डॉ० कुमार विमलेन्दु सिंह | Navpravah Desk
क़ज़ा, मौत, मर जाना, फ़ौत होना, ये कोई तय नहीं कर सकता, लेकिन पहले से, शायद हमारे यहाँ आने से पहले ही मुक़र्रर कर दिया जाता है वो लम्हा, जहां से हमारा होना रुक जाता है और दुनिया तेज़, बहुत तेज़ बढ़ जाती है बाक़ी बचे हुए लोगों के साथ। यादें, बेशक़ आती हैं, जो गुज़र जाता है उसकी, पर इतना ही सोच पाते हैं हम, वो होता तो कैसा होता। सईदा ख़ान को याद करने वाले कुछ ही हैं, पर बड़ी शिद्दत से याद करते हैं उन्हें।
सईदा ख़ान, 1949 में कलकत्ता में पैदा हुई थीं और बचपन से ही फ़िल्मों में काम करना इनका शौक़ था। बचपन से ही ये बहुत चंचल और ख़ूबसूरत थीं। एक पार्टी में इन्हें, मशहूर प्रोड्यूसर एच०एस०रवैल ने देखा और पूछा कि क्या वे फ़िल्मों में काम करना चाहेंगी? सईदा ख़ान तो कब से इसी दिन का इंतज़ार कर रही थीं, उन्होंने तुरंत बात मान ली।
इसके बाद सईदा ख़ान, अपनी मां के साथ कलकत्ते से मुंबई चली गईं, और जैसा कि रवैल साहब ने कहा था, सईदा ख़ान को उनकी पहली फ़िल्म, “कांच की गुड़िया”, बतौर हेरोइन मिल गई। ये फ़िल्म शानदार अदाकार, मनोज कुमार की भी पहली फ़िल्म थी, और साल था, 1961। इसके बाद कुछ दिनों तक इन्होंने, उस वक़्त के सभी बड़े अदाकारों, जैसे प्रदीप कुमार, फ़िरोज़ ख़ान और किशोर कुमार के साथ काम किया। ज़िंदगी रोज़ ऊंचाई की तरफ़ बढ़ रही थी और इसी सफ़र में एक ठिकाना मोहब्बत का भी आया। मशहूर प्रोड्यूसर और लेखक, बृज सदाना से इन्होंने शादी कर ली।
इन्हें बड़ी फ़िल्में मिलना कम तो हो ही गया था, सो B और C ग्रेड की फ़िल्मों में भी ये दिखीं, लेकिन शादी के बाद अपनी दुनिया में ही ख़ुश रहने लगीं। बॄज सदाना बहुत बड़े प्रोड्यूसर थे, उन्होंने “चोरी मेरा काम” और “विक्टोरिया नं० 203” जैसी फ़िल्में प्रोड्यूस की थीं। सईदा ख़ान की ज़िंदगी अब ख़ुशनुमा थी, इनके एक बेटा और एक बेटी भी हुए। बेटे का नाम कमल सदाना रखा गया, जो फ़िल्मों में बतौर हीरो, मशहूर भी हुए। 1993 में आई फ़िल्म, “रंग”, जिसमें दिव्या भारती भी थीं, उसमें कमल सदाना पर फ़िल्माया गया गाना,” तुझे ना देखूं तो चैन, मुझे आता नहीं है”, आज भी बहुत पसंद किया जाता है। बेटी का नाम था, नम्रता।
“कमल सदाना बताते हैं कि “1990 में मेरे जन्मदिन, 21 अक्टूबर को, शराब के नशे में, मेरे पिता बृज सदाना ने मेरी माँ (सईदा ख़ान), मेरी बहन (नम्रता) को गोली मार दी, मुझपर भी गोली चलाई, पर मैं बच गया, ज़ख़्मों के इलाज के बाद, जब मैं अस्पताल से घर आया तो देखा कि मेरे पिता ने उसी बंदूक से ख़ुदक़ुशी कर ली थी, मेरी पूरी दुनिया उजड़ चुकी थी।”
फ़िल्मों में वे अच्छा कर सकते थे लेकिन पूरे परिवार की मौत ने उन्हें ऐसा करने न दिया।
सईदा ख़ान, को अब लगभग सब भूल चुके हैं और उनकी फ़िल्मों में से भी ज़्यादातर भुला दी गयी हैं, लेकिन कमल की तो वे दुनिया थीं। कमल ही शायद इस दुनिया में अपनी मां को याद करते हैं अब, और बहन की याद में अपनी बेटी का नाम नम्रता रखा है उन्होंने।
सईदा ख़ान, एक अदाकारा के अलावा उस घुटन की तस्वीर के तौर पर भी याद की जाती हैं, जो इस रुपहले पर्दे के पीछे की दुनिया में काबिज़ है।
(लेखक जाने-माने साहित्यकार, स्तंभकार, व शिक्षाविद हैं.)