बॉलीवुड से उतरता वामपंथी सेक्युलर लिबास…!

डॉ. अजय खेमरिया | नवप्रवाह न्यूज़ नेट्वर्क
पिछले 70 बर्षों से बॉलीवुड में कायम एकपक्षीय वैचारिकी को सुशान्त सिंह राजपूत की संदिग्ध मौत औऱ कंगना रणौत की चुनौती ने विमर्श के उस पटल पर लाकर खड़ा कर दिया है, जहां अब तथ्यों पर बात हो रही है। मनमानी सामंती धारणाओं औऱ कथ्यों का निष्पक्षता से सिंहावलोकन हो रहा है। कला और अभिनय के झीने लिबास में जिहादी बौद्धिक जमात ने सांस्कृतिक साम्रज्यवाद के अपने एजेंडे को देश में सफलतापूर्वक लागू कराया औऱ उसकी प्रत्यक्ष अनुभूति सकल भारतीय समाज को आज की तरह कभी होने नही दी है।
बहुलता, सहिष्णुता, विविधता, फॅमिनिज्म, कला, शिक्षा औऱ अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर केवल हिन्दू समाज जीवन और उसके सांस्कृतिक मानबिंदु ही बॉलीवुड के निशाने पर रहे हैं। हाल ही में कंगना रनौत ने जिस साहस के साथ बॉलीवुड के नेपोटिज्म, इस्लामिक माफियावाद को बेनकाब किया, उसने देश को सोचने पर बाध्य कर दिया कि बॉलीबुड की जड़ें भारत और हमारी सँस्कृति से परे कहीं और भी तो नहीं टिकी हैं ? क्या कंगना को लेकर बॉलीबुड के कतिथ सितारों की असलियत आज सामने नही आ गई ? क्या फॅमिनिज्म की परिभाषा कटघरे में नही खड़ी है? क्या खान गैंग की अवधारणा सच साबित नही हो रही है? क्या मुंबई की रंगीन दुनियां पर माफिया का रिमोट कंट्रोल प्रमाणित नहीं हो रहा है? क्या बॉलीवुड वामपंथियों के वैचारिक  अधिष्ठान पर नही टिका है? ऐसे ही बीसियों सवालों के साथ आज बॉलीवुड में कला और अभिनय की दुनिया लांछित हो रही है। सच यह भी है कि बॉलीवुड का भारत विरोधी चेहरा भी इस विमर्श में सार्वजनिक हो रहा है। देश के करोड़ों लोग वामपंथी जमीन पर खड़े सिने जगत के विरुद्ध लामबंद हो रहे हैं।
हमारे बौद्धिक विमर्श को दूषित करने में बॉलीवुड की प्रायोजित भूमिका को आज गहराई से समझने की आवश्यकता है। लिब्रलजिम औऱ सेक्यूलिरजम ऐसे ख़तरनाक वैचारिक हथियार हैं, जिनके  माध्यम से वामपंथियों ने अपनी प्रस्थापनाओं को सफलतापूर्वक  भारतीय लोकजीवन में स्थापित किया है। बॉलीवुड की मारक औऱ विस्तृत प्रभावोत्पादक असन्दिग्ध है। इस प्रभावकीय वैशिष्ट्य ने भारत की मूल चेतना औऱ समृद्ध सांस्कृतिक परम्पराओं से अलगाव निर्मित करने के  वामपंथी उद्देश्यों को पूरा करने में अहम किरदार अदा किया। इस धीमे वैचारिक बिषरोपण का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि पीके जैसी फिल्में भगवान शंकर का सार्वजनिक अपमान करती हैं और हमारा समाज उसे कला की स्वतंत्र अभिव्यक्ति के नाम पर न केवल अधिमान्यता देता है, बल्कि करोड़ों की कमाई से आमिर खान की झोली भर देता है। यही आमिर जब भारत के मौजूदा राजनयिक दुश्मन देश तुर्की के प्रथम परिवार की मेहमाननवाजी करते हैं, तो लिबरल लॉबी उनके कलाकार के पक्ष को भारतीय हितों से ऊपर के निरूपण में लग जाता है।
बॉलीवुड की तमाम फिल्मों में भगवान को अदालत में खड़ा कर दिया जाता है। मन्दिर के पुजारी को आराध्य देव प्रतिमाओं के आगे बलात्कारी के रूप में फिल्माया जाता है। जातिबन्धन को सँस्कृति की जड़ों के साथ बताया जाता है। काशी और वृन्दावन से लेकर दक्षिण के मंदिरों की तमाम प्रमाणिक परम्पराओं को दूषित मनोविज्ञान के साथ दिखाने में भी बॉलीवुड को कभी गुरेज नही रहा है। यानी ध्यान से देखें, तो कला और अभिनय का पूरा एजेंडा ही उस सनातन जीवनशैली को लांछित करना रहा है, जिसका सबन्ध करोड़ों हिंदुओं से है। कमोबेश यह एजेंडा वामपंथियों ने देश के शैक्षणिक पाठ्यक्रमों औऱ बौद्धिक विमर्श में भी चतुराई से स्थापित कर रखा है। अभिनय के माध्यम से पाकिस्तानी चरित्रों को स्थापित करने का कोण भी समझा जाना चाहिये, जो अंततः खान गैंग की उसी मनोवैज्ञानिक औऱ प्रत्यक्ष उपस्थिति को स्वयंसिद्ध करता है, जिसकी झलक हमें आमिर खान, शाहरुख खान, नसीरुद्दीन, सलमान जैसे अभिनेताओं के सेक्युलर बयानों में प्रतिध्वनित औऱ प्रतिबिंबित होती है।
वामपंथियों द्वारा जो सियासी एजेंडा निर्धारित किया जाता रहा, बॉलीवुड की चमकीली दुनिया उस पर रील औऱ रियल दोनों लाइफ में नाचती रही है। याद कीजिये कठुआ रेप कांड। करीना कपूर, शबाना आजमी, श्रुति सेठ, जावेद अखतर, फरहान खान, महेश भट्ट, करन जौहर, दीपिका, स्वरा जैसे बॉलीवुड के डिजाइनर सड़कों पर उतरकर “जस्टिस फ़ॉर….” अभियान चला रहे थे।कैसे बालीबुड का बड़ा वर्ग देश भर के हिंदुओं औऱ मंदिरों को लांछित करने में जुटा था। भारत को बलात्कारियों की धरती तक कहा गया, क्योंकि तब राहुल गांधी भी इस मुद्दे को हिन्दू मुस्लिम के नजरिये से उठा रहे थे। इस घटना के साथ ही शबाना, स्वरा, शाहरुख, आमिर, नसीर सहित तमाम कलाकारों को परिवार सहित डर लगने लगा था भारत में। कुछ दिनों बाद जब मंदसौर, अर्थला, सासाराम औऱ राजस्थान की मस्जिदों में हुए  बलात्कार की घटनाएं प्रकाश में आई, तो यही बॉलीवुड चुप्पी साध गया। क्या सिर्फ इसलिए क्योंकि पीड़िताएं हिन्दू थी और आरोपी मुसलमान। पहलू खान औऱ अखलाख की कथित लीचिंग पर खान गैंग को देश में असहिष्णुता की चिंता होने लगी थी लेकिन पालघर में साधुओं की हत्या होती है तो हत्यारों को बचाने की वामी स्क्रिप्ट पढ़ने में इन डिजाइनर नायकों को शर्म नही आई।सबरीमाला, तीन तलाक, 370, अयोध्या, गौरी लंकेश कलबर्गी, वेमुला,से लेकर सीएए, एनआरसी के मुददों को ध्यान से देखें तो बालीबुड का दोगला रवैया स्पष्ट  प्रमाणित होता आया है। इसे आप केवल सरकार से असहमति के सतही अर्थ में समझने की भूल न करें। यह उसी सिलेक्टिव अभिव्यक्ति का हिस्सा है, जो एंटी इंडिया और हिंदुत्व के तत्वों को प्रतिष्ठित करता है। यह स्टैंड बालीबुड में इस्लामोमेनिया को भी प्रमाणित करता है।
जिस नेपोटिज्म को कंगना रणौत ने उठाया है, उसे सत्ता  सिंडिकेट के अनुरूप समझने की भी जरूरत है। यह सिंडिकेट लिब्रलजिम के नाम पर भारतीय संस्कृति को अपमानित, लांछित औऱ नष्ट करने वाले अभिनय को ही प्रतिभा का एक मात्र आधार मानकर चलता है। जिस सांस्कृतिक साम्राज्यवाद को हमें समझने की आवश्यकता है, उसे शिकारा जैसी फिल्मों के जरिये भी समझा जा सकता है, जो कश्मीरी पंडितों पर बनाई गई। इस मूवी में पंडितों को ही कट्टरपंथी औऱ मुसलमानों को इंसानियत का सिपाही दिखाया गया।
कंगना विवाद के अक्स में वामपंथियों के फॅमिनिज्म की असलियत भी देश के सामने आ गई है। भारत में  “नारीवाद” नही एक तरह के “औरतवाद” के हामी है वामपंथी। वामपंथी नारीवाद के नाम पर भारत की मान्य मर्यादाओं को तिरोहित करके एक “भोगवादी औऱत” को लोकजीवन में गढ़ना चाहते है। कल्पना कीजिये अगर कंगना की जगह शबाना, स्वरा, दीपिका, एकता जैसे वामप्रिय चेहरों के घर पर यूं बुलडोजर बीजेपी सरकार में चला दिया जाता या कोई मंडल/पंचायत स्तर का नेता “हरामखोर” शब्द उपयोग करता, तो भारत ही नही दुनियाभर में हल्ला मचा दिया जाता। टाइम्स, हिन्दू, इंडियन एक्सप्रेस, टेलीग्राफ के पहले पेज सैफरॉन टेरिज्ज्म, फ़ण्डामेंटलिज्म से लेकर संघ और मोदी के विरुद्ध कुतर्कों से गढ़ी गई जबाबदेही तय कर रहे होते। राजदीप, स्वरा, अभिसार, राणा, आरफा, कन्हैया, राजदान, वृंदा, आशुतोष, पुण्य प्रसून, विनोद दुआ, तवलीन सिंह, बरखा, अशोक वाजपेयी, रोमिला, हर्ष मंदर, योगेंद्र यादव, प्रशांत भूषण जैसे तमाम इंटलेक्चुअल के अलावा मायावती, ममता, सोनिया तक नारी सम्मान और समर्थन में हैशटेग चला रहे होते।
कंगना के मुद्दे पर नारीवाद की दुकाने आज पूरी तरह से बंद हैं, तो सिर्फ इसलिए कि कंगना उन लिबरल्स गिरोहों में नही है, जो भारतीय जीवनमूल्यों को तिरष्कृत कर, इस्लामिक तत्वों को ग्लोरीफाई करते है। हकीकत यह है कि कंगना औऱ राष्ट्रवाद दोनों फॅमिनिज्म के फ़्रेम में फिट नही हो सकते हैं, क्योंकि इस वामपंथी अवधारणा में पहली शर्त ही राष्ट्र औऱ हिंदुत्व के विरुद्ध खड़ा होना है।कंगना खंब ठोक कर राष्ट्र के साथ खड़ी हैं। लेकिन नारीवाद के ईकोसिस्टम में तो यह सब निषिद्ध है।इसलिए कंगना को वामपंथी नारीवादियों ने आइसोलेट कर दिया। लेकिन इस आइसोलेशन के अक्स में कामरेड वही गलती कर गए है, जो संसदीय राजनीति में उनके अस्तित्व को मिटा गई। वस्तुतः नए भारत की सामूहिक चेतना में आज बड़ा बदलाव आया है। सड़क-2 और छपाक के साथ दर्शकों की प्रतिक्रिया के साथ ही बॉलीवुड को इसे समझ लेना चाहिये। देश का बहुसंख्यक अब अपने अवचेतन में सांस्कृतिक साम्रज्यवाद को जगह देने के लिए तैयार नही है। संयोग से देश मे ऐसी सरकार भी है जो अल्पसंख्यकवाद को नही ढोती है। यह नैरेटिव अब देश में चलने वाला नही है, क्योंकि बॉलीवुड का एंटी हिन्दू लिबास सिलसिलेवार उतर रहा है। कंगना रणौत प्रतीकात्मक रूप से इस स्थापित सल्तनत को खण्डित कर रही है और इसे संसदीय राजनीति की तरह ही भारतीय अभिनय जगत का शुद्धिकरण भी हम कह सकते है।
पुनश्च : इतिहास उन्हें स्मरण रखता है, जो साहस का परिचय देते हैं, सत्य के साथ खड़े रहते हैं। इस सुगठित, सशक्त बौद्धिक जिहाद के विरुद्ध नव-सृजन की आहट को सुन रहा है राष्ट्र।
(लेखक, वरिष्ठ पत्रकार एवं साहित्यकार हैं।)

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