“स्वयं धर्मस्वरूप प्रमुख स्वामी जी महाराज का धर्माचरण” -साधु अमृतवदनदास जी

राम रावण युद्ध शुरू हो रहा था। तुरही बज रही थी। युद्ध के शौर्य के ढोल जोर जोर से बज रहे थे जिससे कायर भी बहादुर बन गए थे ।

पूरा वातावरण वीर रस से प्रचुर था। शूरवीरों की छाती गज से फूल रही थी । सभी युद्ध के लिए तैयार थे। उस समय विभीषण ने देखा कि रावण एक बहुत बड़े रथ पर खड़ा है और उसकी मूंछों को तान रहा था । जब उन्होंने भगवान राम की ओर देखा तो वे निर्भय होकर पादुका पहने जमीन पर खड़े थे। विभीषण ने अधीर होकर राम से कहा, ‘ आपके पास रथ नहीं है, आपके पास ढाल नहीं है, तो आप युद्ध कैसे जीतेंगे ?’ तब श्रीराम ने कहा, ‘जिस रथ से विजय प्राप्त होती है वह दूसरा रथ होता है। उनके शौर्य, धीर्य नाम के दो पहिए हैं। सच्चाई और शील का एक मजबूत बंधन है। बल, विवेक, दम – इन्द्रीयनिग्रह और परपकाररूपी उसके चार घोड़े हैं। वह क्षमा, दया, समता की रस्सी से रथ से बंधा हुआ है। भगवान का भजन रूप चतुर सारथी है। वैराग्य ढाल, संतोष तलवार, दान फरशी, यम और नियम जैसे अनेक बाण हैं। गुरु की पूजा एक अभेद्य ढाल है। जिसके पास इतना पवित्र रथ है, उसे कोई शत्रु नहीं हरा सकता। ‘ बहुत खूब! और वास्तव में ऐसा हुआ। पवित्र राम ने दुष्ट रावण का वध किया। तो महाभारत में कहा गया है कि यतो धर्मस्तो जय। जहां धर्म है वहां विजय है।
भीष्म, द्रोणाचार्य, कर्ण, दुर्योधन, दुशासन आदि अधर्मी थे, वे हार गए और पांडव जीत गए। इस प्रकार धर्मपरायण व्यक्ति की विजय होती है। लोग उन्हें पसंद करते हैं। उन पर विश्वास करते हैं । लोगों को अक्सर यह कहते सुना जाता है कि भले ही वे ज्यादा पैसे लेते हैं, लेकिन उनका सामान साफ-सुथरा होता है। कारण यह है कि वे धर्म के मार्ग पर चलने में भ्रमित नहीं होते हैं। आज के जमाने में लोग नकली माल बेचने से शर्माते नहीं हैं ।

ओलिवर विलियम्स और जॉन हॉक के साथ-साथ जोसेफ सुलिवन और थॉमस मैकमोहन ने कुछ धर्म पालन करने वाले व्यापारियों की व्यावसायिक नैतिकता और प्रथाओं का दस्तावेजीकरण करके उन्हें और प्रमाणभूत किया। उनका कहना है कि लोगों को धार्मिक व्यक्तियों पर ज्यादा भरोसा होता है। ऐसे कई समाजशास्त्री कहते हैं कि जीवन के किसी भी क्षेत्र में एक नेता के लिए धर्म बहुत महत्वपूर्ण है। धर्म ही मनुष्य की असली पहचान है। व्यक्ति का धर्म उनकी आंख एवं उसकी दृष्टि से जाना जाता है। उनकी चाल से पहचाना। उनकी बातों में से जाना जाता है। उनकी व्यवहार से जाना जाता है।

वर्ष 1984 में स्वामीजी अपनी अमेरिका यात्रा के दौरान ह्यूस्टन में थे। एक धर्मस्थल के मुखिया उनसे मिलने आया। बातचीत के दौरान उन्होंने उनकी गतिविधियों के बारे में बताया। धर्मस्थान के तहत चलने वाले स्कूलों और अस्पतालों के खर्च को वहन करने की योजना के बारे में उन्होंने कहा कि हम इसके लिए जुआघर (बिंगो) चला रहे हैं.’ स्वामीजी को आश्चर्य हुआ और उन्होंने पूछा, ‘क्या आपके शास्त्रों में जुए के बारे में कहीं लिखा है?’ उन्होंने कहा, ‘ऐसा कोई निर्देश नहीं है।’ स्वामीजी ने बड़े आदर और स्नेह से उनसे कहा, ‘तो क्या धार्मिक संस्था के रूप में जुआ खेलना और लोगों की हराम प्रवृत्ति को खिलाना सही है? आज अगर हम धर्म वाले ही जुआ खेलते हैं तो युवाओं के साथ भी ऐसा ही होगा कि धर्म में भी जुए की अनुमति है। इससे मनुष्य में एक प्रकार की चोरी की प्रवृत्ति उत्पन्न होती है।’ उस दरवेश के पास स्वामी जी के इस कथन का कोई उत्तर नहीं था। लेकिन उन्होंने कहा, ‘लेकिन आदमी आखिर आदमी है। उसके पास कुछ मनोरंजन होना चाहिए! ‘ स्वामीश्री ने कहा, ‘क्या उनके मनोरंजन के लिए हमारे पास कुछ और नहीं है? वह बाहर जो कुछ भी करता है, वह धर्म में नहीं करना चाहिए। धर्म तो लोगों को चोरी, जुआ, ड्रग्स, व्यसन से दूर करता ।’ स्वामीजी की ऐसी उच्च धार्मिक भावना को देखकर वह भाई अंतर्दृष्टि करने लगे ।

Swaminarayan Temple Huston

स्वामी जी ऐसे ही धार्मिक व्यक्ति थे। उन्होंने अपने जीवन के हर क्षण में धर्म को सबसे पहले रखा और दूसरों को ऐसी शुभ प्रेरणा दी।
वर्ष 1995 में मुंबई के चूनाभट्टी में अमृत महोत्सव चल रहा था। वहां लाखों श्रद्धालु आते थे। उत्सव स्थल देखते ही उन्हें पवित्र जीवन की प्रेरणा मिलती थी । एक बार एक मटका (जुआघर ) चलाने वाला व्यक्ति वहां आती है। उन्हें यहां बालनागरी, जीवनपरक प्रदर्शनी, व्यसनमुक्ति प्रदर्शनी, मंदिर आदि को देखकर बहुत प्रसन्नता होती है। वह स्वामी जी को मिलना चाहता था। सौभाग्य से उनके लिए कोई उन्हें स्वामीजी के पास ले आता है। यह भाई बहुत प्रसन्न होता है और स्वामीजी को प्रणाम करता है। उत्सव की सराहना करते हैं।

इसके बाद उन्होंने संस्था को दान देने की इच्छा जताई। स्वामीजी ने पूछा कि वह कौनसा व्यवसाय करते हैं। तो यह पता चला कि उसका पैसा एक अधर्म तरीके से आता है। स्वामीजी ने उसके अनैतिक दान को स्वीकार करने के लिए अनिच्छा दिखाई। वह भाई तो देखते रहे! उन्होंने पहली बार धार्मिक पुरुष देखा जिन्होंने अधर्म और अधर्म के पैसे को स्वीकार करने में अनिच्छा दिखाई हो । उन्होंने स्वामी जी को इस सूदखोरी और हराम धन की दुनिया में बेहद पवित्र पाया। उसी समय उन्होंने धर्म के मार्ग का अनुसरण किया और धर्म मय रूप से अर्थ कमाने का नियम लिया।

ऐसा था स्वामीजी का पवित्र नेतृत्व। इसलिए आज वे सभी दिशाओं में, सभी क्षेत्रों में, सभी क्षेत्रों मे उनका जय जय कार हो रहा है ।

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