डॉ० कुमार विमलेन्दु सिंह | Navpravah Desk
1947 हमारे मुल्क की आज़ादी के साथ, उसके तक़सीम होने का भी साल है| कुछ नया बना पाने की उम्मीदों के साथ, कुछ पुराना खो जाने का भी साल है, दिलों के अंदर तूफ़ान भरने का भी साल है, सरहदों और सियासत के आगे, मोहब्बत के हार जाने का भी साल है| ये साल है नफ़रतों की पैदाइश का और मीज़ान भी है हौसले और ख़्वाब तौलने का, ये साल| वे जो उस तरफ़ चले गए, उनमें से कुछ की परछाइयां यहीं रह गईं| उनका अंदाज़ यहीं रह गया, उनका तबस्सुम यहीं छूट गया| 1956 में, रतन कुमार, यहाँ से पाकिस्तान चले गए|
रतन कुमार का जन्म 1941 में, अजमेर में हुआ था| इनका असली नाम, सैयद नज़ीर अली रिज़वी था और इनके वालिद, सैयद अब्बास अली रिज़वी, उर्दू के मशहूर अदीब और फ़िल्मकार, कृशन चन्दर के दोस्त थे| कृशन चन्दर 1946 में एक फ़िल्म बना रहे थे, जिसका नाम था “राख़”, इसके लिए उन्हें चाइल्ड आर्टिस्ट की ज़रूरत थी| रतन कुमार को देखते ही उन्होंने मन बना लिया और रोल दे दिया|
ये सफ़र की शुरूआत थी और सिलसिला ऐसा चला कि बहैसियत चाइल्ड आर्टिस्ट, रतन कुमार के पास ख़ूब काम आने लगा| उस दौर की लगभग, हर मशहूर फ़िल्म में, रतन कुमार, छोटे लड़के के किरदार में नज़र आए|
“1952 में आई “बैजू बांवरा” में ये छोटे बैजू के किरदार में नज़र आए. 1953 में आई “दो बीघा ज़मीन” और 1954 में तो इनकी शोहरत पूरे हिन्दुस्तान में फैल गई. 1954 में इनकी दो फ़िल्में आईं, राज कपूर निर्मित “बूट पॉलिश” और “जागृति”. फ़िल्म “जागृति” में बैसाखी लिए, “दे दी हमें आज़ादी, बिना खड्ग, बिना ढाल” गाता हुआ इनका चेहरा कोई नहीं भूला.”
फ़िल्म, “बूट पॉलिश” में, इन्होंने, डेविड और चंदा बर्क के साथ काम किया था| चंदा बर्क, नए और मशहूर सितारे, रणवीर सिंह की दादी थीं|
1947 में इनके लगभग सभी रिश्तेदार उस तरफ़ चले गए, लेकिन रतन कुमार, उस वक़्त बहुत सी फ़िल्में कर रहे थे, सो ये यहीं रुके| सारा काम कर लेने के बाद, 1956 में ये भी पाकिस्तान चले गए| वहां इन्होंने कई फ़िल्में बनाईं| “जागृति” का रीमेक, “बेदारी” नाम से वहां बनाया और मशहूर गीत, “आओ बच्चों तुम्हे दिखाएं, झांकी हिन्दुस्तान की” का पाकिस्तानी रूप ” आओ बच्चों सैर कराएं, तुमको पाकिस्तान की”, भी फ़िल्म में रखा| बतौर निर्माता, निर्देशक और नायक, वे पाकिस्तान में भी बहुत कामयाब न हुए| एक दुर्घटना में, उनकी 4 साल की बेटी भी गुज़र गई|
रतन कुमार, इतने बेज़ार हुए कि कभी न लौटकर आने के लिए कैलिफ़ोर्निया चले गए. वहीं उनका इंतक़ाल भी हुआ, 2016 में.
सियासत ने जो ज़मीन, नदी और पहाड़ हमसे ले लिए बंटवारे के वक़्त, उन्हें तो फिर भी किसी और नक़्शे में या तस्वीर में देखकर अपना माज़ी महसूस किया जा सकता है, लेकिन जो फ़नकार, जो अदीब, जो नग़्मापरदाज़, जो मौसिक़ार, जो मुसव्विर, एक बेहतर ज़िंदगी के लिए, एक अजीब से सफ़र पर, दिल के दूसरे जानिब चले, वे कहीं भी न पहुंचे, कहीं के न हुए.
(लेखक जाने-माने साहित्यकार, स्तंभकार, व शिक्षाविद हैं.)