शिखा पाण्डेय,
‘अखिल भारतीय मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड’ ने कहा कि सामाजिक सुधार के नाम पर किसी समुदाय के पर्सनल कानूनों को ‘फिर से नहीं लिखा’ जा सकता। बोर्ड ने शुक्रवार को उच्चतम न्यायालय में तलाक के मामलों में मुस्लिम महिलाओं द्वारा कथित लैंगिक भेदभाव सहित कई मुद्दों को उठाने वाली याचिकाओं का सख़्त विरोध किया।
बोर्ड ने कहा कि शादी, तलाक और गुजाराभत्ता के मुद्दों पर मुस्लिम पर्सनल लॉ द्वारा बताई गई परंपराएं पवित्र ग्रंथ कुरान पर आधारित हैं और अदालतें ग्रंथ की पंक्तियों की जगह अपनी व्याख्या को स्थापित नहीं कर सकतीं। बोर्ड ने कहा कि यह कल्पना गलत है कि मुस्लिम पुरुष तलाक के संबंध में एकतरफा शक्तियां प्राप्त करते हैं।
बोर्ड ने अपने जवाबी हलफनामे में कहा कि बहुविवाह, तीन बार तलाक और निकाह हलाला की मुस्लिम परंपराओं से संबंधित विवादित मुद्दे ‘विधायी नीति’ के मामले हैं। इसमें हस्तक्षेप नहीं किया जा सकता। बोर्ड ने तलाक के विषय में कहा कि इस्लाम तलाक को हमेशा ‘निंदनीय परंपरा’ मानता है और ध्यान इस तथ्य पर भी है कि दोनों पक्षों को जहां तक संभव हो, वैवाहिक संबंध बनाए रखना चाहिए।
बहुविवाह के संबंध में बोर्ड ने कहा कि इस्लाम इसकी अनुमति देता है लेकिन इसको प्रोत्साहित नहीं करता।बोर्ड द्वारा विश्व विकास रिपोर्ट 1991 सहित कई रिपोर्ट्स का जिक्र किया जिसमें कहा गया था कि आदिवासियों, बौद्ध धर्म और हिन्दू धर्म में बहुविवाह प्रतिशत क्रमश: 15.25, 7.97 और 5.80 है जबकि इसकी तुलना में मुस्लिमों में यह 5.73 प्रतिशत है।
शीर्ष अदालत ने इस सवाल पर संज्ञान लिया था कि क्या मुस्लिम महिलाएं तलाक के मामलों में या उनके पति के अन्य विवाहों के कारण लैंगिक भेदभाव का सामना करती हैं। आपको बता दें कि प्रधान न्यायाधीश टीएस ठाकुर की अध्यक्षता वाली पीठ इस विषय की जांच कर रही है।