- 9 अगस्त आदिवासी दिवस के संदर्भ में विशेष।
- वनवासी सँस्कृति को लांछित और अपमानित करती एल्विन की आत्मकथा के लिए “साहित्य अकादमी” जैसा पुरुस्कार दिया गया।
- क्या धर्मान्तरण अपने आप में अधिकारों का निकृष्ट हनन नहीं है?
डॉ. अजय खेमरिया | नवप्रवाह न्यूज़ नेट्वर्क
वह एक कट्टर ईसाई और मिशनरीज में प्रमाणिक प्रशिक्षण प्राप्त अंग्रेज था। उसका मिशन घोषित रूप से भारत में वनवासियों की सँस्कृति को ईसाइयत के रंग में रँगकर औपनिवेशिक जड़ों को मजबूत करना था। अपने मिशन के लिए वह इस हद तक जुनूनी रहा कि उसने भारत मे वनवासियों से दो विवाह कर लिए। वह ईसाई मिशन के सबसे बड़े ब्रांड अम्बेसडर के रूप में काम कर रहा था। आजाद भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू का उसे पूरा सरंक्षण और आशीर्वाद था। 1927 से 1964 तक इस शख्स ने भारत में वनवासी मुद्दे पर जो अलगाव के बीज बोए उन्हें आज भी हम राष्ट्रीय एकता, अखण्डता और सद्भभाव के मोर्चे पर भोगने के लिए विवश है। इस शख्स का नाम है-वेरियर एल्विन।
मिशनरी सेवाओं के लिये एल्विन को भारत के तीसरे सर्वोच्च नागरिक अलंकरण पदम् भूषण से अलंकृत किया गया। वनवासी सँस्कृति को लांछित और अपमानित करती एल्विन की आत्मकथा के लिए “साहित्य अकादमी” जैसा पुरुस्कार दिया गया। उसे आसाम जैसे राज्य का गवर्नर बनाया जाता है। वह भारत के प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के जनजातीय सलाहकार के रूप में काम करता है। देश मे वनवासी कल्याण के लिए बनी पहली समिति की कमान भी इसी अंग्रेज को सौंपी गई।
भारत विरोधी बीज बोने वाले को दिया बढ़ावा-
पूर्वोत्तर में भारत विरोधी गतिविधियों के बीज बोने वाले इस मिशनरी अध्येता को भारत की सरकार ने जीवन भर सिर माथे पर रखा। उसके खुरापाती और लक्ष्य केंद्रित अध्ययन को जनजातीय समाज के तथ्य बनाकर सुस्थापित करने से हमारे बुद्धिजीवी और वामपंथी नही चूके। एल्विन जैसे पापियों के पाप को आज भी बौद्धिक एवं वाम राजनीतिक जगत में प्रतिष्ठित किया जाता रहा है। हकीकत यह है कि एल्विन ने भारत के जनजातीय समाज को उसकी मूल जड़ों से काटने का काम किया। “आदिवासी दिवस” और “मूल निवासी” जैसे अलगाव आधारित विचार असल में भारत की एकता एवं अखण्डता को तोड़ने के ईसाई षड्यंत्रों का हिस्सा है। इस सुगठित षड्यंत्र की शुरुआत अंग्रेजी राज के जमाने से ही शुरू हो गई थी। वाम और अंग्रेजी जीवनशैली में ढले नेहरू ने इस षडयंत्र को जानबूझकर न केवल अनदेखा किया, बल्कि उसे अपना खुला सरंक्षण भी दिया। यही कारण रहा कि 70 साल बाद भी धर्मांतरण और मिशनरीज के पाप क्षद्म सेक्युलरिज्म की आड़ में भी फलफूल रहे हैं।
प्रश्न यह है कि कोई बाहर से आया हुआ कथित मानवविज्ञानी कैसे भारत के हजारों साल के लोकजीवन का विशेषज्ञ बनकर भारत के निवासियों को ही हिन्दू धर्म से अलग साबित करता रहा और हमारी राजव्यवस्था उसकी बताई गई मनगढ़ंत थ्योरी को अधिमान्यता देती रहीं। कोई अन्य व्यक्ति अगर निजी जीवन में वनवासी महिलाओं के साथ एल्विन जैसी हरकत करता, तो क्या उसे पदम् विभूषण या साहित्य अकादमी जैसे सम्मान हासिल होते?
एल्विन ने मप्र के डिंडोरी जिले की एक 13 बर्षीय वनवासी बालिका कौशल्या के साथ विवाह किया, फिर उसे छोड़कर अन्य महिला लीला से विवाह कर लिया।कौशल्या जब 13 साल की थीं जब 37 साल के एल्विन ने उनसे विवाह किया। फिर कुछ समय तक खुद को वनवासियों का समर्पित अध्येता बताकर सत्ता प्रतिष्ठानों में स्थापित कर लिया। 102 साल की आयु में कोसी उर्फ कौशल्या की मृत्यु हुई तो उसकी शव यात्रा में गांव के वनवासी इसलिए शामिल नही हुए क्योंकि वह ईसाई हो चुकी थी। जाहिर है कौशल्या जो 14 वर्ष की उम्र में एल्विन के बच्चे की मां बन चुकी थी, को उसका समाज अपने से अलग मानता था। जबकि एल्विन को प्रतिष्ठित करने वाले तर्क देते है कि उसने हिन्दू धर्म स्वीकार कर लिया था। एल्विन ने कोसी को छोड़कर लीला नामक दूसरी महिला से विवाह कर कोसी को उसके हाल पर छोड़ दिया। फिर नगालैंड मिजोरम, अरूणाचल, आसाम सहित सभी सात राज्यों में मिशनरीज के एजेंट के रूप में वनवासियों को हिन्दू आस्था और विश्वास से अलग करने का जमीनी काम किया। उनकी परम्पराओं औऱ जनश्रुति को अपनी बौद्धिक क्षमता से खण्डित कर उन्हें ईसाई मत में भरोसे के लिए तैयार करने में एल्विन जैसे लोग अग्रणी रहे।
नेहरू के नवरत्नों में शुमार होने के कारण एल्विन की विश्वसनीयता भी राजव्यवस्था में बड़ी मजबूत थी। वह नेहरू का दोस्त भी था। असल मे वेरियर एल्विन कहने भर को मानवविज्ञानी था, उसका उद्देश्य भारत की असली पहचान और सांस्कृतिक मानबिन्दुओं को शातिराना ढंग से खत्म करना था। भारत सरकार की आधिकारिक बेबसाइट “अभिलेख पटल” पर नागालैंड को लेकर एक दस्तावेज उपलब्ध है, जिसमें नगालैंड साधुओं से मुक्त होने वाला पहला प्रदेश बना शीर्षक के साथ यह बताया गया है कि कैसे इस राज्य से हिन्दू साधूओं को खदेड़ कर ईसाई प्रचारकों के लिए जगह बनाई गई है। एल्विन यहां इस पाप का मुख्य किरदार है। उस समय के साधु समाज के सचिव स्वामी आनंद भारत के अनुसार, “नेहरू और एल्विन के मध्य यह सहमति बनी थी कि आदिवासी समाज को उसकी मौलिकता के साथ जीवित रखने के लिए पूर्वोत्तर से साधु सन्यासियों को प्रतिबंधित किया जाना जरूरी है।” इसे नेहरू और एल्विन ने पंचशील का नाम दिया था। इसके तहत पांच कार्य प्रस्तावित थे।वनवासियों में प्रचलित जनश्रुतियों को हिन्दू धर्म की कुप्रथाओं के रूप में प्रस्तुत करना, हिन्दूओं को जड़ो से काटना इसमे प्रमुख आयाम था। एल्विन ने अपनी पुस्तक “मिथ्स ऑफ मिडिल इंडिया” में मध्यप्रदेश के वनवासियों की शैव परम्परा को मिथक बताकर प्रचारित किया। “बिच क्राफ्ट एन्ड मैजिक” किताब में तंत्र विद्या को चुड़ैल बताया गया। यानी जिन परम्पराओं औऱ जनश्रुतियों को वनवासी हजारों साल से जीते आ रहे थे, उन्हें खण्डित कर एक अलगाव की जमीन निर्मित करने का जनक आसाम का गवर्नर औऱ प्रधानमंत्री नेहरू का मित्र सलाहकार बेख़ौफ़ होकर करता रहा। नतीजतन आज पूर्वोत्तर की बदली हुई जनांनकीय सबके सामने है।मप्र,छत्तीसगढ़, ओडिसा, झारखंड के वनांचल में मिशनरीज की गहरी जड़ों को हमें नेहरुयुगीन षड़यंत्र के साथ ही पकड़ने की आवश्यकता है।
तथ्य यह है कि कांग्रेस के एकछत्र शासन ने इन षडयंत्र के विरुद्ध उठने वाली आवाजों को सदैव दबाकर रखा, क्योंकि जब राजव्यवस्था एल्विन जैसे लोगों को गवर्नर बनाती रही, उन्हें पद्म पुरस्कार देती रही, तब इस आवाज को सुनने वाला कौन हो सकता था? इस राज्य पोषित षडयंत्र की जड़े आज भी इतनी गहरी है कि हमारे लिए इनसे मुकाबला करना एक युद्ध की तरह है। आज भी नेहरू के मानस पुत्र व्यवस्था में जमे हुए है। स्मरण ही होगा कि डॉ विनायक सेन को छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट ने माओवादी नक्सलियों के समर्थन के आरोप में कारावास की सजा सुनाई थी। तब इस मुद्दे पर भारत मे कितना हो हल्ला हुआ था। तत्कालीन पीएम मनमोहन सिंह, सोनिया गांधी से लेकर जिहादी एकेडेमिक्स की पूरी फ़ौज मातमपुर्सी पर उतर आई थी। सुप्रीम कोर्ट से जमानत पर छत्तीसगढ़ की सरकार और हाईकोर्ट को खलनायक की तरह प्रचारित किया गया। बाद में डॉ विनायक सेन को सोनिया गांधी की सलाहकार मण्डली में भी शामिल किया गया। समझना होगा कि भारत में मूल निवासी या बाहरी का प्रश्न वनवासियों को लेकर एक गढ़ा गया षड्यंत्र है, इसकी जड़ें करीब सौ साल से भी पुरानी है और दुर्भाग्य से भारत मे एक बड़ा तबका इस षड्यन्त्र में साझीदार रहा है। एक तरफ मानवाधिकार औऱ अन्तःकरण की आजादी की बातें होती हैं, दूसरी तरफ करुणा औऱ सेवा के नामपर धर्मांतरण। क्या धर्मान्तरण अपने आप में इन अधिकारों का निकृष्ट हनन नहीं है? आदिवासी दिवस के संदर्भ में हमें इसषड्यंत्र को भी बारीकी से समझने की जरूरत है।
(लेखक, वरिष्ठ पत्रकार और साहित्यकार हैं)