अनुज हनुमत,
8 नवम्बर की देर शाम प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अचानक एक चौंकाने वाला फैसला सुनाते हुए 500 और 1000 की बड़ी नोटों पर पाबंदी लगाने का अहम निर्णय लिया। इसके बाद शुरुआती दिनों से ही ये कयास लगाया जा रहा था कि इस नोटबन्दी का देश के किसानों पर जबरदस्त प्रभाव पड़ा होगा!
समय रबी की फसल का है और जुताई, बुआई का भी काम तेजी से चल रहा है। नोटबन्दी के फैसले को 40 दिन से ऊपर का समय हो गया है और तमाम तरह की रिपोर्ट्स के माध्यम से लगातार ये खुलासा हो रहा है कि नोटबन्दी के बाद से किसानों की स्थिति बड़ी तेजी से दयनीय होती जा रही है, लेकिन जब कल हमने ग्राउंड जीरों की हकीकत जाना तो तस्वीर उन रिपोर्ट्स से उलट थी। उलट का मतलब ये कि आखिर वास्तविक समस्या क्या आ रही है?
बात करते हैं बुन्देलखण्ड के सबसे पिछड़े इलाके पाठा की। चित्रकूट जिले से तकरीबन 40-50 किमी दूर पाठा के उन गांवों में, जहाँ का क्षेत्र दशकों तक दस्यु प्रभावित रहने के कारण आज भी मूलभूत सुविधाओं की आस लगाए बैठा है। इतना पिछड़ा कि यहाँ आस-पास बिजली, सड़क और पानी की तो समुचित व्यवस्था भी नहीं है। अगर बैंको की बात करें तो उसके लिए भी लोगों को 20-30 रूपये लगाकर मानिकपुर आना पड़ता है। कुछ बड़े किसानों को अगर छोड़ दिया जाये तो गरीबी की हालत ऐसी की तन में पूरा कपड़ा भी मुश्किल से ही नजर आएगा।
विगत कई वर्षों से किसानों की भी हालत बिगड़ी है, क्योंकि तीन चार दशक से क्षेत्र सूखे की समस्या से जूझ रहा है। सबसे खास बात ये कि इस पूरे क्षेत्र में आदिवासी जनजातियां बहुतायत मात्रा में निवास करती हैं।
अब बात करते हैं यहाँ के किसानों और मजदूरों पर नोटबन्दी के असर की, जो इस क्षेत्र में काफी कम नजर आया। जो थोड़ा बहुत प्रभाव था भी, वह रोजाना वाले कार्यों पर देखने को मिला। ज्यादातर किसानों और मजदूरों से जब मैंने बात की तो उनका कहना था कि नोटबन्दी के फैसले का वह अपनी निजी जिंदगी में ज्यादा प्रभाव नहीं महसूस कर रहे हैं। हाँ अगर कुछ दिक्कत हुई है, तो वह ये कि बड़े कामों में रुकावट आई है। मसलन शादी, अन्य बड़े खर्चे आदि।
हमने जब इस बात की पड़ताल कि क्या वास्तव में ग्रामीण बैंको में आने वाला कैश इधर उधर किया जा रहा है, तो हमे इसके पुख्ता सबूत तो नहीं मिले लेकिन कुछ किसानों और मजदूरों ने नाम न छापने की शर्त पर हमें बताया कि हमे दिनभर लाइन में लगना पड़ता है और उधर बैंक वाले शाम को बड़े खाता धारकों को कैश उपलब्ध करा देते हैं। जैसे उनके लिए कोई कानून ही न हो। उन्होंने बताया कि बैंक कर्मचारियों द्वारा अभद्रता भी की जाती है। सरकार ने एक बार में जितनी लिमिट तय की है, उतना कैश भी नहीं देते और दूसरी तरफ बड़ी बड़ी गाड़ियों वालों को पूरा कैश दे दिया जाता है।
उल्लेखनीय है कि रिजर्व बैंक के आंकड़ों के मुताबिक, ग्रामीण भारत के 81 फीसदी नागरिक बैंकों के बिना जी रहे हैं। आकंड़ों के अनुसार ग्रामीण भारत के 93 फीसदी हिस्से में बैंक नहीं बल्कि बैंक मित्र काम कर रहे हैं।
कुलमिलाकर नोटबन्दी के 41 दिन बाद भी ग्रामीण इलाकों के बैंको में लंबी लाइनें इसलिए भी लगातार लंबी बनी हुई हैं, क्योंकि बैंको द्वारा आम लोगों के साथ सहयोग नहीं किया जा रहा है। सबसे बुरी स्थिति ग्रामीण बैंको की है, जहाँ हफ़्तों कैश नही आता। जिसके कारण गरीब किसानों, मजदूरों को भारी मुसीबत का सामना करना पड़ता है। सुबह आकर लाइन में लगना और फिर मायूस होकर लौटना पड़ता है। नोटबन्दी के फैसले पर अधिकांश लोगो की यही राय थी कि ये फैसला बिल्कुल सही है, लेकिन तैयारी कमजोर थी। अब ये तो आने वाला समय ही बताएगा कि पीएम मोदी के नोटबन्दी वाले फैसले से आम जनमानस को कितना फायदा मिलेगा!