आलोक शर्मा | Navpravah.com
मैं कई दफ़ा सोचता हूं कि भारतीय वामपंथियों का पाकिस्तान से इतना इश्क़-मोहब्बत का रिश्ता क्यों है? उन्हें क्यों लगता है कि हिन्दुइज़्म एक बहुत पिछड़ी हुई, घटिया जीवन पद्धति है और इस्लाम सर्वश्रेष्ठ है। सर्वश्रेष्ठ कहना भी दरअसल अन्याय है। उनकी नज़र में इस्लाम कई बार ऐसा लगता है कि उसका विकल्प ढूंढने की कोशिश करने वाले जड़-मूल से बुद्धिहीन हैं। वास्तव में उसका विकल्प समूचे संसार में कोई है ही नहीं। अतः यह एकमात्र रास्ता है, जिस पर चल कर हम कम्युनिज़्म की अंतिम सीढ़ी को लांघ कर उस स्वर्गिक संसार में दाखिल हो सकते हैं, जिसकी परिकल्पना कार्ल मार्क्स और फ्रेडरिक एंगेल्स ने की थी और जिसे अनेकानेक विद्वानों ने आगे बढ़ाया।
ईसाइयत के बारे में भी वामपंथियों के स्वर लगभग ऐसे ही हैं। अनेक वैज्ञानिकों को मौत के घाट उतारने वाला रिलीजन उन्हें वैज्ञानिक लगता है, लेकिन शून्य से लेकर अणु तक के विचार अपने धर्मग्रंथों में संजोए सनातन पिछड़ा हुआ। उनके राजनीतिक खेमे में आप विशेष गोल टोपी लगाए तो सम्मिलित हो सकते हैं, आपस में ‘अस्सलाम अलैकुम, वालेकुम सलाम’ तक कह सकते हैं और कभी ज़रूरत महसूस हो, तो आपको किसी एक-दो वक़्त की नमाज़ अदा करने की सहूलियात भी मुहैया कराई जा सकती हैं, लेकिन अगर आपने कहीं संध्या वंदन या आरती का प्रावधान करने की हिमाकत कर दी, तो आप संसार के सबसे दुर्दांत ‘भगवा आतंकवादी’।
मैं जब भी सोचता हूं, तो साफ़ दिखता है कि यह सब न विचारधारा है, न किसी ग्रन्थ का सम्मान। है, तो सिर्फ़ वोटों का गणित। अगर वाकई हिन्दू उतने ही कट्टर होते, तो आपकी हिम्मत ही नहीं होती कि उनके ख़िलाफ़ एक शब्द बोल सकें। आपका समूचा इतिहास गवाह है कि आपने हिटलर को कोसते हुए, अपनाया उसी की नीतियों को है।
मैंने विख्यात अभिनेता ए. के. हंगल की आत्मकथा पढ़ी। वे जीवन भर कराची की सेवा करते रहे। बदले में क्या मिला?
‘अबे, तू हिन्दू है। यहां क्या करेगा? भाग यहां से, वरना मारा जाएगा।’
विभाजन के वक्त उन्हें काफ़ी समय जेल में बिताना पड़ा और बड़ी मुश्किल से भारत आ पाए।
ऐसा भी नहीं है कि यह सिर्फ़ एक हंगल की दास्तान हो। अनेकानेक कलाकार हैं, जिन्हें इस कदर प्रताड़ित किया गया कि वे पाकिस्तान छोड़ कर भागने को विवश हुए या घुट-घुट कर जीते रहे।
सज्जाद ज़हीर को याद करें। उनकी सुपुत्री नूर ज़हीर इंडिया की तानाशाही के ख़िलाफ़ सक्रिय हैं, लेकिन जिस पाकिस्तान से उनके अब्बा हुजूर को डंडे मार कर भगाया गया था, उसके ख़िलाफ़ एक लफ़्ज़ उनके श्रीमुख से सुन पाना दुर्लभ है। उन्हीं के रिश्तेदार कांग्रेस की उत्तर प्रदेश इकाई के अध्यक्ष राज बब्बर के बयान ही देख लें। कुछ समझ आता है? इनसे पूछें, सज्ज़ाद ज़हीर को पाकिस्तान से क्यों भागना पड़ा?
ऎसी शख़्सियात की एक लम्बी सूची है, जिन्हें पाकिस्तान को अलविदा कहने के लिए यातनाएं सहनी पड़ीं या मज़बूर किया गया। मैं सिर्फ़ कुछ शुभनाम का जिक्र करूंगा – सआदत हसन मंटो, जोश मलीहाबादी, हबीब ज़ालिब, फैज़ अहमद फैज़ आदि न जाने कितने नाम हैं, जो वहां प्रताड़ित हुए या मुल्क़ बदर हुए।
‘एक ही सफ़ में खड़े हो गए महमूदो-अयाज़’।
यह एक मशहूर काव्यपंक्ति है और उतना ही विख्यात जुमला भी। मुझे लगता है कि इस्लाम की यही ख़ासियत कम्युनिस्टों को आकृष्ट करती है कि एक कम्यून तो यहां पहले से मौजूद है। फिर इस जमात में वामपंथ आते कितनी देर लगेगी? लेकिन क्या संसार भर में ऐसा कोई एक भी उदाहरण है कि किसी इस्लामी व्यवस्था के अंतर्गत चल रहे मुल्क में कम्युनिज़्म आया हो। नहीं, एक उदाहरण नहीं है।
कम्युनिज़्म सदा टोटेमवाद अथवा उदार सभ्यताओं में जी रहे मुल्क़ों में अपनी विजय पताका फहरा पाया है और उसका हस्र उन स्थानों पर भी पाकिस्तान जैसा ही हुआ है।
क्या समय नहीं आ गया है कि वामपंथी अपनी आंखों पर चढ़ा हरा चश्मा कम से कम आज़ कम एक बार उतार कर दुनिया को एक नई दृष्टि से देख लें?
(यह आलेख वरिष्ठ पत्रकार आलोक शर्मा जी की फेसबुक वॉल से साभार उधृत है।)