शहीदों के नाम पर ‘श्रद्धांजलि’ का खेल

पुष्कर अवस्थी,

लखनऊ

कल जब चंद्रशेखर ‘आज़ाद’ की मूर्ति के साथ था तब मुझे कुछ और भी याद आया था लेकिन उसे लिखा नही था। आज जब मन का कोलाहल कुछ शांत हुआ है तो एक घटना का जिक्र करता हूँ। यह इसलिए जरुरी है क्यूंकि आप यह समझ सके कि कैसे कैसे लोग थे और अब कैसे कैसे लोग आज, चंद्रशेखर ‘आज़ाद’ जैसे शहीदों के नाम पर श्रद्धांजलि का खेल खेल रहे है, नारे लगा रहे है और उन शहीदो को अपना नायक बना रहे है।

जो घटना बता रहा हूँ यह बात मुझे, 1975 या 1976 में, जब मैं झाँसी में था पता लगी थी। इसकी सत्यता की पुष्टि की जा सकती है।

ये पूरा वाकया, ‘आज़ाद’ की कहानी नही है, यह कहानी उनकी मौत के बाद जन्मी है। यह कहानी हम भारतियों की कहानी कहती है। इसमें नायक उँगलियों में गिने जाने वाले, चंद अनाम लोग हैं और बाकी भारतीय रजिनीतिज्ञों की तर्ज़ पर या तो खलनायक नज़र आएंगे या फिर भारी तादाद में नपुंसकों की भीड़ में नज़र आएंगे।

1931 में चंद्रशेखर ‘आज़ाद’ की हत्या और भगत सिंह, राजगुरु, सहदेव की फांसी के बाद, इन लोगो का दल, हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिक एसोसिएशन (HSRA) बिखर गया था। इसके काफी सदस्य पहले से ही ब्रिटिश पुलिस के मुखबिर हो गए थे और वामपंथी यशपाल अपनी महत्वाकांक्षा पूरी करते हुए HSRA के प्रमुख बन गए थे लेकिन कालांतर में यह संघटन पूरी तरह से खत्म हो गया था। जो वाकई चंद्रशेखर ‘आज़ाद’ के समर्पित क्रन्तिकारी साथी थे, जो विभिन्न मामलों में जेल में रहे और आज़ादी के बाद गुमनामी की ज़िन्दगी में जीते रहे थे।

चंद्रशेखर आज़ाद का क्रन्तिकारी जीवन का केंद्र बिंदु झाँसी रहा था, जहां क्रांतिकारियों में उनके २-३ करीबियों में से एक, सदाशिव राव मलकापुरकर रहते थे। चंद्रशेखर ‘आज़ाद’ अपने जीवन में बहुत गोपनीयता रखते थे और इसी लिए वे कभी अपने जीवन में, पुलिस द्वारा पकड़े नही गए थे। उन्हें इसका एहसास था कि उनके साथियों में कुछ कमजोर कड़ी है जो पुलिस की प्रतारणा पर विश्वसनीय नही रह जायेंगे। लेकिन सदाशिव जी उन विश्वनीय लोगो में से थे, जिनको वह अपने साथ, मध्यप्रदेश में अपने गाँव भावरा ले गए थे और अपने पिता सीताराम तिवारी और माँ जगरानी देवी से मिलवाया था। 

 

 

सदाशिव राव, चंद्रशेखर आज़ाद की मृत्यु के बाद भी ब्रिटिश शासन के खिलाफ संघर्ष करते रहे और कई बार जेल भी गए थे। आज़ादी के बाद जब वो स्वतन्त्र हुए तब वो आज़ाद के माता पिता की खैरियत का पता करने के लिए उनके गाँव गए थे। वहां उन्हें पता चला की आज़ाद के पिता जी का स्वर्गवास हो गया है और उनकी माँ बेहद गरीबी में जीवन यापन कर रही है। वो जंगल से लकड़ी और गोबर इकठ्ठा करके बेचती थी और उसी से बमुश्किल उनका गुजारा करती थी। सदाशिव राव ने जब यह देखा तो वो टूट गए, एक महान राष्ट्र भक्त की माँ दिन के एक वक्त के भोजन के लिए तरस रही थी। जब उन्होंने गाँव से कोई मदद न मिलने का कारण का पता किया, तो पता चला की चंद्रशेखर आज़ाद की माँ को एक डकैत की माँ कह कर उलाहना दी जाती थी और समाज ने उनका बहिष्कार किया हुआ था।

उनकी दुर्दशा देख कर सदाशिव राव ने उनसे, उनके साथ झांसी चलने को कहा तो माँ ने यह कह कर मना कर दिया कि,’उनके पति की इस जगह मृत्यु हुयी थी और वो वही गांव में ही अपना अंतिम समय गुजरना चाहती है।’ तब सदाशिव राव ने माँ से कहा कि ‘आज़ाद’ की हमेशा यह इच्छा थी कि वो अपनी माँ को तीर्थस्थानों की यात्रा पर ले जाये, इसलिए कम से कम उन्हें, ‘आज़ाद’ की यह इच्छा पूरी करने दे।

माँ जगरानी देवी, सदाशिव राव की इस बात को मान गयी और सदाशिव राव उन्हें अपने साथ झाँसी लेकर आ गये, जहाँ वह, एक और आज़ाद के क्रन्तिकारी साथी, भगवान दास माथुर के यहां रहने लगी थी। सदाशिव राव ने अपना वचन निभाया और चंद्रशेखर ‘आज़ाद’ की माँ को विभिन्न तीर्थस्थानों की यात्रा पर लेकर गए थे।

मार्च 1951 में, जब चंद्रशेखर आज़ाद की माँ जगरानी देवी का, झाँसी में निधन हुआ तो, सदाशिव राव मलकापुरकर ने ही उनका अंतिम संस्कार किया था। उनकी मृत्यु के बाद झाँसी के लोगो ने उनकी याद में एक सार्वजनिक स्थान पर एक पीठ का निर्माण किया जिसे तत्कालीन सरकार ने उसे एक अवैधानिक कदम माना और गैर क़ानूनी करार कर दिया था। लेकिन झाँसी की जनता, वहां जगरानी देवी की मूर्ति लगाकर चंद्रशेखर आज़ाद को श्रद्धांजलि देना चाहती थी। मूर्ति बनाने का काम, चंद्रशेखर आज़ाद के एक और ख़ास सहयोगी, मास्टर रुपनारायण ने, जो शिल्पकार भी थे ने किया था। उन्होंने माँ की फोटो देख कर उनका बस्ट(केवल धड़ से ऊपर) बनाया था।

जब सरकार को पता चला की जगरानी देवी की मूर्ति बना ली गयी है और सदाशिव राव, रूप नारायण. भगवान दास माथुर सहित कई क्रन्तिकारी , झाँसी की जनता के सहयोग से, मूर्ति को स्थापित करने जा रहे है तो , शहर में कर्फ्यू लगा दिया गया था। लेकिन जब इन सबकी परवाह किये बिना, सदाशिव राव, मूर्ति को अपने सर पर उठा कर, कुछ लोगो के साथ, पीठ की तरफ चल दिए, तब सरकार ने गोली चला देने का आदेश दे दिया था। पुलिस ने सदाशिव राव पर गोली चलायी लेकिन झाँसी के लोगो ने सदाशिव राव को चारो तरफ से घेर कर बचा जरूर लिया था लेकिन उस गोली कांड में ३ लोगो को गोली लगने से मृत्यु हो गयी थी।

गोली चलने से झाँसी शहर वीराना हो गया और चंद्रशेखर आज़ाद की माँ जगरानी की मूर्ति वहां स्थापित नही हो पायी थी। इस घटना के बाद, सदाशिव राव मलकापुरकर ने रोते हुए कहा था,” चंद्रशेखर ‘आज़ाद’ ने तो अपनी जान दे कर भारत माँ पर शहीद हो गए थे लेकिन वो इतने दुर्भाग्यशाली है कि चंद्रशेखर ‘आज़ाद’ की माँ के लिए वह अपनी जान भी नही दे सके है।”

चन्द्रशेखर ‘आज़ाद’, उनकी माँ जगरानी देवी, सदाशिव मलकापुरकर, मास्टर रूप नारायण, भगवान दास माथुर, झाँसी की जनता एक तरफ है, वहीं भावरा गाँव, वहां का समाज, यशपाल और सरकार दूसरी तरफ है।

आज भी, हम और आप में से लोग, दो तरफ खड़े हुए है।

  

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