आनंद आर. द्विवेदी | Editorial Desk
दुनिया के कुछ बेहतरीन अदाकारों में शुमार रखने वाले इरफ़ान खान अब हमारे बीच नहीं रहे, लेकिन उनकी कालजयी अभिनीत फ़िल्मों में और हमारे ज़हन में हमेशा जिंदा रहेंगे।
राजस्थान के टोंक जिले के टायर व्यवसायी जागीरदार खान और बेग़म खान के घर 7 जनवरी 1967 को ‘साहबज़ादे इरफ़ान अली खान’ का जन्म हुआ। बचपन से क्रिकेट के शौकीन इरफ़ान इस खेल में भी महारत हासिल कर चुके थे। लेकिन एमए की पढ़ाई करते हुए उन्हें नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा में स्कॉलरशिप मिल गई। तमाम विषम परिस्थितियों के बावजूद बड़ी, गहरी आंखों व मखमली आवाज़ वाले इरफ़ान दिल्ली अपने गंतव्य की ओर निकल पड़े।
1988 में आई “सलाम बॉम्बे” से फ़िल्मी कैरियर शुरू करने वाले इरफ़ान “चाणक्य” और “चंद्रकांता” जैसे टीवी सीरियल्स में भी काम कर चुके हैं। “रोड टू लद्दाख” जैसी शॉर्ट फ़िल्म में इरफ़ान ने बेहतरीन अदाकारी का नमूना पेश किया। “मकबूल”, “हासिल” “पीकू”,”मदारी” जैसी फिल्मों के अभिनेता इरफ़ान का सफ़र चंद शब्दों में तय कर पाना असंभव है।
“इरफ़ान खान ऐसे कलाकार थे जिन्होंने बॉलीवुड समेत हॉलीवुड में भी अपने अभिनय का लोहा मनवाया। “लाइफ़ ऑफ पाई”,”इन्फर्नो”,’जुरासिक वर्ल्ड” जैसी फिल्मों में इरफ़ान का अभिनय विशेष तौर पर सराहा गया।”
इरफ़ान खतरनाक हाई ग्रेड न्यूरोएंडोक्राइन कैंसर से जूझ रहे थे। उन्होंने लंबे समय लंदन स्थित एक अस्पताल में इसका इलाज भी करवाया। हालात में सुधार होने पर वह भारत अपने घर आ गए। इरफ़ान ने कैंसर से जंग जीतने की इच्छा जाहिर करते हुए एक इंटरव्यू में कहा था कि वो अपनी पत्नी के लिए जिंदा रहना चाहते हैं। इसी बीच उनकी माँ चल बसीं। इरफ़ान की हालत भी बिगड़ने लगी जिसके चलते उन्हें मुम्बई के कोकिलाबेन अस्पताल में भर्ती करना पड़ा।
इरफ़ान खान का गुज़र जाना हर किसी को तकलीफ़ दे गया है। आज आनंद फ़िल्म का वह संवाद याद आरहा है, जिसमें राजेश खन्ना कहते हैं, ‘ ‘बाबू मोशाय, हम सब तो रंगमंच की कठपुतलियां हैं जिसकी डोर ऊपर वाले के हाथ में है, कौन कब कहां उठेगा, कोई नहीं जानता।’