यात्रावृत्त
डॉ. जितेन्द्र पांडेय,
17 मई, 2008 को प्रातः आठ बजे मैं आज़मगढ़ डीपो से गोरखपुर के लिए रवाना हुआ। मुझे बताया गया था कि बस के शहर में प्रवेश करने से पहले पैडलेगंज उतर जाना होगा। वहीं पर गोरखपुर विश्वविद्यालय के दो छात्र मेरी प्रतीक्षा में होंगे। मैंने वैसा ही किया। मुकेश कुमार से औपचारिकता के बाद उनके छात्रावास पर दोपहर लगभग एक बजे पहुंचा, जबकि बारह बजे विश्वनाथ प्रसाद तिवारी के आवास ‘दस्तावेज़’ पहुंचना था। विलम्ब हो रहा था। अतः तुरंत बेतियाहाता के लिए निकल पड़ा। फोन पर पता सुनिश्चित करने के बाद हम ठीक दो बजे दस्तावेज़ पहुंचे।
फोन पर पता सुनिश्चित करने व डॉ. तिवारी के आवास तक पहुंचने के बीच समयांतराल अधिक था। अतः हम लोगों को देखते ही उनके माथे की सलवटें समाप्त हो गईँ, क्योंकि हमारे पहुंचने से पहले तीन बार गलत नंबर पर मुझसे बातचीत करने की कोशिश कर चुके थे। हमें भी दोपहर की चिलचिलाती धूप में आश्रय पाकर सुकून मिला। मैं एकाएक उछल पड़ा।स्वप्न और यथार्थ के कवि मेरे सामने थे। पत्र-पत्रिकाओं, पुस्तकों में छपे चित्रों को देखकर तथा डॉ. तिवारी की शिष्या एवं मेरी सहकर्मी सुमनजी द्वारा व्यक्तित्त्व विश्लेषण सुनकर जो कल्पना मेरे मन में उभरी थी, बिल्कुल वैसा ही व्यक्तित्व मेरी आगवानी में था।
मैं स्वयं को गौरवान्वित महसूस कर रहा था, साथ ही श्रद्धेय डॉ. करुणाशंकर उपाध्याय को धन्यवाद दे रहा था, क्योंकि वही इस मुलाकात के निमित्त थे। जलपान करने के बाद डॉ. तिवारी ने मेरे बारे में संक्षिप्त पूछताछ की। शोध-प्रगति पर चर्चा प्रारम्भ करने से पहले मैंने कहा कि आपके काव्य संकलनों, आलोचकीय ग्रन्थों तथा सम्पादित पुस्तकों की भूमिकाएं पढ़कर शोध कार्य गौड़ किन्तु महानुभाव का दर्शन प्रमुख हो गया, जो अभी-अभी पूरा हुआ।
मेरी प्रतीक्षा में दोपहर दो बजे तक तिवारी जी ने भोजन नहीं किया था। उन्हें मालूम था कि 190 किलोमीटर दूर से आए व्यक्ति को भोजन की पहली दरकार होती है। आग्रह करने पर साथ आए महाशय की तरफ इशारा करते हुए मैंने कहा, ” इनके यहां भोजन हो चुका है। आप आश्वस्त रहें। “ठीक है, आप लोग बैठिए। मैं भोजन करके आता हूँ।” कहते हुए डॉ. तिवारी अंदर चले गए। अब मेरी आँखें उस सर्जक के कक्ष का निरीक्षण करने लगीं, जो उनकी सर्जना की तपोभूमि थी। प्रवेश द्वार के पास ही दीवार से सटा एक बड़ा मेज़ था, जिसके तीनों तरफ कुर्सियां रखी थीं। कमरे के बीचों बीच दो सटे लकड़ी के तख्तों पर गद्दे बिछे थे। उन पर सलीके से सफेद चादरें बिछाई गई थीं।
कमरे की दूसरी दीवार के पास एक बड़ा मेज़ था। उस पर पुस्तकों का अम्बार लगा था। शायद उन पुस्तकों को अपने मालिक की लम्बी यात्रा के बाद थकान मिटाने का इंतज़ार था। दीवार पर किसी भी देवता का कोई चित्र या मूर्ति नहीं थी।तिवारी जी के लिए यह ईश्वर में अनास्था अथवा परमेश्वर की सर्वव्यापकता का अटल विश्वास ही होगा। हाँ, बौद्धकालीन मूर्तियों से दीवार की सजावट की गई थी, जो डॉ. तिवारी की प्राचीन स्थापत्य के प्रति रूचि को दर्शाती थी। किसी भी महान सर्जक के व्यक्तित्व का प्रभाव सिर्फ उसकी सर्जना पर ही नहीं, बल्कि सम्बंधित परिवेश पर भी होता है। साहित्यकार अपने परिवेश से आंदोलित होता है और उसे अपनी रचना से प्रभावित भी करता है। यही कारण है ‘बाणभट्ट की आत्मकथा’ में हजारी प्रसाद द्विवेदी द्वारा भारत की समृद्ध नाट्य परम्परा की झलक निपुणिका जैसी कलाप्रेमी पात्र में दिखाई जाती है।सम्भवतः भारतीय नृत्य के प्रति द्विवेदी जी का भी रुझान रहा हो। डॉ. तिवारी की स्थापत्य के प्रति रूचि परम्परागत है अथवा स्वाभाविक ? यह साक्षात्कार अथवा शोध का विषय है किंतु इनकी कई रचनाओं में भारतीय स्थापत्य की व्याख्या गहराई से की गई है।
डॉ. तिवारी के व्यक्तित्व की सादगी का प्रभाव ‘दस्तावेज़’ के 101 अंक में इस प्रकार है – ‘ऐसे लोग ‘दस्तावेज़’ पर दूसरा आरोप यह लगाते हैं कि यह ठंडी और निरामिष पत्रिका है। गरम और आक्रामक होना तथा हिंसा और दूसरों का मांस भक्षण करना ऐसे लोगों की नज़र में सम्भवतः सद्गुण हो।’दस्तावेज़’ इन सबसे दूर चुपचाप अपना काम करती रही।वह भाषा की सृजनशीलता और नई रचनाशीलता को निरंतर रेखांकित करने के लिए प्रयत्नशील रही।’
बातचीत के दौरान विश्वनाथ जी के आवास के पास स्थित ‘आरा मशीन’ की आवाज़ लगातार खटक रही थी। यह मशीन दिन-रात लकड़ियों को लीलकर हमें भौतिक सुख-सुविधाएं उपलब्ध करा रही है। लकड़ियों को चीरने की आवाज़ किसी भी संवेदनशील व्यक्ति को चिंतित कर सकती है। मेरी वेदना डॉ. तिवारी को वर्षों पहले साल चुकी थी। उन्होंने अपने काव्य-संग्रह ‘बेहतर दुनिया के लिए’ में ‘आरा मशीन’ शीर्षक कविता को प्रथम कविता के रूप में रखा। बाद में यह काफी चर्चित हुई। तिवारी जी ने “आरा मशीन” की भयावहता के बारे में लिखा है- “चल रही है वह/इतने दर्प में/कि चिंगारियां छिटकतीं हैं उससे/दौड़े आ रहे हैं/अगल-बगल के यूकिलिप्टस/और हिमाचल के देवदारु/उसके आतंक में खिंचे हुए/
बातचीत का सिलसिला जारी था। मेरे साथ आए सज्जन कुर्सी पर ही गहरी नींद में सो गए। तिवारी जी के इशारा करने पर मैंने कहा ‘ सर, रात में आंधी, पानी और मच्छरों के आतंक ने इन्हें सोने नहीं दिया।’ काफी समय तक महानगरीय आपाधापी की चर्चा होती रही। प्रसंगवश मैंने कहा, ‘गुरूजी कभी मुम्बई पधारें। आपके साथ वहां के ऐतिहासिक स्थलों का भ्रमण रोमांचक और ज्ञानवर्धक होगा।’ उन्होंने बताया कि कई बार मुम्बई आने का निमन्त्रण मिला किन्तु एक घण्टे व्याख्यान के लिए इतनी लम्बी यात्रा कष्टप्रद होती है। हालांकि साहित्य अकादमी के अध्यक्ष बनने के बाद कई बार मेरी मुलाकात मुम्बई में हुई। नए रचनाकारों के लिए रिकार्डर पर ‘दो शब्द’ कहने का अनुरोध मैंने किया। बात को टालते हुए उन्होंने कहा ‘आप लोग इतनी दूर से आए हैं तो कुछ न कुछ ज़रूर करना पड़ेगा। ठहरिए, मैं आपको भेंटस्वरूप कुछ अपने काव्य संग्रह और दस्तावेज़ के पूर्व अंकों की प्रतियां देता हूँ।’ कहते हुए वे पहली मंजिल पर चले गए।कुछ ही समय में वे नीचे उतरे। उन्होंने कहा कि आप अपना रिकॉर्डर निकालकर मेरी दो कविताएं रिकॉर्ड कीजिए। रिकॉर्ड के लिए मेरा पूर्वाग्रह इस तरह फलित हुआ। ताज्जुब यह कि उन दो कविताओं में से एक कविता “आरामशीन” पर थी।
महानगर की आपाधापी पर चर्चा करते-करते बात आधुनिक प्रौद्योगिकी की तरफ मुड़ गई। समकालीन लेखन पर न के बराबर बात हुई। पुनः मिलने की बात कहकर मैंने तिवारी जी से विदा ली और मुकेश के साथ छात्रावास लौट आया। यात्रा सम्बन्धी कठिनाईयों के बावजूद डॉ. तिवारी के प्रखर व्यक्तित्त्व की धमक सदा सर्वदा के लिए मानस पटल पर अंकित हो गई।
शाम को मुकेश ने ही गोरखनाथ मंदिर देखने की योजना बनाई। इसे गोरक्षनाथ मंदिर के नाम से भी जाना जाता है। यह नाथ सम्प्रदाय का प्रमुख केंद्र है। झिलमिलाती प्रकाश-बत्तियों में मन्दिर सजा-संवरा मालूम पड़ता था। सिक्योरिटी की सघन जांच यहां भी। निहायत स्वच्छ प्रांगण। चतुर्दिक सफेद संगमरमर का साम्राज्य। इसे इतना भव्य स्वरूप ब्रह्मलीन महंत दिग्विजयनाथ के प्रयासों से प्राप्त हुआ। भीतरी कक्ष के मुख्य वेदी पर गोरखनाथ की दिव्य मूर्ति है। पास में ही इनकी चरणपादुका भी है। गोरखनाथ हठ योगी थे। माना जाता है त्रेतायुग से इस योगी ने यहां पर धूना रमाई थी, जिसकी अखंड ज्योति आज भी जल रही है। यह ज्योति ज्ञान, अखंडता और एकता की प्रतीक है। महाभारत काल में पांडवों ने राजसूय यज्ञ किया था। पांडवों की तरफ से भीम गोरखनाथ के लिए निमन्त्रण पत्र लेकर आए थे। उस समय वह ध्यानस्थ थे।अतः भीम को महीनों मठ के बाहर इंतज़ार करना पड़ा। आज भी मंदिर के बाहर भीम की विशालकाय प्रतिमा विश्राम की मुद्रा में लेटी है। प्राचीन काल से यह यौगिक साधना का प्रसिद्ध केंद्र रहा है। इसी कारण मुग़ल सम्राटों ने इस मठ को मटियामेट करने की कई बार कोशिश की।
गोरखनाथ परम ज्ञानी थे। डॉ. पीताम्बरदत्त बड़थ्वाल ने इनकी रचित 40 पुस्तकों के नाम गिनाए हैं। महापंडित राहुल सांकृत्यायन ने ‘गंगा पुरातत्त्वांक’ में वज्रयानियों के साथ-साथ गोरखनाथ पर व्यापक चर्चा की है। कहीं-कहीं कबीर-नानक आदि के साथ गोरखनाथ के संवाद का भी जिक्र मिलता है। गोरखनाथ के गुरु मत्स्येन्द्रनाथ के बारे में अनेक अनुश्रुतियां व दंतकथाएं प्रचलित हैं। ‘तंत्रालोक’ में आचार्य अभिनव गुप्त ने इन्हें ‘मच्छंद विभु’ कहकर आदर व्यक्त किया है। कहा जाता है गोरखनाथ ने अपने गुरु मत्स्येन्द्रनाथ को वामाचारी साधना से मुक्ति दिलाई थी। इस साधना में स्त्री गमन की स्वतंत्रता है।
भारत धर्म, अध्यात्म और दर्शन के लिए जाना जाता है। अनेक मत-मतांतर प्रचलित हैं किंतु सबका गंतव्य एक। सबके मूल में शांति और भाईचारा है। इन सबमें नाथ सम्प्रदाय का विशिष्ट स्थान है। इस सम्प्रदाय की मान्यता है – “सच्चिदानंद शिव के साक्षात् स्वरूप ‘श्री गोरखनाथजी ‘ सतयुग में पेशावर (पंजाब) में, त्रेतायुग में गोरखपुर (उत्तर प्रदेश), द्वापर में हरभुज, द्वारिका के पास तथा कलियुग में गोरखमधी, सौराष्ट्र में आविर्भूत हुए थे।
चारों युगों में विद्यमान एक अयोनिज अमर महायोगी, सिद्ध महापुरुष के रूप में एशिया के विशाल भूखंड तिब्बत, मंगोलिया, कंधार, अफगानिस्तान, नेपाल, सिंघल तथा सम्पूर्ण भारतवर्ष को अपने योग से कृतार्थ किया।” नाथ सम्प्रदाय के इस पावन मंदिर के परिक्रमा भाग में हमने प्रवेश किया। भगवान शिव, गणेश, पश्चिमोत्तर में काली, उत्तर में काल भैरव और इसी से सटा शिवलिंग है। उत्तरवर्ती भाग में राधा-कृष्ण मंदिर, हट्टीमाता मंदिर, संतोषी माता, राम दरबार, नवग्रह देवता, शनि, बालदेवी, भगवान विष्णु तथा अखंड धूना (ज्योति) भी है।
भीम सरोवर, जलयंत्र, कथा-मंडप यज्ञशाला, संत निवास, अतिथिशाला, गोशाला आदि यहीं स्थित हैं।संगमरमर की भित्तियों पर अर्थ सहित गोरखबानी की सबदियां लिखी गई हैं। मंदिर के ट्रस्ट की तरफ से संस्कृत विद्यापीठ, आयुर्वेद महाविद्यालय, चिकित्सालय सहित दर्ज़नों शैक्षिक संस्थाओं का संचालन किया जाता है। यहां हर साल वैसाख की पूर्णिमा को ‘रोट महोत्सव’ मनाया जाता है। मकर संक्रांति के दिन बड़ा मेला यहां की रौनक में चार चांद लगा देता है। मंदिर के प्रांगण में फोटो लेना वर्जित है। इसलिए मंदिर से निकलकर बाहर से फोटो क्लिक किया गया।
दूसरे दिन तीन छात्रों के साथ सुबह में रामगढ़ ताल के सामने साइकिलिंग करते हुए गोरखपुर के विकास पर बात उठी।छात्रों ने बताया कि शहर की प्रगति के कई महत्त्वपूर्ण प्रकल्प यहां के सबल अवांछित तत्त्वों की भेंट चढ़ रहे हैं। शासन-प्रशासन लाचार। यह विडंबना ही है कि जो भूमि ऋषियों-मुनियों की तपस्थली, बुद्ध और महावीर की कर्मस्थली, कई चक्रवर्ती राजाओं की प्रियस्थली, 1857 की क्रांति के जिम्मेदार कई महत्त्वपूर्ण केंद्रों में से एक, स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों की गढ़ तथा विद्यानिवास मिश्र, फिराक़ गोरखपुरी, परमानंद श्रीवास्तव, रामचंद्र तिवारी, राम दरश मिश्र तथा विश्वनाथ प्रसाद तिवारी जैसे मनीषी चिंतकों एवं साहित्यकारों की जन्मस्थली हो वही बाहुबलियों के नाम से अपनी पहचान बना रही है।
कमोबेश यही हश्र मेरे गृह जनपद आज़मगढ़ का भी है। नकारात्मक शक्तियों का बोलबाला। योगियों और मनीषियों की तपश्चर्या का साक्षी रहा यह जनपद, आज “आतंक की नर्सरी’ के रूप में अपनी पहचान कायम कर रहा है। दुःख व्यक्त करते हुए एक छात्र ने कहा, “गोरखपुर का अतीत समृद्ध और स्वर्णिम रहा है। वर्तमान में भी विचारक, चिंतक और प्रतिभा संपन्न लोग मानव-सेवा में लगे हैं, किंतु उन्हें कोई नहीं जानता। कलुषित राजनीति ने पूरे गोरखपुर को गंदला दिया है।” हंसते हुए मैंने कहा, ” यार ! आप ही लोग कल के नेता हैं। राजनीति का परिष्कार कर साफ-सुथरा समाज बनाना। सब अच्छा होगा। निराश न हो।” सुझाव कहकहों में बदल गया। कुछ पल के लिए शून्यता, फिर छात्रावास की तरफ लौट पड़े। आज़मगढ़ के लिए बस जो पकड़नी थी।