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बिहार विधानसभा चुनाव में भाजपा की हुई हार की नैतिक ज़िम्मेदारी भले ही उसके वरिष्ठ नेता ले लें लेकिन उन बातों को नज़रंदाज़ नहीं किया जा सकता, जिसकी वजह से बिहार में बीजेपी हवा हो गई. चाहे संघी बयानबाजी हो, दाल की कीमतों की हायतौबा या अवार्ड वापसी, हर मुद्दे ने बीजेपी की शाख को कमज़ोर ही किया. इसके अलावा भी चुनाव के दौरान ऐसी कई बातें सामने आई थी जिनकी वजह से भाजपा लगातार कमज़ोर होती नज़र आई.
कुछ ऐसे बिन्दुओं पर हम चर्चा करेंगे, जिसकी वजह से बिहार की जनता भाजपा से उस कदर नहीं जुड़ सकी, जितनी भाजपाइयों को अपेक्षा थी.
बागियों ने बिगाड़ा समीकरण-
पार्टी के खिलाफ की गई बयानबाजी और वरिष्ठ नेताओं पर आरोप लगाकर चुनाव के समय पार्टी छोड़ देने वाले नेताओं ने ही भाजपा को भारी नुकसान पहुँचाया. सुरेंदर सिन्हा, अमन पासवान और अजय मंडल जैसे कई विधायकों का शहनवाज हुसैन सहित अन्य पार्टी नेतों पर आरोप लगाते हुए पार्टी छोड़ देना और शत्रुघ्न सिन्हा एवं गृह सचिव रहे आर के सिंह जैसे नेताओं के बयानों से प्रत्यक्ष और प्रत्यक्ष रूप से पार्टी को भारी नुकसान हुआ.
स्थानीय नेताओं पर अविश्वास-
बिहार विधानसभा चुनाव में पहले दो चरण तक पोस्टर और बैनर में किसी स्थानीय नेता को जगह नहीं मिली. भाजपा सिर्फ नरेन्द्र मोदी और अमित शाह के चेहरे को दिखाकर चुनाव जीतना चाहती थी, जब तक गलती का एहसास होता बहुत देर हो चुकी थी. २ चरण के चुनाव हो गए थे तब जाकर बैनरों में पीएम नरेंद्र मोदी और अमित शाह की तस्वीरों कीजगह सुशील मोदी, गिरिराज सिंह, रविशंकर प्रसाद, राजीव प्रताप रूडी, शहनवाज हुसैन. हुकुमदेव नारायण यादव और सीपी ठाकुर जैसे स्थानीय नेताओं को जगह दी लेकिन इसका परिणाम पर कुछ ख़ास असर नहीं नज़र आया.
वादे पर खरा न उतरना-
लोकसभा चुनाव के समय भाजपा ने तमाम चुनावी वायदे किए थे, जिनमे से ऐसा कोई वायदा पूरा नहीं कर पाए जिसकी वजह से जनता को सरकार से सहानुभूति हो. महंगाई हो या महिला सुरक्षा, कश्मीर में जवानों की हत्या का मामला हो या नक्सली से निपटने का तरीका, अब तक मोदी सरकार किसी प्रभावी कदम उठाने में विफल रही है.
दाल और अवार्ड वापसी मामला-
चुनाव के समय ही दाल का २०० रूपए किलो का हो जाना और साहित्यकारों तथा फिल्मकारों द्वारा असहिष्णुता जैसे मुद्दे पर पुरस्कार वापस करने के मामले की वजह से आम जनता की सोच बदली. मंहगाई से आम जनता आहत हुई तो वहीँ बुद्धिजीवियों ने अवार्ड वापसी को गंभीरता से लेना शुरू कर दिया.
इसके अलावा और कई ऐसे बिंदु थे जिनकी वजह वोटरों को महागठबंधन की ओर रुख करना पड़ा. इसमें एक बड़ी वजह एनडीए के पास कोई मुख्यमंत्री का कोई चेहरा न होना भी है. बीजेपी के बारे में लोगों का ख़याल था कि इस पार्टी में वंशवाद के लिए कोई स्थान नहीं है लेकिन बीजेपी ने तीन बड़े नेताओं के लड़कों को टिकट दिया गया. पार्टी में असंतोष का माहौल दिखा ही साथ ही साथ जनता तक भी इसका गलत संदेश गया.
स्थानीय मुद्दों की कमी-
बिहार चुनाव के दौरान बीजेपी के पास मुद्दों की कमी भी नज़र आई. जबकि महागठबंधन ने स्थानीय समस्याओं के आधार पर वायदे किए, जिससे जनता का झुकाव तेज़ी से महागठबंधन की बढ़ा. बीजेपी अंत तक इस बात को समझ नहीं पाई कि बिना स्थानीय मुद्दे के विधानसभा चुनाव जीतना कितना कठिन है.