1985 में अक्षरब्रह्म गुणतीतानंद स्वामी द्विशताब्दी महोत्सव अहमदाबाद में मनाया जा रहा था।
यहां पर सुंदर और प्रेरक स्वामिनारायण नगर आयोजन किया गया था। इसमें कई आकर्षण विद्यमान थे। विभिन्न प्रकार की कलाकृतियों के साथ एक अलंकृत प्रवेश द्वार भी था। जो मुख्य रूप से बंगाली कलाकारों द्वारा रचित था । इस उत्सव के दौरान एक बार ऐसा हुआ था कि स्वामिनारायण नगर के मुख्य द्वार पर एक आकस्मिक शॉर्ट सर्किट से अचानक आग लग गई। कुछ ही क्षणों में प्रवेश द्वार जलने लगा। साथ साथ धुआं भी निकलने लगा। कुछ ही देर में आग की लपटें आधी की तरह फैल गईं। मूर्तियों और अन्य साज-सज्जा को नुकसान होने लगा। तत्काल सभी संत कार्यकर्ता वहां पहुंचे और पानी डालकर आग पर काबू पा लिया । लेकिन आधा हिस्सा तो खाक हो गया और काला भी हो गया।
मूर्तियां भी बुरी तरह क्षतिग्रस्त हो गईं। द्वार के सामने संत, भक्त और स्वयंसेवक खड़े थे। सब अवाक थे। प्रमुखस्वामी महाराज भी वहाँ पहुँचते हैं। सेवक गण उन्हें पूरी घटना से परिचित कराते हैं। स्वामीजी शांति और धैर्य से सब कुछ सुन रहे थे। उस समय इस बात पर चर्चा हुई थी कि प्रवेश द्वार का क्या किया जाए। चर्चा के दौरान एक विचार ऐसा भी प्रस्तुत किया गया कि अब इसका आधा हिस्सा खराब हो गया है तो पूरे द्वार को ही तोड़ दिया जाए और जमीन समतल कर दी जाए। फिर हम वहां कुछ और सुशोभन कर देंगे । लेकिन उस समय स्वामीजी ने संतों और स्वयंसेवकों की शक्ति में विश्वास किया और कहा कि हमें ऐसा नहीं करना चाहिए। हमें जले हुए हिस्से को अच्छे हिस्से से बदलना चाहिए। ताकि किसी को पता भी न चले कि कौन सा अंग जल गया है। संत और भक्त एक दूसरे को देखने लगे।
सभी बहुत हैरान थे। लेकिन उन्हें लगा कि स्वामी जी ने उन पर विश्वास कर लिया है। शीघ्र ही संत और भक्त – स्वयं सेवक स्वामीजी के आदेशानुसार प्रवेश द्वार की मरम्मत में शामिल हो गए। ऐसी सजावटी कलाएँ उन सभी के लिए नई थीं। लेकिन तमाम कोशिशों के बाद गेट की मरम्मत भी कर दी गई। नए आने जाने वालों को पता ही नहीं चलता कि इस गेट में आग लगी थी।
स्वामीजी का नेतृत्व ऐसा था कि वे आग को लपटों को फाग में बदल सकते थे। वे संतों और भक्तों मे ऐसा विश्वास रखते थे। स्वामी जी की विश्वास करने की भावना ही संतों और भक्तों में नई जान फूंकती थी। उन्होंने मन ही मन निश्चय किया कि स्वामी जी की हम पर ऐसा अटूट विश्वास है, तो हमें भी उनकी इच्छा अनुसार कार्य करना है। स्वामीजी ने संतों, भक्तों, स्वयंसेवकों और कार्यकर्ताओं में अथाह विश्वास जगाया और कई अच्छे असंभव और अशक्य काम किए ।
परम पुरुष स्वामी का मामला ऐसा ही है। सालों पहले वे यहां मुंबई में संस्कृत पढ़ते थे। उस समय उनके लिए पढ़ाई करना बहुत मुश्किल हो गया था। लाख कोशिशों के बाद भी वे ठीक से पढ़ाई नहीं कर पाते थे । उसके मन में भी इसका दुख रहा कराता था। साथ ही साथ उनके मन में यह विचार आया कि यदि हम संस्कृत नहीं पढ़ सकते तो आगे की पढ़ाई क्यों करें? उनके मन में ऐसी उथल-पुथल बहुत देर तक चलती रही। अंत में एक दिन उन्होंने स्वामी जी को पत्र लिखा कि संस्कृत पढ़ना मुझसे सम्भव नहीं है । मुझे कुछ याद नहीं रहता है तो मैं संस्कृत पढ़ना बंद कर देना चाहता हूं। आप जिस मन्दिर में मुझे सेवा में लगाओगे, मैं वहा रहूंगा और जो सेवा तुम कहोगे मैं प्रेम से करूंगा। संतों की संगति में जाऊंगा और सबकी सेवा करूंगा। पत्र मिलते ही स्वामी जी ने उत्तर में लिखा कि हमें संस्कृत पढ़ते रहना है और आगे पढ़ना है और आचार्य बनना है। ईश्वर आपकी स्मृति में भी प्रवेश करें और फले-फूले ऐसा आशीर्वाद है । स्वामीजी के आत्मविश्वास से भरे शब्दों ने उनका आत्मविश्वास जगाया और अध्ययन करने लगे। इसमें विशेष रुचि लेने लगे। सब कुछ याद आने लगा। मार्क्स भी बाद में बेहतर होने लगे। बाद में उन्होंने एक थीसिस भी लिखी और डॉक्टरेट की उच्च डिग्री हासिल की।
ऐसे सैकड़ों अवसर हैं जिनमें भक्तों ने स्वामी जी के एक शब्द पर अपनी जान की बाजी लगा देते थे ।
नवंबर 1998 अहमदाबाद के एक सत्संगति भक्त मंजुबेहन जयंतीभाई पटेल को अचानक ब्रेन हैमरेज हुआ। डॉक्टर ने चेक किया। तरह-तरह की रिपोर्ट दी। फिर कर्णावती अस्पताल के डॉक्टरों ने उन्हें 2-3 दिनों के लिए नवरंगपुरा शुश्रुषा अस्पताल भेज दिया और तुरंत राजस्थान अस्पताल में ऑपरेशन करने का फैसला किया. डॉ. प्रग्नेश भट्ट ने ऑपरेशन शुरू किया, लेकिन यह बहुत जटिल कार्य था। ऑपरेशन के 4 घंटे बाद स्थिति कुछ नाजुक लग रही थी। ऐसा समय आया कि इसमे या तो आंखें चली जाएंगी या लकवा या कोमा हो जाए । क्या करें? ऑपरेशन चालू रखे या नहीं? इनके पति जयंतीभाई को सूचित किया और उनसे पूछा गया कि स्थिति ऐसी तो अब क्या करें? उन्होंने स्वामी जी को फोन किया और पूछा कि अब क्या किया जाए । स्वामीजी ने बताया , ” स्वामिनारायण नाम की धुन करें और ऑपरेशन जारी रखें। भगवान उनकी रक्षा करेंगे। ” स्वामीजी के शब्द पर भरोसा करते हुए ऑपरेशन जारी रहा। और यह दस घंटे तक चला और अंत में सफल भी हुआ ।
ऑपरेशन के बाद मंजूबेन छह महीने तक चेकअप के लिए अस्पताल जाया करते थे । जब वे आखिरी बार चेक अप के लिए गए तो डॉ. भट्ट ने उनसे कहा, “हालांकि मैं ब्राह्मण हूं, पर मैं तो नास्तिक हूं। मैं कभी मंदिर नहीं जाता. लेकिन मैं आपके गुरु को मैं देखना चाहता हूं। उनकी कृपा के बिना यह ऑपरेशन संभव नहीं था। ऑपरेशन के चार घंटे बाद, जब मैं बहुत भ्रमित था, मुझे ऑपरेशन थियेटर मे लगातार प्रमुख स्वामी महाराज की उपस्थिति महसूस हुआ कराती थी ।” ऑपरेशन पूरा करने के बाद लिफ्ट में जाते हुए भी, उन्होंने अपने सहयोगियों से कहा, ” ऑपरेशन थियेटर मे मुझे प्रमुख स्वामी महाराज की उपस्थिति महसूस हुई ।” इसके बाद वे स्वामी जी के दर्शन करने भी आए। ऐसा था स्वामीजी का दिव्य परोपकारी व्यक्तित्व। ईश्वर में उनका विश्वास ही उनके विश्वास और लोगों के उन पर विश्वास का आधार था।
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