अमित द्विवेदी,
द्वापर युग इस बात का गवाह है कि कंस जब युवा हुआ तो उसने अपने पिता महाराज उग्रसेन को बंदी बना लिया और खुद राजगद्दी पर बैठ शासन करने लगा। इतिहास में भी पढ़ने को मिलता है कि औरंगज़ेब जैसे कई मुग़ल शासक अपने ही पिता को कैद कर या वध कर खुद राजगद्दी पर बैठ गए। आज कलयुग की चरम सीमा पर एक बार फिर वही नज़ारा उत्तर प्रदेश की सुलगती राजनीति में ‘समाजवादी खानदान’ के ज़रिये देखने को मिल रहा है।
समाजवादी पार्टी के संस्थापक, पार्टी के मुखिया मुलायम सिंह यादव ने 1992 में बिलकुल शून्य स्तर से पार्टी की स्थापना की थी। अपने समय में उन्होंने काफी मेहनत करके इस पार्टी को सजाया संवारा और उसे एक राष्ट्रीय पार्टी का दर्जा दिलाया। तीन बार वे उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री भी रहे और चौथी बार 2012 में फिर चुनाव जीत कर अपने युवराज अखिलेश यादव को सर्वसम्मति से मुख्यमंत्री बनाया। अखिलेश भी एक पढ़े लिखे उच्च नेतृत्व वाले व्यक्ति हैं। उन्होंने पार्टी का नेतृत्व अच्छा किया। उन्होंने राज्य के लिए काम भी अच्छा किया।
पिता-पुत्र का रिश्ता कभी दशरथ और राम का हुआ करता था। कई राष्ट्रीय व राज्यस्तरीय सभाओं में मंच पर मुलायम ने अखिलेश को भरी सभा में फटकार तक लगा दी, चुप करा दिया, लेकिन अखिलेश ने कभी जुबां से उफ़ तक नहीं की। फिर अचानक ऐसा क्या हो गया कि कहानी में ट्विस्ट आ गया और रामायण का संस्कारी पुत्र ‘राम’ मुग़ल-ए-आज़म का ‘सलीम’ उर्फ़ ‘शेख़ू’ बन गया? इस संस्कारी कहानी में सामने आये तीन अन्य महत्त्वपूर्ण किरदार, शिवपाल यादव, रामगोपाल यादव और अमर सिंह। फिर क्या था, देखते- देखते समाजवादी पार्टी अंदर ही अंदर दो खेमों में बंट गई। एक तरफ मुलायम-शिवपाल-अमर सिंह, तो दूसरी तरफ अखिलेश- रामगोपाल।
2017 का विधानसभा चुनाव मुंह पर आ गया है और उधर पारिवारिक कलह इस कदर बढ़ गयी है कि पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष मुलायम सिंह द्वारा मुख्यमंत्री अखिलेश व पार्टी महासचिव रामगोपाल का झट निष्कासन, पट निष्कासन रद्द, फिर झट निष्कासन, पट निष्कासन रद्द, ऐसा तिकड़मी खेल जारी है। इसके बावजूद भावुक पिता यह तय नहीं कर पा रहे कि बेटे की इस बगावत के बाद अंततः निकाल ही दूं, या पार्टी में रख लूं। इसी कश्मकश में हालात ऐसे हो गए कि अखिलेश ने रामगोपाल के साथ मिलकर विशेष राष्ट्रीय अधिवेशन बुला लिया और सरे आम अपने पिता को ही अध्यक्ष की कुर्सी से उतार कर पार्टी की कमान अपने हाथों में लेने का फरमान जारी कर दिया! पिता को बना दिया सिर्फ मार्गदर्शक!
जब से पिता पुत्र के बीच घमासान शुरू हुआ है, पिता का पक्ष धीरे धीरे कमज़ोर होता गया है और पुत्र का मज़बूत। अंततः जैसा परिणाम आप देख रहे हैं, पुत्र की मजबूत सेना ने पिता को परास्त कर दिया। पिता द्वारा बुलाई मीटिंग में पहुँचे सिर्फ 10 विधायक, बाक़ी सारे जा मिले ‘बागी गुट’ से। अपने-अपने क्षेत्र की सीमाएं कुछ सैनिकों के साथ अलग हो गईं।
अब लड़ाई वाहन की रह गई। ‘साइकिल’ है एक, पक्ष हैं दो। दोनों ही पक्ष उसी साइकिल की सवारी करना चाहते हैं। दोनों में छीना-झपटी लगी है। अब यह साइकिल किसके हाथ लगेगी भगवान जाने। ये दोनों पक्ष अपनी अपनी दावेदारी ले कर चुनाव आयोग के पास दुहाई लगा रहे हैं। अब चुनाव आयोग इस साइकिल का हैंडल किसके हाथ पकड़ाता है और पैडल मार कर साइकिल दौड़ा ले जाने का मौका किसे मिलता है, यह तो जनता आगे देखेगी ही। वैसे कयास लगाये जा रहे हैं कि अखिलेश ‘ट्रैक्टर’ पर भी सवार हो सकते हैं या ‘हल’ को भी अपना शस्त्र चुन सकते हैं।
कई विशेषज्ञों का यह भी मानना है कि यह समाजवादी पार्टी का रचा रचाया एक ‘समाजवादी’ ड्रामा है, जो सिर्फ और सिर्फ पब्लिक का ध्यान अपने पर ही केंद्रित रखने के उद्देश्य से सियासी मंच पर प्रस्तुत किया जा रहा है। पुत्र अखिलेश और पिता मुलायम, यही 2 विकल्प जनता की नज़रों में ठूंस ठूंस कर भर दिए जा रहे हैं, ताकि जनता की नज़र में ‘हाथी’, ‘पंजा’ या ‘कमल’ कतई समा ही न पाएं। अब राजनीतिक विशेषज्ञों द्वारा भले ही इसे सोची समझी साजिश करार दे दिया गया हो, लेकिन पुत्र द्वारा अपनी ही बनी-बनाई साख हथिया लिए जाने का दर्द एक पिता से बेहतर कौन समझ सकता है भला!
सारी कथा का निचोड़ यह है कि समय चुनावी है और इस चुनावी भवसागर को पार करने के लिए सपा के दोनों पक्षों के पास ‘साइकिल’रुपी एक ही नाव है, जिसमें दोनों ही पक्ष सवार होकर इस भवसागर को पार करना चाहते हैं। बस कहानी में अगले ट्विस्ट की थोड़ी सी प्रतीक्षा करनी होगी।