डॉ० कुमार विमलेन्दु सिंह | Navpravah Desk
अपना मुस्तक़बिल नामालूम हो, कुछ फ़ासले के बाद वक़्फ़ा हो और हर वक़्फ़े में थोड़ा सुकून और थोड़े मुश्क़िलात हों, कुछ शजर के साए भी मिलें, कुछ धूप भी, तब सफ़र यादगार बन जाता है और मुड़ कर देखने पर लगता है, ख़ूब चलें हम बेहतरी की तरफ़, कुछ इबारतें लिखते, कुछ अफ़सोस मिटाते| सफ़र कुछ ऐसा ही रहा, जावेद ख़ान अमरोही का|
जावेद की पैदाइश, 1953 में, मुंबई में ही हुई और इनके वालिद, पेशे से डॉक्टर थे| ये बचपन से ही खेल कूद के शौक़ीन थे और क्रिकेट में इनकी ख़ास दिलचस्पी थी| खेल-कूद में अच्छा होने के कारण, ख़ालसा कॉलेज में इनका दाख़िला भी हुआ और फ़ीस भी माफ़ कर दी गई| भारतीय क्रिकेट टीम के लिए 36 संभावित खिलाड़ियों की फ़ेहरिस्त बनी, उसमें सुनील गावस्कर का नाम तो पहला था, लेकिन थोड़ा नीचे, जावेद ख़ान का भी नाम था| क़िस्मत को कुछ और ही मंज़ूर था लेकिन| उसी दौरान इनके वालिद भी गुज़र गए थे और इन्हें भी किडनी में कुछ समस्या आ गई थी| ये आगे खेल न सकें और मायूस रहने लगे| इसी कॉलेज की ड्रामैटिक सोसायटी भी बहुत अच्छी थी और जावेद के उर्दू बोल पाने के कारण, उन्हें एक नाटक में, पाक़िस्तानी सिपाही का रोल करने का मौक़ा मिला| जावेद को बहुत मज़ा आया|
“लगातार नाटक करते हुए, जावेद IPTA से जुड़े और ख़ूब मेहनत करते रहे| 1976-77 का दौर था और रामानंद सागर जी ने एक कॉन्टेस्ट रखा था और कुछ निर्माताओं के साथ मिलकर. वहां भी जावेद की ऐक्टिंग से, सब बहुत प्रभावित हुए. वहाँ इनकी मुलाक़ात, रज़ा मुराद और किरन कुमार से हुई और उन दोनों ने जावेद को पेशेवर ऐक्टर बनने की सलाह दी और इनकी ख़ूब तारीफ़ की. जावेद को इससे हौसला मिला.”
जावेद ख़ान ने रंगमंच पर ख़ूब काम किया था और सभी उनकी अदाकारी के मुरीद थे| जल्दी ही इनपर, फ़िल्मी दुनिया के लोगों की नज़र पड़ने लगी| वैसे तो छोटे किरदार मिलने इन्हें,1977 से ही शुरू हो गए थे, लेकिन 1979 में आई फ़िल्म, “नूरी”, में इन्हें बड़ा रोल मिला| फ़िल्म, यश चोपड़ा ने बनाई थी और निर्देशक मनमोहन कृष्णा थे| यहाँ से जावेद को लोग पहचानने लगे| अब ये रुकने वाले नहीं थे| साल दर साल ये कई छोटी बड़ी फ़िल्मों और रोल में नज़र आने लगे और थोड़ी ही देर में दर्शकों का एक राबता सा बन जाता था इनके किरदारों से|
80 का दशक टीवी के नाम था| जावेद ने टीवी पर भी ख़ूब काम किया| 1984 में, “ये जो है ज़िंदगी”, “नुक्कड़”, 1986 में और 1988 में, “मिर्ज़ा ग़ालिब” में ये नज़र आए| “नुक्कड़”, के क़रीम नाई को आज भी कोई नहीं भूला|
फ़िल्मों में भी ये लगातार दिखते रहे| “प्रेम रोग” से लेकर “त्रिदेव” तक, और “लगान” से लेकर “चक दे इंडिया” तक, ये हमेशा हमारी नज़रों के सामने से होकर गुज़रते रहे|
आज भी ये मुंबई के ZIMA में ऐक्टिंग सिखाते हैं| इन्होंने जो भी पाया, मेहनत से पाया और ये क्या खाते हैं, कितना सोते हैं, कब टहलते हैं और आज इनका बच्चा हंसा या नहीं, आज तक कभी किसी ख़बर का हिस्सा नहीं बना|
“लगान”, में जब आख़िर में ये चिल्ला कर कहते हैं, “हम जीत गए”, ऐसा लगता है कि पूरी क़ायनात भी उनके साथ यही दोहरा रही है और अगर उस चिल्लाने में, इनके चेहरे के भाव पर ग़ौर किया जाए तो नतमस्तक होते हुए, ये पता चल जाएगा कि ऐक्टिंग के लिए जिम जाने के अलावा, कितनी ज़्यादा चीज़े करनी पड़ती हैं और करनी चाहिए भी|
जावेद को उनकी शानदार अदाकारी के लिए मुबारकबाद|
(लेखक जाने-माने साहित्यकार, स्तंभकार, व शिक्षाविद हैं.)