प्रमुख स्वामी महाराज हर किसी को प्रोत्साहित करते थे। अगर कोई कुछ नया विचार या नई योजना लेकर आए, तो वे ध्यान से और सम्मानपूर्वक सुनते थे।
वह अपने विचारों को एक तरफ रख देते और सामने वाले व्यक्ति के बेहतर सुझाव पर अमल करने में तनिक भी संकोच न करते।
दिल्ली अक्षरधाम का एक प्रसंग है। संस्था ने यमुना के किनारे 100 एकड़ जमीन लिया। उस समय क्या किया जाए, इसकी कोई ठोस योजना नहीं थी। स्वामीजी का संकल्प था कि यहाँ भी अक्षरधाम का निर्माण किया जाए। अक्षरधाम टीम के एक जिम्मेदार संत पू श्रीजीस्वरूप स्वामीजी के पास एक ड्रॉइंग लेकर आए। उन्होंने स्वामीजी से निवेदन किया कि हम ऐसे अक्षरधाम परिसर का निर्माण कर सकते है। स्वामीजी ने इसमें रुचि ली। तत्पश्चात अक्षरधाम की पूरी टीम से इस संबंध में विचार विमर्श हुआ, इस पर चर्चा चलती रही। पूरी टीम ने उस डिजाइन को ध्यान में रखा और सुधार के बारे में सोचने लगी। समय-समय पर स्वामीजी को सब कुछ बताया गया।
प्रमुख स्वामीजी महाराज ने सभी की प्रस्तुति, विचारों को ध्यान से सुना। फिर इसे केंद्र में रखते हुए अक्षरधाम जैसा विशाल और भव्य-दिव्य नया मंदिर बनाया गया। उन्होंने कहा कि गुरु योजीजी महाराज का संकल्प है, तो अक्षरधाम सर्वोच्च होगा। प्रमुख स्वामी ने अपनी स्वनिर्मित योजना को तरजीह न देते हुए दूसरों के विचारों को प्रमुखता दी। वह दूसरे के विचार की सराहना करते रहे और उन्हें समर्थन देना जारी रखा। इसी का नतीजा है कि आज सौ एकड़ में बना भव्य अक्षरधाम अद्भुत अनोखा हो गया है।
पहली नजर में ही लोग अवाक हो जाते हैं और दिव्यता की भूमि में भ्रमण करने लगते हैं। इसके मूल में है सहज योजना के विचार में स्वामीजी की रुचि, प्रोत्साहन और विश्वास।
संस्था के संयोजक एवं सद्गुरु संत पू. ईश्वरचरण स्वामी ने कहा कि स्वामीजी के प्रशासन कौशल की एक विशेषता यह है कि वे व्यक्ति में बहुत विश्वास रखते थे। अगर किसी के पास कोई अच्छा विचार है, तो उसे व्यक्त करने देते थे। उसे कार्य करने की स्वतंत्रता देते थे। आवश्यक वस्तुएँ उपलब्ध कराते थे।
एक स्थान पर मंदिर बनाने का निर्णय लिया गया। समिति ने क्षेत्र की आवश्यकता और सत्संग के अनुसार वहां सीमेंट का एक छोटा सा सुंदर मंदिर बनाने का निर्णय किया। उस छोटे से नगर मे रहने वाले एक भक्त ने स्वामी जी से विनती की कि हम यहां वर्षों से रह रहे हैं। साथ ही सभी भक्तों की इच्छा होती है कि यहां पत्थर का एक बड़ा मंदिर हो।
स्वामीजी ने तुरंत अपने मन की बात को छोड़ दिया। उन्होंने उनसे कहा कि आपकी इच्छा के अनुसार, पत्थर का एक बड़ा मंदिर बनाया जाएगा। स्वामीजी ने स्थानीय भक्तों की भावना के अनुसार एक सुंदर कलात्मक पत्थर का मंदिर बना भी दिया। उनके सेवकमय नेतृत्व से उस क्षेत्र के सभी भक्त बहुत प्रसन्न थे। इस प्रकार स्वामीजी के नेतृत्व ने बहुतों का दिल जीत लिया। वे
अपनी मर्जी को छोड़ देते थे और दूसरों की इच्छा के अनुसार बदल जाते थे। दूसरों को प्राथमिकता देना, सबको खुश रखना और संगठन का विकास करना उनकी सफलता का रहस्य था ।
“द लीडरशिप चैलेंज” किताब में कहा गया है कि लीडरशिप केवल दिमाग़ का मामला नहीं है, नेतृत्व दिल का मामला भी है। स्वामीजी सभी के दिलों की भावनाओं को समझ लेते थे और उसी के अनुसार चलते थे।
एक मंदिर में मास्टर प्लान के तहत कुछ पेड़ों को मंदिर में स्थानांतरित किया जाना था। स्वामी जी की उपस्थिति में मीटिंग का आयोजन किया गया। एक भक्त ने सहज रूप से वृक्षों का उल्लेख किया और कहा कि वृक्षों को जरा संभाल के पुनः स्थापित किया जाना चाहिए। क्योंकि वृक्षों का नई मिट्टी से चिपकना मुश्किल हो जाता है। तब स्वामी जी ने उसे रोका और कहा कि मैंने तो मन ही मन छोड़ दिया है, अब तुम भी छोड़ दो। यह सुनकर आयोजक हैरान रह गए। उन्हें लगा कि स्वामी जी ने हमसे इस बारे में कभी मीटिंग में बात नहीं की।
स्वामी जी की इच्छा थी कि उस स्थान पर एक बहुत ही पुराना लेकिन स्मृतिदायक स्थान है, जो मास्टर प्लान के हिसाब से निर्माण कार्य करने पर तोड़ना पड़ता। इस प्रकार स्वामीजी अक्सर दूसरों का सहयोग करते हुए उनकी योजना बनाने में शामिल हो जाते थे। जब उन्हें लगा कि मेरे दिमाग में जो कुछ है, उससे दूसरे व्यक्ति के दिमाग में कुछ अलग चल रहा है, तो वह तुरंत अपनी धारणा छोड़ देते थे। यह स्वामीजी के सेवकमय नेतृत्व की विशेषता थी।
उनका मंत्रिस्तरीय नेतृत्व बहुत सहज था। किसी से काम लेने का भाव नहीं था। उनके मन मे सबका शुभ हो, भला हो ऐसी ही भावना रहा करती थी।
जाने-माने लेखक जेम्स स्टॉक ने अपनी पुस्तक ‘सर्व टू लीड’ में कहा है कि इक्कीसवीं सदी के नेतृत्व संबंधों की गतिशीलता ऊपर से नीचे की बजाय नीचे से ऊपर की ओर है, अंदर से नहीं, बल्कि बाहर से। ऐसा था स्वामीजी का सेवकमय नेतृत्व। वे आदेश देने की बजाय दूसरों की आज्ञाओं का ज्यादा पालन करते थे। सरल स्वभाव, सेवा भाव और सहजता प्रमुख स्वामीजी महाराज के व्यक्तित्व की विशेषता थी।