AnujHanumat@Navpravah.com
कहते हैं प्रेम की न तो कोई परिभाषा होती है न ही इसे किसी प्रकार के बन्धन में बांधा जा सकता है। प्रेम तो वो एहसास जो दो दिलों को आपस में जोड़ता है। इसमें आकर्षण नहीं होता बल्कि समर्पण का ऐसा भाव होता है, जिसमें डूबकर प्रेम करने वाला सबकुछ अर्पण कर देता है। प्रेम का कोई आकार नहीं होता न तो प्रेम दोनों हाथों से समेटा जा सकता है। हाँ प्रेम में एक स्वार्थ होता है, जिसके द्वारा प्रेम करने वाला अपने प्रिय को अपने पास सहेज कर रखना चाहता है।
ऐसी ही एक प्रेमिका थी कृष्णभक्त मीराबाई जिन्होंने अपना सम्पूर्ण जीवन कृष्ण भक्ति में लगा दिया। आज उन्हीं मीरा बाई का जन्मदिवस है। मीरा का जन्म राव रत्न सिंह के घर 23 मार्च 1498 ई को हुआ था।
बचपन में एक विवाह समारोह के दौरान मीरा ने अपनी माँ से पूछा की मेरा पति कौन होगा ? उनके द्वारा बार-बार पूछे जा रहे इस सवाल से परेशान माँ ने भगवान् श्रीकृष्ण का नाम ले लिया। इसके बाद मीरा ने उन्हें दिल से पति रूप में स्वीकार कर लिया। माता पिता की मृत्यु के पश्चात् उनका विवाह चित्तौड़ के प्रतापी राजा राणा सांगा के भाई भोजराज से कर दिया। विवाह के कुछ समय पश्चात् ही उनके पति का देहांत हो गया, जिसके बाद उन्होंने अपना सम्पूर्ण जीवन कृष्ण भक्ति में लगा दिया।
साधुओं के साथ कृष्ण भक्ति के गीत गाना और उसके बीच में प्रभु भक्ति में मस्त होकर झूमना उन्होंने अपनी दिनचर्या में शामिल कर लिया था। मीरा की इस प्रकार की भक्ति देखकर राणा सांगा क्रोधित हो उठे। उन्होंने उन्हें रोकने की बहुत कोशिश की किन्तु हर बार नाकामी ही हाथ लगी। अंत में उसने मीरा को मारने के उद्देश्य से विष का प्याला यह कहकर भिजवाया की यह भगवान कृष्ण का प्रसाद है। अपने प्रभु का नाम सुनकर उन्होंने उसे माथे से लगाया और पी लिया। आश्चर्य, भगवान् श्रीकृष्ण की इस भक्त पर विष का भी कोई प्रभाव नही पड़ा।
दिन प्रतिदिन विपरीत परिस्थितियों के चलते मीरा ने घर छोड़ दिया और वृन्दावन होते हुए द्वारिका आ गई। इनके हटते ही मानों चित्तौड़ पर दुःखों का पहाड़ टूट पड़ा। युद्ध के दौरा राणा सांगा मारे गए और राज्य के बिगड़ते हालात को देखकर कुछ लोग उन्हें वापस चित्तौड़ ले आए। यहीं उन्होंने अपना अंतिम व्यतीत किया और अंत में श्रीकृष्ण में ही विलीन हो गई।
कृष्णभक्त और श्रद्धा से भरे रचना के लिए आज भी मीराबाई का नाम आदर से लिया जाता है। मीराबाई बहोत बड़ी कृष्ण भक्त संत कवियित्री थी। मीराबाई ने स्वयं के जीवन में बहोत दुख सहा था। राजघराने में जन्म और विवाह होकर भी मीराबाई को बहुत दुख झेलना पड़ा। इस वजह से उनमें विरक्तवृत्ति बढ़ती गयी और वो कृष्णभक्ति की तरफ खिची चली गयी।
मीराबाई पर अनेक भक्ति संप्रदाय का प्रभाव था। इसका चित्रण उनकी रचनाओं में दिखता है। ‘पदावली’ ये मीराबाई की एकमात्र, प्रमाणभूत काव्यकृती है। ‘पायो जी मैंने रामरतन धन पायो’ ये मीराबाई की प्रसिद्ध रचना है, ‘मीरा के प्रभु गिरिधर नागर’ ऐसा वो खुद का उल्लेख करती है।
मीराबाई की भाषाशैली में राजस्थानी, ब्रज और गुजराती का मिश्रण है। पंजाबी, खड़ीबोली, पुरबी इन भाषा का भी मिश्रण दिखता है। मीराबाई की रचनाएँ बेहद भावपूर्ण हैं। उनके दुखों का प्रतिबिंब कुछ पदों में उभरके दीखता है। गुरु का गौरव, भगवान की तारीफ, आत्मसर्मपण ऐसे विषय भी पदों में हैं। पूरे भारत में मीराबाई और उनके पद ज्ञात है। मराठी में भी उनके पदों का अनुवाद हुआ है। उनके जन्म काल के बारे में ठीक से जानकारी नहीं है फिर भी मध्यकालीन में जन्मी भारत की श्रेष्ठ संत कवियित्री आज भी आदर की पात्र हैं।
किसी लेखक ने सच ही लिखा है कि –
‘ मीरा …जब भी सोचने लगता हूँ बेहद भटकने लगता हूँ …मीरा प्रेम की व्याख्या है प्रेम से शुरू और प्रेम पर ही ख़त्म …प्रेम के सिवा और कहीं जाती ही नहीं। वह कृष्ण से प्यार करती है तो करती है। ऐलानिया …औरों की तरह छिपाती नहीं, घोषणा करती है …चीख चीख कर …गा -गा कर …उस पर देने को कुछ भी नहीं है सिवा निष्ठा के और पाना कुछ चाहती ही नहीं। उसके लिए प्यार अर्पण है, प्यार तर्पण है, प्यार समर्पण है, प्यार संकल्प है, विकल्प नहीं।
‘ मीरा …जब भी सोचने लगता हूँ बेहद भटकने लगता हूँ …मीरा प्रेम की व्याख्या है प्रेम से शुरू और प्रेम पर ही ख़त्म …प्रेम के सिवा और कहीं जाती ही नहीं। वह कृष्ण से प्यार करती है तो करती है। ऐलानिया …औरों की तरह छिपाती नहीं, घोषणा करती है …चीख चीख कर …गा -गा कर …उस पर देने को कुछ भी नहीं है सिवा निष्ठा के और पाना कुछ चाहती ही नहीं। उसके लिए प्यार अर्पण है, प्यार तर्पण है, प्यार समर्पण है, प्यार संकल्प है, विकल्प नहीं।
मीरा कृष्ण की समकालीन नहीं हैं, वह कृष्ण से कुछ नहीं चाहती न स्नेह, न सुविधा, न वैभव, न देह, न वासना केवल उपासना। उसे राजा कृष्ण नहीं चाहिए, उसे महाभारत का प्रणेता विजेता कृष्ण नहीं चाहिए, उसे जननायक कृष्ण नहीं चाहिए, उसे अधिनायक कृष्ण नहीं चाहिए। मीरा को किसी भी प्रकार की भौतिकता नहीं चाहिए। मीरा को शत प्रतिशत भौतिकता से परहेज है। मीरा को चाहिए शत प्रतिशत भावना का रिश्ता, वह भी मीरा की भावना।
मीरा के प्यार में न अभिलाषा है न अतिक्रमण। मीरा प्यार में न अशिष्ट होती है न विशिष्ठ होती है। मीरा का प्यार विशुद्ध प्यार है कोई व्यापार नहीं। जो लोग प्यार देह के स्तर पर करते हैं मीरा को नहीं समझ पायेंगे’
मीरा ने सच जी कहा था कि-
” प्रेम तो गीत है
मधुर आत्मा से गाये जाओ.!”
मीरा ने सच जी कहा था कि-
” प्रेम तो गीत है
मधुर आत्मा से गाये जाओ.!”