Amit Dwivedi @Navpravah.com
रेटिंग– 2/5
निर्माता– चंपारण टॉकीज़ (नीतू चंद्रा)
निर्देशक– नितिन चंद्रा
कलाकार– आशीष विद्यार्थी, क्रान्ति प्रकाश झा,अजय कुमार,पंकज झा, आरती पुरी।
फिल्में समाज का आईना होती हैं, इस कहावत को चरितार्थ करती है नितिन चंद्रा द्वारा निर्देशित फ़िल्म ‘वन्स अपॉन अ टाइम इन बिहार’। बिहार समेत समूचे उत्तर भारत की सामाजिक,आर्थिक और व्यावहारिक दशा को बखूबी सिनेमाई शक्ल दी है निर्देशक नितिन ने। भ्रष्टाचार और दबंगई की वजह से उत्तर भारत के युवा किस कदर भ्रमित होकर गलत राह पर जा रहे हैं और उसका क्या नुकसान समाज को हो रहा है यही विषयवस्तु है इस फ़िल्म का।
पूरी फ़िल्म बिहार के बक्सर जिले में रहने वाले राजीव कुमार,शंकर पाण्डेय और जीन्स नामक किरदार के इर्द गिर्द घूमती है। इनमें से कोई प्रशासनिक अव्यवस्था से परेशान है,कोई सामाजिक तो सरकारी तंत्र से। राजीव कुमार आईएएस बनाना चाहता है लेकिन 2 बार साक्षात्कार से रिजेक्ट कर दिया जाता है वहीं शंकर के पास नौकरी पाने के लिए 2 लाख रूपए घूस के नहीं हैं। जिसकी वजह से उन्हें नौकरी नहीं मिलती है। राजीव पर बहन की शादी की ज़िम्मेदारी होती है। वह शहर से दूर कमाने जाता है, बमुश्किल लाख रूपए कमाकर बक्सर पहुँचता है लेकिन रास्ते में ही छिनैती का शिकार हो जाता है। जिससे राजीव परेशान रहने लगता है। शंकर भी आर्थिक तंगी से परेशान होता है और भाई से विवाद होने की वजह से घर छोड़कर चला जाता है और जीन्स के साथ रहने लगता है।
जीन्स,राजीव और शंकर आर्थिक तंगी से परेशान होने के कारण अपहरण की योजना बनाते हैं। बहुत सोचने के बाद तीनो निश्चित करते हैं कि होटल अम्बेसडर के मालिक का अपहरण किया जाएगा। लेकिन गलती से अपहरण किसी और का हो जाता है। जिसके बाद अचानक से सभी की परेशानियां बढ़ जाती हैं। इसके बाद कहानी रोचक मोड़ ले लेती है। जिसका असली मज़ा लेने के लिए आपको सिनेमाघर तक जाना पड़ेगा।
फ़िल्म का संगीत औसत दर्ज़े का है। गीत और संगीत भोजपुरीमय है। शारदा सिन्हा का गया गीत फ़िल्म को मज़बूत करता है। पटकथा कई जगह बहुत कमज़ोर है और संवाद भी। फिर भी मुद्दा ज्वलंत होने की वजह से कोई ख़ास फर्क नहीं पड़ता।
क्यों देखें– देश और समाज की दशा को करीब से समझने के लिए।
क्यों न देखें– अगर आपको मात्र मसाला फिल्में पसंद हों तो यह फ़िल्म आपको रास नहीं आएगी।