बेहतर ‘तमाशा’ हो सकता था

फिल्म समीक्षा – तमाशा

AmitDwivedi@Navpravah.com

रेटिंग- 2.5/5

निर्माता- साजिद नाडियाडवाला

लेखक-निर्देशक- इम्तियाज़ अली,

संगीत- ए.आर. रहमान

 

किसी भी कहानी की शुरुआत अगर बोझिल हो और मिज़ाज दर्शन से लबरेज़, तो कम लोग ही होंगे जो उसकी गहराई में उतरना चाहेंगे. कम से कम कहानी की शुरुआत रोमांचक या अलग होनी ही चाहिए, जिससे सुनने-देखने वाले श्रोता या दर्शक तल्लीन हो सकें. यहीं चूक गए इम्तियाज़. ‘तमाशा’ की शुरुआत में ही कहानी सुनाते हुए पियूष मिश्र और रणबीर कपूर के बचपन का किरदार प्यारा लगता है और दर्शकों को खींचता भी है, लेकिन इम्तियाज़ ने जो तमाशा क्रिएट किया है, वह पूरी तरह से उबाऊ बन पड़ा है. फिल्म की स्टोरी तो अच्छी है लेकिन स्क्रीनप्ले काफी बहका सा नज़र आता है. कुछ सीन तो ऐसे भी हैं, जिसे देखकर लगता ही नहीं कि इम्तियाज़ अली इसके निर्देशक हो सकते हैं. जब वी मेट, लव आज कल, और रॉकस्टार जैसी फिल्म के अलावा यह भी एक बेहतरीन फिल्मों में शामिल हो सकती थी.

फिल्म के ज़रिए इम्तियाज़ कहना चाहते हैं कि हर इंसान है कुछ और लेकिन दिखता कुछ और है. इंटरवल के बाद काफी हद तक कहने में कामयाब भी हुए हैं, लेकिन उन्होंने भूमिका बनाने में काफी समय ले लिया.

कहानी-

फ्रांस में वेद (रणबीर) और तारा (दीपिका) की मुलाक़ात होती है. तारा का बैग चोरी हो जाता है जिसकी वजह से वह काफी परेशान होती है. रेस्टोरेंट में काफी रिक्वेस्ट करने के बाद जब वहाँ का मैनेजर उसे कॉल नहीं करने देती तो वह मैनेजर को हिंदी में गाली देती है, यह सुनकर वेद तारा के पास आकर उसकी परेशानी पूछता है और उसे अपना फोन देता है कॉल करने के लिए. उनकी दोस्ती होती है. वेद पहली ही मुलाक़ात में काफी प्रैक्टिकल नज़र आता है. दोनों वादा करते हैं कि एक हफ्ते में जो कुछ भी होगा वह सब वे भूल जाएंगे और कभी दोबारा एक दूसरे से बात करने की कोशिश भी नहीं करेगे. तारा का पासपोर्ट आ जाता है और वह हिन्दुस्तान लौट जाती है, लेकिन वेद का बिंदास स्वभाव तारा के मन में गहराई तक उतर जाता है. जिसे वह चाहकर भी नहीं भुला पाती. और प्यार करने लगती है वेद से. वह हर उस जगह वेद को ढूँढती है, जहां उसके मिलने की संभावना होती है. अंततः एक रेस्टोरेंट में लगभग ४ साल बाद उसकी मुलाक़ात वेद से हो ही जाती है. दोनों खुश होते हैं लेकिन कुछ समय बाद ही तारा को आभास होता है कि यह वही वेद नहीं है जो फ्रांस में मिला था. इसका मिज़ाज बिल्कुल अलग है, उस बेपरवाह, बिंदास वेद से. बस यहीं से कहानी का पूरा ट्रैक चेंज हो जाता है. इंटरवल के बाद बड़ी खूबसूरती से इम्तियाज़ ने कहानी को दिशा दी है.

फिल्म के डायलाग मजेदार हैं. लेकिन कई जगह ऐसा लगता है कि निर्देशक ने ज़बरदस्ती इसका इस्तेमाल किया है. यही संवाद फिल्म की रीढ़ को कमज़ोर करते हैं. हर किरदार निर्देशक की डिमांड पर खरा उतरता है. दीपिका और रणबीर ने कमाल की एक्टिंग की है. बाकी सभी सपोर्टिंग एक्टर्स ने भी अच्छा काम किया है. इरशाद के बोल पर रहमान की धुन अच्छी लगती है. लेकिन जो अपेक्षा ए.आर. रहमान से होती है वह नहीं. संगीत औसत है. हमेशा की तरह इम्तियाज़ के फिल्म की फोटोग्राफी और सिनेमैटोग्राफी कमाल की है.

कुल मिलाकर यह कहना गलत न होगा कि यह फिल्म और भी अच्छी बन सकती थी.

क्यों देखें- रणबीर और दीपिका के लिए. फ्रांस की खूबसूरती भी देख सकते हैं.

क्यों न देखें- इम्तियाज़ का वह अंदाज़ आप को नज़र नहीं आएगा, जो हाइवे, जब वी मेट, रॉकस्टार और लव आज कल में नज़र आया है. शुरुआत ही बोझिल है.

 

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