अनुज हनुमत,
हमारे देश को स्वतंत्रता मिले करीब सात दशक का समय हो गया है। इस बीच दुनिया के सबसे ऊँचे पर्वत एवरेस्ट से लेकर अंतरिक्ष तक तिरंगा लहराया गया। शिक्षा, विज्ञान, व्यापार जैसे क्षेत्रों में भारतीयों ने दुनियाभर में अपना लोहा मनवाया है, पर इतना काफी नहीं है। आस्ट्रेलिया के मानवाधिकार समूह ‘वॉक फ्री फाउंडेशन’ ने वैश्विक दासता सूचकांक (ग्लोबल स्लेबरी इंडेक्स) जारी किया है, जो देश के विषय में एक शर्मनाक हकीकत से पर्दा उठाता है। सूचकांक के मुताबिक़, आधुनिक दासता के मामले में भारत दुनिया में शीर्ष पर है।
आजादी के इतने वर्षों बाद भी यहाँ 1.8 करोड़ लोग अभी गुलामी की जंजीरो में जकड़े हुए हैं और इसका शिकार अधिकतर बच्चे हैं। ये उक्त सूचकांक 167 देशों के 42 हजार प्रतिभागियों से बात कर तैयार किया गया है। इस सूचकांक को 15 भारतीय राज्यों और 80 फीसदी जनसंख्या से इस विषय पर बातचीत करके जारी किया गया, जिसमें 58℅ लोगो ने केवल भारत, चीन, पाकिस्तान, बांग्लादेश और उज़्बेकिस्तान से भाग लिया।
इस रिपोर्ट के अनुसार मौजूदा समय में पूरे विश्व में 4.58 करोड़ लोग आधुनिक दासता का शिकार हैं। रिपोर्ट के अनुसार, इस समय भारत देश में लगातार हो रहा है मानवधिकारों का हनन।
वैश्विक स्थिति –
1.भारत -1.80 करोड़ बंधुआ लोग
2.चीन -0.33 करोड़ बंधुआ लोग
3.पाकिस्तान-0.21 करोड़ बंधुआ लोग
4.बांग्लादेश -0.15 करोड़ बंधुआ लोग
5.उज़्बेकिस्तान-0.12 करोड़ बन्धुआ लोग
6.उत्तर कोरिया -0.11 करोड़ बंधुआ लोग
7.रूस -0.104 करोड़ बंधुआ लोग
आधुनिक दासता को ऐसी स्थिति के रूप में परिभाषित किया गया है, जहाँ व्यक्ति अत्याचार सहने को मजबूर है। वह चाह कर भी इसके लिए मना नहीं कर सकता और ना ही इसे छोड़ सकता है। उसे धमकाकर, प्रताड़ितकर, शक्ति के दुरूपयोग से उसकी मर्जी के विरुद्ध काम करवाया जाता है। बच्चों का शोषण भी इसी श्रेणी में आता है।
कम उम्र के बच्चे सर्वाधिक पीड़ित-
दुनिया के सर्वाधिक आबादी वाले क्षेत्र एशिया की कुल जनसंख्या के दो तिहाई लोग गुलामी करने को मजबूर हैं, जिसमे भारत में गरीबी, जातीय भेदभाव, लैंगिक अनुपात में भारी अंतर के चलते गुलामी झेलने को मजबूर हैं लोग, इनमें घरेलू नौकरों के रूप में बच्चे सर्वाधिक पीड़ित हैं। भारत में भी सबसे ज्यादा स्थिति बुन्देलखण्ड की ख़राब है, जहाँ बाल मजदूरी सबसे ज्यादा देखने को मिलती है।
इस रिपोर्ट के आते ही एक बार फिर ये बहस तेज हो गई है कि क्या वास्तव में विकासशील देशों में मानवाधिकार के प्रति सरकारें चिंतित हैं ! क्योंकि एक तरफ इस पूंजीवादी अर्थव्यस्था के दौर में हर छोटे बड़े देश द्वारा विकास की अधाधुंध दौड़ लगाई जा रही है और इसी दौड़ में मनुष्य के ‘मानवाधिकार मूल्य’ विकास के घूमते पहिये के नीचे दम तोड़ते नजर आ रहे हैं। ये सोचने वाली बात है कि क्या स्वतंत्रता मिलने के सात दशक बाद भी आज वास्तव में हम स्वतंत्र हो पाये हैं ? या जमीनी हकीकत कुछ और ही है ? कौन है इसका जिम्मेदार ?