूछा था?’ ललितभाई ने कहा: “हाँ, मैंने इसे घर से दिया था। ” स्वामीजी उनकी मंजूरी से संतुष्ट थे। उनका वही रवैया था। उनकी एक ही नीति थी। उनके दिमाग में यह था कि भगवान की सेवा के लिए भी नीति नहीं बदलेंगे। .
देश के एक छोटे से केंद्र में सुनामी पीड़ितों के लिए कुछ पैसे एकत्र किए गए थे। यहाँ के छोटे से सत्संग मंडल को ध्यान में रखते हुए, कुछ ग्राम प्रधानों ने सलाह दी, ‘इस धन का उपयोग आप अपना मंदिर बनाने में करें।’ जब यह मामला स्वामी जी के सामने आया, तो उन्होंने तुरंत कहा: ‘सुनामी के पैसे का उपयोग संगठन में नहीं किया जाता है। जिस हेतु सेवा आई है, उसे वहाँ भेज देना चाहिए।
एक एक पैसे का हिसाब शुद्धि से रखना चाहिए। हमें वही हिसाब सरकार को देना है। भले ही फिर पांच रुपये आए हो, लेकिन वह राशि समाज सेवा में ही जानी चाहिए।’ स्वामीजी के इस सैद्धांतिक प्रशासन से ही आज संस्था की प्रतिष्ठा अग्रिम स्थान पर है।
स्वामीजी ने वर्षों तक BAPS स्वामीनारायण संस्थान का संचालन किया। इन सभी वर्षों में उन्होंने देश-विदेश में 1200 मंदिरों का निर्माण किया। अन्य कई गांव शहर और देशो में जमीन भी संपादित किये । इन सभी जगहों का व्यवहार उन्होंने स्वयं किया है। उन्होंने कभी भी किसी किस्म का दुर्व्यवहार नहीं किया। ऐसा एक भी उदाहरण नहीं है जहां किसी स्थान का दुरुपयोग किया गया हो या गलत कागजात दाखिल किए गए हों या किसी के दिल को चोट पहुचाई हो । किसी को ऐसा करने के लिए मजबूर भी नहीं किया गया था। किसी के जबरदस्ती दस्तावेज़ पर उनके हस्ताक्षर नहीं करवाये। किसी के पेट पे लात नही मारी । किसी ने दहाड़ नहीं लगाई। किसी से नफरत नहीं की। किसी को नाराज करने के लिए झूठे आरोप नहीं लगाए। किसी भी व्यक्ति पर किसी भी प्रकार के राजनीतिक सामाजिक-आर्थिक पारिवारिक आदि का दबाव नहीं डाला।
सरकार या समाज का कोई कानून नहीं तोड़ा। किसी भी शास्त्रीय वैदिक सामाजिक और सरकार की नीति का उल्लंघन नहीं किया गया है। वे स्वयं नीति का एक जीवंत रूप थे। वे मूर्तिमंत नीति थे। उन्होंने जो भी कहा, किया लिखा, सोचा सब कुछ सौ प्रतिशत नैतिक था। उनके एक वचन से लाखों लोगों ने नैतिक जीवन जिया है। इसमें कोई शक नहीं कि नारायण स्वयं वहीं होते हैं जहां ऐसा सैद्धांतिक नेतृत्व होता है।
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