नितीश कुमार मिश्र | नवप्रवाह डॉट कॉम
मिथिलांचल अपनी सभ्यता, संस्कृति व पर्व-त्योहारों की पुनीत परंपरा को लेकर सदैव ही प्रसिद्ध रहा है। यौगिक काल से ही मिथिलांचल में पर्व-त्योहारों की अलौकिक परम्परा रही है। इन पर्वों में धार्मिक व ऐतिहासिक मान्यताएं तथा प्रकृति उपासना जुड़ी रहती है। यही मान्यताएं हमारी सांस्कृतिक चेतना को अक्षुण्ण रखती है।भाद्रपद माह के शुक्ल पक्ष की चतुर्थी तिथि (चौठ) को गणेश चतुर्थी मनाई जाती है और इसी दिन शाम में पूजा की जाती हैं चौठचन्द्र की जिसे हम आम बोल चाल की भाषा में चौरचन भी कहते हैं।
इस तिथि को चंद्रमा को देखना दोष है। इसलिए पूरे भारत में इस दिन चंद्रमा का दर्शन करने से लोग परहेज करतें हैं। माना जाता हैं कि इस दिन का चंद्र दर्शन मिथ्या कलंक देने वाला होता है, लेकिन मिथिलांचल का क्षेत्र ही एकमात्र ऐसा क्षेत्र है, जहां इस पर्व को भरपूर उत्साह से पूजा-अर्चना कर मनाया जाता है। लोग चंद्रमा के दर्शन करते हैं ¨सह प्रसेन…मंत्र पढ़ते हुए उन्हें अर्घ्य देते हैं।
मान्यता के अनुसार, चांद ने भगवान गणेश की सूरत देख उनका मजाक उड़ा दिया था। इससे गणपति क्रोधित हो उठे थे एवं उन्होंने चंद्रमा को श्राप दिया कि आज की रात अगर किसी ने तुम्हारी सूरत देख ली, तों वह किसी माध्यम से कलंकित हों जायेगा। इस से भयभीत चंद्रमा ने गणपति से क्षमा मांगी पर वह नहीं मानें। फिर शुक्ल पक्ष चतुर्थी को उन्होंने विधिवत गणपति की पूजा की फिर उनकी पूजा से प्रसन्न होकर उन्होंने ने अपने श्राप से मुक्त किया और वरदान दिया कि आज के दिन जो भी व्यक्ति मेरे साथ साथ चंद्रमा की पूजा करेंगा वह कलंक के प्रभाव से मुक्त हो जायेगा। बारिश एवं बादलों से घिरे चंद्रमा के दर्शन इस दिन काफी मुश्किल भरे होते हैं।
इससे संबंधित एक कहावत मिथिला में काफी प्रचलित भी है। जैसे इस दिन चंद्रमा थोड़ी देर रहकर बादलों में छुप जाते हैं, वैसे ही जब कोई व्यक्ति बहुत दिनों बाद मिलता हैं तो कहा जाता है “अलखख चांद”।
एक कहानी और है जिसके अनुसार 16वीं शताब्दी से ही मिथिला में ये लोक पर्व मनाया जा रहा है। मिथिला नरेश महाराजा हेमांगद ठाकुर के कलंक मुक्त होने के अवसर पर महारानी हेमलता ने कलंकित चांद को पूजने की परंपरा शुरु की, जो बाद में मिथिला का लोकपर्व बन गया है।
सूर्यास्त होने और चंद्रमा के प्रकट होने पर घर के आंगन में सबसे पहले अरिपन (मिथिला में कच्चे चावल को पीसकर बनाई जाने वाली अल्पना या रंगोली) बनाया जाता है। उस पर पूजा-पाठ की सभी सामग्री रखकर गणेश तथा चांद की पूजा करने की परंपरा है। इस पूजा-पाठ में कई तरह के पकवान जिसमें खीर, पूड़ी, पिरुकिया (गुझिया) और मिठाई में खाजा-लड्डू तथा फल के तौर पर केला, खीरा, शरीफा, संतरा आदि चढ़ाया जाता है।
चौरचन पूजा यहां के लोग सदियों से इसी अर्थ में मनाते आ रहे हैं। पूजा में शरीक सभी लोग अपने हाथ में कोई न कोई फल जैसे खीरा व केला रखकर चांद की अराधना एवं दर्शन करते हैं। चैठचंद्र की पूजा के दैरान मिट्टी के विशेष बर्तन, जिसे मैथिली में छाछी कहते हैं, में दही जमाया जाता है। इस दही का स्वाद विशिष्ट एवं अपूर्व होता है।
घर की बुजुर्ग स्त्री या व्रती महिला आंगन में बांस के बने बर्तन में सभी सामग्री रखकर चंद्रमा को अर्पित करती हैं, यानी हाथ उठाती हैं। इस दौरान अन्य महिलाएं गाना गाती हैं ‘पूजा के करबै ओरियान गै बहिना, चौरचन के चंदा सोहाओन।’ यह दृश्य अत्यंत मनोरम होता है।
माता सीता के इस देश में प्रकृतिक पूजन की परंपरा आधुनिक युग से चलती आ रही है। चाहें वह छठ पर्व में भगवान भास्कर को अर्घ्य देना हो, चौरचन में शापित चंद्र को पूजना या फिर कार्तिक पूर्णिमा में “कोजागर” मनाना
किंवदंती एवं कहानियों के इस देश में आस्था भी भरपूर है। छोटी-छोटी कहानियों से उत्पन्न यह सभी पर्व-त्यौहार हमारे लिए कुछ नवीन ज्ञान लेकर आते हैं।