Dr.JitendraPandey@Navpravah.com
किसी भी राष्ट्र में समरसता स्थापित करने के लिए वहां की न्याय व्यवस्था और धर्म की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। यदि न्याय व्यवस्था दिशाविहीन तथा धर्म की सहिष्णुता समाप्त होती है तो वहां अराजकता की स्थिति पैदा हो जाती है आतंक के बीज अंकुरित होने लगते हैं। आज समूचा विश्व इन्हीं दोनों भयावह स्थितियों से गुजर रहा है। आतंकवादी संगठनों की बाढ़-सी आ गई है।
प्रायः लोग प्रश्न करते हैं कि आतंक का नाम लेते ही इस्लाम क्यों जुड़ जाता है? क्या आतंक और इस्लाम दोनों समानार्थी हैं? इन प्रश्नों का उत्तर ढूंढ़ने के लिए हमें “इस्लाम धर्म ” में झांकना होगा। आर्य समाज के संस्थापक महर्षि दयानंद सरस्वती ने “सत्यार्थ प्रकाश” के चौदहवें समुल्लास में कुरान के कुछ प्रक्षिप्त (“फेंका गया” अथवा “जोड़ा गया”) विचारों की चर्चा करते हुए लिखा है-
“और काटे जड़ काफिरों की।मैं तुमको सहाय दूंगा। साथ सहस्र फ़रिश्तों के पीछे-पीछे आने वाले।अवश्य मैं काफिरों के दिल में भय डालूंगा। बस मारो ऊपर गर्दनों के। मारो उनमें से प्रत्येक पोरी(संधि)पर।”
-म.2/सि. 9/सू 08/आ. 7/9/12
समीक्षा – “वाह जी वाह। कैसा खुदा और कैसे पैग़म्बर दयाहीन। जो मुसलमानी मत से भिन्न काफिरों की जड़ कटवावे।और खुदा आज्ञा देवे उनको गर्दन मारो और हाथ पग के जोड़ो को काटने का सहाय और सम्मति देवे। ऐसा खुदा लंकेश से क्या कुछ कम है ? यह सब प्रपंच क़ुरान के कर्ता का है, खुदा का नहीं। यदि खुदा का हो तो ऐसा खुदा हमसे दूर और हम उससे दूर रहें।।”
अब पाठक सहज ही अनुमान लगा सकते हैं कि जब धर्म में “अराजक विचार” जोड़ दिए जाते हैं तो वह कितना घातक हो जाता है। वैश्विक-शांति खतरे में पड़ जाती है। मेरी मंशा किसी के धर्मग्रन्थ पर उंगली उठाना नहीं, बल्कि सत्य के अर्थ को प्रकाश में लाना है। सत्य यह भी है कि सभी धर्मों के मूल में प्रेम, सद्भाव और भाईचारा है।
ईद, नमाज़, ज़कात, रोज़ा और हज इसके माकूल उदाहरण हैं। धर्मग्रंथों में प्रक्षिप्त अंश मानवता के लिए भस्मासुर हैं।इन जोड़े गए विचारों को भी भोले-भाले लोग खुदा का फ़रमान और ईश्वरीय-वाणी मान लेते हैं। कहीँ-न-कहीं खूंखार आतंकी संगठन इन्हीं अराजक व प्रक्षिप्त अंशों की उपज हैं।
हिन्दू धर्मग्रन्थ भी इसके अपवाद नहीं हैं। मांसाहारी लोग मांसाहार के पक्ष में वैदिक मन्त्रों की दुहाई देते हुए कतिपय मन्त्रों को उद्धृत करने में नहीं हिचकते हैं। उन्हें यह ज्ञात होना चाहिए कि उद्धृत मन्त्र या तो प्रक्षिप्त हैं अथवा उनकी टीकाएं ग़लत लिखी गई हैं। वेदों में चींटी की भी हत्या करना वर्जित है। हम बेजुबान जानवरों के शोषण तथा उनके वध के सहज ही कारण बनते हैं,किन्तु “आत्मवत् सर्वभूतेषु” अर्थात् सभी जीवों में स्वयं का दर्शन करना भूल जाते हैं।
अब बात करते हैं निरंकुश शासन प्रणाली और लचर न्याय व्यवस्था की। जब राजनीति वोट के खातिर आतंकवादियों की पक्षधर बने और न्याय व्यवस्था उनके लिए चौबीसों घंटे सेवा दे तो उस राष्ट्र में संकट के बादल घिरने लगते हैं। अराजक तत्वों का चारों ओर बोलबाला होता है। सामान्य जनता ‘कर’ और मंहगाई के बोझ तले कराहने लगती है।किसान मज़दूर बनने लगते हैं। ‘विश्वग्राम’, ‘विश्व-बाज़ार’ में तब्दील होने लगता है। राष्ट्र-निर्माण की नीति व्यावसायिक-नीति का आभास देने लगती है। प्रतिभावान युवक ग़लत रास्ते पर चल पड़ते हैं, जबकि आरक्षित व अयोग्य युवा महत्वपूर्ण पदों की जिम्मेदारी संभालते हैं। देश के नागरिक संतप्त होते हैं। राष्ट्र खोखला बन जाता है। ऐसी ही स्थिति का चित्रण महर्षि बाल्मीकि ने किया है-
“नाराजके जनपदे योगक्षेमः प्रवर्तते।
ना चाप्य राजके सेना शत्रून् विषहते युधि।।”
– अयोध्याकाण्ड 51/25
अर्थात् अराजक राज्य में प्रजा का योगक्षेम नहीं होता।अराजक देश की सेना,राष्ट्र की प्रतिद्वंद्वी सेना का मुकाबला कर उसे जीत भी नहीं सकती।
सामान्य नागरिक पूंजीपतियों के चंगुल में छटपटा रहा है।इसी अराजकता की घोर निंदा यजुर्वेद में की गई है –
“यकासकौ शकुन्तिका हलगिति वंचति ।
आहन्ति गभे पसों निगल्गलीति धारका।।”
अर्थात् जिस प्रकार बड़ी चिड़िया के सामने छोटी चिड़िया दबी रहती है , उसी प्रकार अराजक देश में प्रजा दबी रहती है।जैसे छोटी दरार में मोटी वस्तु घुसेड़ने से वह छिन्न-भिन्न हो जाती है , वैसे ही अराजक देश में प्रजा की दशा होती है।अराजक देश में प्रजा का विनाश होता है।अतः अराजक देश प्रजा का घातक होता है।
वह देश जहां अराजक शक्तियां सक्रिय होती हैं , किसी भी स्थिति में सुरक्षित नहीं रह सकता।भ्रमित प्रजा हिंसा का रास्ता चुनती है अथवा वह बाहरी आक्रमण का शिकार बन जाती है।उस देश की युवा शक्ति भटकने लगती है।उनके कदम ज़ेहाद के रास्ते पर चल पड़ते हैं।प्रश्न यह उठता है कि ऐसी अराजक स्थिति से कैसे निपटा जाय ? “संघे शक्तिः कलयुगे” द्वारा अथवा “यदा-यदा धर्मस्य …..” की प्रतीक्षा की जाय!