अनुज द्विवेदी
कहते हैं की गंगा की बहती धारा में सभी अपना हाथ धोने की चाह रखते हैं और अगर मौजूदा समय में देश के शैक्षिक माहौल की बात करें तो कुछ तथाकथित अतिबौद्धिक लोगों द्वारा इसे जबरदस्ती बिगाड़ने का प्रयास किया जा रहा है । अभी जेएनयू में लगी आग ठंडी भी नही हुई थी कि पूरब का आर्क्सफ़ोर्ड कहा जाने वाला इलाहाबाद विश्वविद्यालय भी इस आग की चपेट में आ गया है ।
जेएनयू और हैदराबाद यूनिवर्सिटी के बाद अब इलाहाबाद विश्वविद्यालय भी विवादों के घेरे में दिखाई दे रहा है। यहां छात्रसंघ अध्यक्ष ऋचा सिंह का कहना है कि यूनिवर्सिटी प्रशासन उन्हें पद से हटाना चाहता है।
छात्रसंघ की पहली महिला निर्दलीय अध्यक्ष ऋचा सिंह का कहना है कि उन्होंने विश्वविद्यालय में कई मुद्दों के लिए आवाज उठाई थी। जिसकी वजह से प्रशासन उनकी कुर्सी छीनना चाहता है और उनके साथ वैसा ही किया जा रहा है, जैसा हैदराबाद यूनिवर्सिटी में रोहित वेमुला के साथ किया गया था ।
ऋचा का आरोप है कि जेएनयू, रोहित वेमुला के मामले पर आवाज उठाने और एबीवीपी का विरोध करने के कारण केंद्र के इशारे पर उन्हें निशाना बनाने की तैयारी की जा रही है। ऋचा ने कहा कि अगर उन्हें आरक्षित सीट पर दाखिला दिया गया है, तो इसमें उनकी नहीं बल्कि यूनिवर्सिटी प्रशासन की गलती है।
ऋचा विश्वविद्यालय में संचालित कोर्स ग्लोबलाइजेशन एंड डेवलपमेंट में डी. फिल की छात्रा हैं। उनका कहना है कि जेएनयू विवाद के बाद एबीवीपी अब उन्हें निशाना बना रही है और उनके 6 माह के कार्यकाल में उन्हें लगातार मानसिक प्रताड़ना का सामना करना पड़ा है ।
ऋचा का कहना है कि विश्वविद्यालय प्रशासन उनके एडमिशन को गलत बताकर उन्हें बाहर कर के उनका पद एबीवीपी से छात्रसंघ उपाध्यक्ष विक्रांत सिंघ को सौंपना चाहता है। बता दें कि पिछले दिनों छात्र नेता रजनीश सिंह की शिकायत के बाद वीसी रतन लाल हंगलू ने ऋचा की एडमिशन प्रक्रिया के जांच के आदेश दिए थे।
वैसे यहाँ का मामला तो बिल्कुल अलग है पर एक बात इसे जेएनयू से जोड़ती है वो है यहाँ का मौजूदा ‘छात्रसंघ’। वैसे कहने को तो छात्र संघ का गठन छात्रहितों की पूर्ति के लिए किया जाता है, पर जब यही छात्र संघ ‘छात्रों’ के लिए ही सिरदर्द बन जाए तो ऐसी स्थिति में इनसे किसी कार्य की आशा करना बेमानी ही होगा।
जेएनयू कैम्पस में कुछ विकृत मानसिकता के लोगों द्वारा देशविरोधी नारे लगाये गए थे जिसके बाद देश का माहौल अचानक गर्म हो गया था। सभी गुस्से में थे। पूरा देश खुद से यही प्रश्न कर रहा था कि आखिर अपने ही देश के अंदर देश की अखण्डता व संप्रभुता को तार-तार करने वालों को क्यों तनिक भी अपने किये पर पछतावा नही हुआ ?
खैर समय बीतने के साथ प्रश्न भी कमजोर हो गया है। वैसे इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्र राजनीति का मुख्य केंद्र रहा है, इसने देश को बहुमूल्य हीरे दिए हैं। पर अब यहाँ के छात्र संघ की स्थिति बिल्कुल ख़राब हो गई है। इस वर्ष जब नये छात्र संघ चुनाव का परिणाम आया तो विश्वविद्यालय के इतिहास ने एक नई करवट ली और स्वतंत्रता के बाद पहली बार छात्रों को निर्दलीय उम्मीदवार ‘ऋचा सिंह’ के रूप में पहली महिला अध्यक्ष मिली। कहने को तो इन्होंने अकेले ही बिना किसी सपोर्ट के चुनाव जीता पर शुरू से ही इनके ऊपर पार्टी विशेष से सपोर्ट लेने का आरोप लगता रहा है। ये आरोप इसलिए भी कैम्पस की छात्र राजनीति के केंद्र में रहा क्योंकि जब इन्होंने चुनाव प्रचार शुरू किया था, तब इनका कहना था कि हम धनबल और दलबल से दूर रहेंगे क्योकि हमें एक स्वच्छ राजनीति करनी है।
अध्यक्ष पद के अलावा सारे पद अ.भा.वि.प. को मिले और यहीं से शुरू हुआ छात्र संघ का आपसी संघर्ष, हर दिन एक नए विवाद के साथ खत्म होता है और मानों अगला दिन एक नए विवाद के स्वागत में फूल मालाएं लिये खड़ा रहता है। इन सब विवादों में सबसे ज्यादा जिसका घाटा हुआ वो था ‘छात्र’ जो अब खुद को ठगा हुआ महसूस कर रहा है।
ये तो आने वाला समय बताएगा की अध्यक्ष ऋचा सिंह का पद रहेगा या नहीं पर एक बात साफ़ तौर पर स्पष्ट है कि इससे छात्रों का किसी भी प्रकार का भला नही होने वाला है। मामला कुछ भी हो पर उसे तत्कालीन समय से जोड़कर अपना फायदा लेना भी कही न कहीं गलत है। ऐसे में यह कहना कि मेरा विरोध केवल इसलिए हो रहा है क्योकिं मैंने रोहित वेमुला और कन्हैया का समर्थन किया। ऐसा बयान केवल अपनी राजनीति सहेजने का प्रयास लगता है क्योंकि मौजूदा समय में खुद की प्रासंगिकता बनाए रखने के लिए इससे अच्छा कोई भी मास्टर स्ट्रोक नही हो सकता। इन विवादों से इतर अगर कैम्पस की बात करें तो माहौल काफी बिगड़ चुका है। आये दिन मारपीट और छेड़छाड़ का सीधा प्रसारण देखने को मिल ही जाता है। कोई किसी की भी पिटाई कर सकता है लेकिन न तो वहां पे खड़े छात्र नेता किसी को बचाएंगे और न ही आस पास खड़े लोग।
सभी एक सुर से यही कहते हैं कि कैम्पस में सीसीटीवी कैमरे लगने चाहिए हम तो अपनी नंगी नजरों से कुछ गलत नही देखेंगे। अब तो लोगो के अंदर गलत के विरोध करने की भी हिम्मत नही रह गई। मारपीट के बाद भी ऐसा माहौल बनाया जाता है कि उस विषय पर कोई किसी से कुछ बात न कर सके । कहने को तो शिक्षा के मंदिर में ये सब नही होना चाहिए, पर शायद अब शिक्षा के ये प्राचीन मंदिर वैसे पूज्यनीय नही रहे।
फिर ऐसे में छात्र संघ की प्रासंगिकता बनी रहे ये मुमकिन नहीं। इसका सबसे बड़ा कारण यह कि मौजूदा समय में छात्र राजनीति खुद की शख्सियत संवारने का सबसे बड़ा ‘अड्डा’ बनकर रह गया है।