“भारतीय संस्कृति: कर्मों पर आधारित है मानवता का उत्थान” : प्रो. रजनीश शुक्ल

प्रो. रजनीश शुक्ल | Editorial Desk

भारतीय संस्कृति इस त्रिआयमी संसार में चौथे आयाम की खोज करने का प्रयास मात्र है। ऐन्द्रिक अनुभवों पर आधारित इस भौतिक संसार में चौथे आयाम की खोज करने वाली भारतीय परंपरा पुरुषार्थ पर आधारित है। पश्चिमी सभ्यताओं की तरह भारतीय संस्कृति पुरुषार्थ के विषय में बहुत अलग स्थान पर पाई जाती है। पश्चिम में पुरुषार्थ का अर्थ प्रकृति और संसाधनों का उपभोग मात्र है जबकि भारतीय संस्कृति में पुरुषार्थ पशु से मनुष्य बनने की प्रक्रिया मानी गई है।

‌भारतीय संस्कृति में ईश्वर की मात्र आराधना करना ही अंतिम आदेश नहीं रहा बल्कि, ‘मनुर्भव’अर्थात ‘मनुष्य बनो’ का सिद्धांत निष्पादित किया गया है। केवल मनुष्य बनने की प्रक्रिया ही भारतीय संस्कृति का मूल आधार रही है। हमारी संस्कृति में मनुष्य के लिए केवल भौतिक कर्मों का अनुपालन व उपभोगवादी स्वभाव का ही प्रावधान नहीं रहा जिसके चलते विवेकहीन प्राणी अर्थात पशु और विवेक सम्मत प्राणी मनुष्य में अंतर भी बना रहा। धर्म निहित काम और धर्म नियामित अर्थोपार्जन की प्रवृत्ति ही मनुष्य की मुक्ति का माध्यम है।

“भारतीय संस्कृति को लेकर एक भ्रम है कि यह मोक्षवादी, पलायनवादी व वर्तमान समस्याओं से आँख मूंद लेने वाली संस्कृति है, जबकि वस्तुतः यह निराधार असत्य है। भारतीय संस्कृति सदैव कर्म प्रधान ही रही है जिसके माध्यम से ही मनुष्य का उत्थान सम्भव है।”

हमारी संस्कृति का यह मूलभूत सिद्धांत रहा है कि मनुष्य का जन्म ही इसलोक में ऋण के साथ होता है जोकि परलोक में सम्भव नहीं है। इन्हें ऋणत्रयं अर्थात देवऋण,पितृऋण, आचार्यऋण कहा गया है, जहाँ देवऋण से तात्पर्य है प्रकृति का ऋण, पितृऋण से तात्पर्य है पिता और पूर्वजों का ऋण, तथा तीसरा व अंतिम ऋण है आचार्य का ऋण जिसका अर्थ है कि जिस ज्ञान का अर्जन मनुष्य ने अपने शिक्षकों व आचार्यों से किया है उसे आगे वितरित व प्रसारित करेंगे यह आचार्य ऋण की पूर्ति है। इन तीनों ऋणों की पूर्ति करने वाला ही मोक्ष की प्राप्ति कर लेता है और उसे मोक्ष की प्राप्ति के लिए अलग से प्रयास नहीं करना पड़ता है।

भारतीय संस्कृति में ज्ञान की पवित्रता का सिद्धांत सर्वोपरि माना गया है जिसमें ज्ञान को सम्यक माना गया है न कि उपदिष्ट अर्थात किसी के उपदेशों पर आधारित ज्ञान। अन्य किसी संस्कृति में ज्ञान की यह अवधारणा दीख नहीं पड़ती है। हालांकि अरस्तू के सिद्धांत में इसकी एक झलक प्राप्त होती है जहाँ वह कहते हैं कि, “Knowledge is virtue”. तर्क के बारे में यह माना जाता रहा है कि तर्क की ज्ञान है जबकि भारतीय संस्कृति में ज्ञान को तर्क का उपकारक अवयव माना गया है। ज्ञान सार्वभौमिक हो सकता है किंतु तर्क नहीं।

(यह आलेख प्रोफेसर रजनीश शुक्ल, कुलपति, महात्मा गाँधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा, के व्याख्यान का प्रमुख अंश है। )

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