डॉ० कुमार विमलेन्दु सिंह | Navpravah Desk
बचपन में दादा- दादी या नाना-नानी की कहानियां हम बड़ी आसानी से बिना कोई ज़्यादा सवाल जवाब किये सुन भी लेते हैं, मान भी लेते हैं और ये हमें दिन भर की थकान से दूर, एक ऐसी दुनिया में ले जाती हैं, जहां फुर्सत है ,आराम है और मीठी नींद है।
इसके बाद जैसे-जैसे हम उम्र की सीढ़ियां चढ़ते जाते हैं हमें अक़्ल आती जाती है, हम ये मानना भूल जाते हैं कि चाँद भी हमें देखता है, जानवर भी हमसे प्यार करते हैं, हमारे बारे में सोचते हैं। हमें ऐतबार नहीं होता कि कई चीज़ें और रिश्ते, बिना मतलब और ग़रज़ के होते हैं। हम समझदार बन जाते हैं, लेकिन हमारी ख़ुशी खो जाती है। ऐसा हर दौर में होता है और जब यही सब बढ़ रहे बच्चों के साथ हो रहा था 80 के दशक में , दूरदर्शन एक बार फिर हाज़िर था अपने ख़ज़ाने में से एक और हीरा लेकर और नाम था उस हीरे का, “सिंहासन बत्तीसी”। ये 1985 की बात है।
“सिंहासन बत्तीसी”, विद्या मूवीज प्राइवेट लिमिटेड के द्वारा बनाया गया था और ये राजा विक्रमादित्य के सिंहासन पर आधारित था जो राजा भोज को मिला था। इस सिंहासन में बत्तीस पुतलियाँ थीं और जब भी राजा भोज उसपर बैठने की कोशिश करते थे, इनमे से एक पुतली में जान आ जाती थी और वो राजा को विक्रमादित्य की महानता की कहानी सुनकर ये बताती थी की अभी वो इस सिंहासन पर बैठने लायक नहीं है।
इस धारावाहिक में राजा विक्रमादित्य का किरदार, विजयेंद्र घाटगे निभा रहे थे और राजा भोज , सुभाष कपूर बने थे। ये वो दौर था जब टेलीविज़न नया नया भारत में इतने सारे कार्यक्रम और धारावाहिक लेकर आया था और पहली बार ये हो रहा था कि , बिना बाहर गए, घर बैठे , मनोरंजन का पूरा इंतज़ाम हो चुका था।
“फिल्मों और टेलीविज़न में इस वक़्त, टेलीविज़न का पलड़ा थोड़ा भारी था। यही वजह थी कि फिल्मों में काम करने वाले लोग भी टेलीविज़न से आसानी से जुड़ जाते थे और छोटे परदे से भी बड़े परदे की ओर कलाकार जा रहे थे। इसलिए बड़े बड़े गायकों को धारावाहिकों का गाना गाते हुए इस दौर में सुना जा सकता था।”
इस धारावाहिक का शीर्षक गीत शब्बीर कुमार ने गाया था और संगीत, अरुण पौडवाल ने दिया था। विद्या सिन्हा इसकी निर्मात्री थीं और चंद्रकांत इसके निर्देशक थे।
सुनें शीर्षक गीत-
इस धारावाहिक का हर एपिसोड २२-२३ मिनट का था। जादू और तिलिस्म से भरे , कल्पना की दुनिया में , willing suspension of disbelief के साथ सब कुछ मानते हुए , दिल-ओ -दिमाग़ पर बिना कोई बोझ लिए मीठी सी नींद, अब भी कभी आ ही जाती है जब कभी विक्रमादित्य बने विजयेंद्र घाटगे , किसी कहानी में लोगों का दुःख दर्द मिटाते नज़र आते है।
(लेखक जाने-माने साहित्यकार, फ़िल्म समालोचक, स्तंभकार, व शिक्षाविद हैं.)