डार्डन स्कूल ऑफ बिजनेस, वर्जीनिया विश्वविद्यालय के प्रो. एंड्रयू विक व्यवसायिक प्रशासनिक विषय में बहुत अनुभवी हैं।
वे बताते हैं कि लोग अक्सर अपने ऑफिस मे अपनी धार्मिक मान्यताओं को छुपाते हैं। ऐसे लोगों का मानना है कि दफ्तर मे धर्म के बारे में बात करके या अपने धर्म का प्रदर्शन और अभ्यास करने से , दोस्त या सहकर्मी इसे चर्चा का विषय बना देंगे । प्रो विक श्रद्धा, धर्म और निर्णय की जिम्मेवारियां ( faith religion and responsible decision making )
इस विषय के अभ्यासक्रम के विशेषज्ञ है। वह कहते हैं कि वास्तव में व्यापार के लिए किसी के धर्म का पालन करना, उसे प्रस्तुत करना और उसके लिए एक उदार मन होना बहुत जरूरी है। कोई भी मनुष्य के व्यक्तित्व के लिए धर्म का पालन करना बहुत महत्वपूर्ण है। एक व्यक्ति जो अपने धर्म को छुपाता है या अपने धर्म के बारे में शर्मिंदा महसूस करता है, हो सकता है कि वह सच्चे धर्म का पालन न कर रहा हो। अक्सर लोग सोचते है कि मेरे धर्म के कारण दूसरे लोग मुझ पर विश्वास नहीं करेंगे। लेकिन हकीकत कुछ और ही है।
यद्यपि युधिष्ठिर का राज्य हजारों गाँवों में था, फिर भी सभी ने उन पर विश्वास किया क्योंकि वे धर्म का पालन करते थे। उन्होंने छोटे से छोटे धार्मिक नियम का भी पालन करने की कोशिश की थी । वह सत्य के पथ पर थे । इस प्रकार की धर्म पालन की अभिरुचि व्यक्ति में एक प्रकार की चमक लाती है। लोग उसके प्रभाव को पहचानते हैं और उसका सम्मान करते हैं। आज भी ऐसे व्यक्ति हैं जिनका लोग सम्मान करते हैं। उनके वादे पर विश्वास करता है। उन्हें मान से बुलाया जाता है । उसे एक रोल मॉडल मानते है । इसके मूल में उनका निजी धार्मिक जीवन है।
पेप्सिको की सीईओ माननीय इंदिरा नूई ऐसी ही हैं। वे धार्मिक हैं और आसानी से अपने हिंदू धर्म का पालन करती हैं। पेप्सी जैसी बहुत बड़ी अंतरराष्ट्रीय कंपनी के सीईओ होने के बावजूद उन्होंने इसे बहुत अच्छे से मैनेज किया है। अपने धार्मिक आचरण के कारण आज भी कंपनी और समाज में उनकी उच्च प्रतिष्ठा है।
प्रमुख स्वामी महाराज सच्चे धर्म के अवतार थे। उन्होंने शास्त्रों में वर्णित सभी धर्मों और नियमों का पालन किया। चाहे कोई भी बीमारी आए, चाहे कितना भी कठिन समय आए या कितनी भी विपरीत परिस्थितियां क्यों न आएं, उन्होंने अपना धर्म कभी नहीं खोया। उन्होंने बहुत ही सूक्ष्म, छोटे और शायद नगण्य धार्मिक नियमों का भी पालन किया था । देश हो या विदेश, उन्होंने जहां भी यात्रा की है, उन्होंने हर जगह धर्म का पालन किया है। उनका पूरा जीवन धार्मिक था। धर्म के प्रति उनका लगाव ऐसा था कि जब वे विदेश जाते थे तो उनकी यात्रा को धर्मयात्रा माना जाता था। क्योंकि उनके चरणों में से धर्म के कण फैलते थे.
वर्ष 1980 में स्वामीजी बोस्टन में थे. यहां मोतियाबिंद बीमारी की परेशानी बढ़ जाने के कारण उन्हें एक आँख का ऑपरेशन करवाना था. साथ ही एक खराब स्थिति पैदा हो गई जिसमें ग्लोकोमा आने की संभावना थी । साधु के एक नियम के अनुसार हमें हमेशा जोड़ (अर्थात् मंदिर के बाहर कहीं जाना हो तो नियम के अनुसार हम अकेले नहीं जा सकते. हमेशा दो संतों को बाहर जाना मान्य है) में रहना होता है। स्वामीजी यहां के एक प्रसिद्ध अस्पताल के ऑपरेशन थियेटर में जा रहे थे। उनका ऑपरेशन था इसलिए यहां के नियम के मुताबिक उन्हें अकेले ही अंदर जाना था । किसी अन्य साधु को यहां प्रवेश करने की अनुमति नहीं थी। तो स्वामीजी ने आत्मस्वरुप स्वामी से कहा, ” उनकों हमारे साधु के जोड़ के नियम के बारे में बताओ।” आत्मस्वरूप स्वामी ने डॉक्टरों और प्रशासकों को साधु के जोड़ के नियम के बारे में जानकारी दी और समझाया। विदेशी डॉक्टरों आदि के लिए यह धर्म और साधु नियम नए और आश्चर्यजनक थे। काफी समझाने के बाद एक संत को स्वामीजी के साथ ऑपरेशन थियेटर में निगरानी के लिए जाने दिया गया। फिर स्वामी जी आत्मस्वरुप स्वामी को अपने साथ ले गए। वह सारी व्यवस्था देखकर दूसरी मंजिल पर आ गए।
तत् पश्चात् योगीचरण स्वामी ने स्वामीजी के साथ ऑपरेशन थियेटर मे प्रवेश किया। स्वामी जी का विचार था कि जोड़ का छोटा-सा धर्म भी कायम रखा जाए। अंत अवस्था तक स्वामी जी के सारे नियम और धर्म प्रज्वलित दीप शिखा के समान शुद्ध थे ।
वर्ष 2006 में स्वामीजी आणंद शहर में विराजमान थे । एक भक्त एक दिन सभा में प्रसाद मे दिए जानेवाले लड्डू लेकर स्वामी जी के पास आए। स्वामी जी को लड्डू दिखाए गए। सुगंधित लड्डू को गूँज और खसखस के साथ देखकर स्वामीजी संतुष्ट और प्रसन्न हुए। उसने कहा, ‘अब हम आपके थाल में खाने के लिए लड्डू रखेंगे ।’ यह सुनकर स्वामीश्री ने इशारा करते हुए मना कर दिया और कहा: ‘इसे मेरे लिए मेरे थाल में रखने की कोई जरूरत नहीं है।’ स्वामीजी व्यंजन की शुद्धता के बारे में जानते थे इसलिए उन्होंने तुरंत मना कर दिया। जब ठाकोरजी को मंदिर में भोग लगाना होता है तो ब्राह्मणों द्वारा या शास्त्रों द्वारा अनुमोदित विधि (पानी की जगह दूध या नारियल के पानी या केले के पानी से खाना बनाना) द्वारा रखे गए व्यंजन उपयुक्त माने जाते हैं । वो लड्डू उस तरह से नहीं बने थे इसलिए साधु के लिए उसे भोजन मे ग्रहण करना वर्जित है. इसलिए स्वामी जी ने तुरंत मना कर दिया। तुरंत ही उस भक्त ने अपनी गलती सुधारी और कहा, ‘हम मंदिर में वही लाएंगे जो ठाकोरजी की थाली में है।’ यह सुनकर स्वामीजी संतुष्ट हो गए।
वाल्मीकि रामायण में सीतामय्या श्री राम से कहती हैं कि,
धर्मादर्थः प्रभवति, धर्मात् प्रभवते सुखम्।
धर्मेण लभते सर्वं, धर्मसारमिदं जगत्॥
धर्म अर्थ और खुशी लाता है। सब कुछ धर्म से आता है। यह संसार धर्म का सार है। स्वामीजी जैसे सतपुरुष कलियुग में धर्म के वाहक हैं। उनके शुद्ध जीवन और पवित्र नेतृत्व से धर्म सर्वत्र व्याप्त है।
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