“साथ-साथ (1982)” -आदर्श और वास्तविकता के द्वंद को दर्शाती बेहतरीन फ़िल्म

डॉ० कुमार विमलेन्दु सिंह | Cinema Desk

आदर्श, सिद्धांत और सुनीति, सुविधा और संपन्नता में, ये बहुत देर ज़िंदा नहीं रह पाते और जैसे ही संघर्ष और युद्ध से थके शरीर को आराम और उपलब्धता की नर्माहट मिलती है, युद्ध क्षेत्र में वापस जाना, संघर्ष पथ पर पुनः यात्रा आरंभ कर पाना, दुष्कर और कठिन हो जाता है। विद्रोह के काल में जब आवश्यकताएं हर क्षण आपको क्षीण करने को तैयार रहती हैं, अपने उसुलों पर बने रहना कोई आसान बात नहीं होती। इसके क्या परिणाम होते हैं, व्यक्ति विशेष पर, समाज पर, परस्पर संबंधों पर, इसी की पड़ताल करती, एक फ़िल्म, “साथ-साथ”, 1982 में आई।

“साथ-साथ”, उस दौर की फ़िल्म थी, जब विषय वस्तु को मुनाफ़े से ज़्यादा तरजीह दी जाती थी। इसके निर्माता दिलीप धवन थे, जो एक अच्छे अभिनेता भी थे और दूरदर्शन के धारावाहिक, “नुक्कड़” में, उनके द्वारा निभाया गया, “गुरू” का किरदार, आज भी लोगों को याद है। फ़िल्म का निर्देशन, रमन कुमार ने किया था।

दिलीप धवन

फ़िल्म के नायक फ़ारूक़ शेख़ (अविनाश), एक आदर्शवादी युवक होते हैं, जो एक बहुत बड़े परिवार से होते हैं, लेकिन अपने पिता से वैचारिक मतभेद होने के कारण, घर छोड़कर, M.A. की पढ़ाई कर रहे होते हैं और बहुत अच्छी, आदर्शवादी कविताएं भी लिखते हैं।

कॉलेज मे ही, गीता (दीप्ति नवल), जो कि एक बहुत बड़े बिज़नेसमैन की बेटी होती हैं, फ़ारूक़ शेख़ (अविनाश) से मिलती हैं और उनके विचारों से बहुत प्रभावित होती हैं। दोनों में प्रेम होता है और  गीता (दीप्ति नवल), अपने पिता का घर छोड़, अविनाश से शादी कर लेती हैं।

‘फारुख शेख़’ और ‘दीप्ति नवल’

एक छोटे से प्रकाशन कंपनी के साथ अविनाश काम करते हैं, जहाँ, साहित्य के स्तर के साथ कोई समझौता नहीं किया जाता, लेकिन उससे पैसे भी नहीं आते। इनके एक बच्चा होता है और आवश्यकताएं, आदर्श प्रेम को लगातार ख़त्म करने लगती हैं। बहुत मजबूर हो कर, अविनाश, अपने मित्र, सतीश शाह की प्रकाशन कंपनी से जुड़ जाता है जहाँ सस्ता और अभद्र साहित्य छपता है, लेकिन पैसे बहुत आते हैं।

अविनाश कविताओं की आदर्श दुनिया से निकलकर एक व्यापारी की तरह सोचने लगता है। ये सब गीता को बहुत दुखी करता है और वो उसे छोड़ कर चली जाती है। अविनाश को अपनी ग़लती समझ आ जाती है, और वो वापस अपने सिद्धांतो से जुड़ जाता है। गीता भी वापस आ जाती है।

“इस फ़िल्म का सबसे सुन्दर पक्ष है, इसका संगीत। इस फ़िल्म के गीत “प्यार मुझसे जो किया तुमने, तो क्या पाओगे”, “ये तेरा घर, ये मेरा घर”, “यूं ज़िंदगी की राह में”, आज तक हमारे जीवन में आदत की तरह ज़िंदा हैं और ये किसी जादू जैसा है। इस जादू जगाते संगीत के संगीतकार, कुलदीप सिंह हैं, जिन्होंने ऐसा जादू बुना, कि हम आज तक उससे निकल ही नहीं पाए।”

गीत, जावेद अख़्तर ने लिखे हैं। जगजीत सिंह और चित्रा सिंह की आवाज़ ने सभी गानों को आज तक जवान रखा है।

राकेश बेदी, नीना गुप्ता और ए० के० हंगल जैसे कलाकारों के सधे अनुभव ने फ़िल्म को यादगार बना दिया है।

पूरे 2 घंटे 25 मिनट की इस फ़िल्म ने आदर्श और वास्तविकता के द्वंद को दिखाया है और भारत के बेहतरीन फ़िल्मों की सूची में इसे हमेशा रखना चाहिए।

(लेखक जाने-माने साहित्यकार, फ़िल्म समालोचक, स्तंभकार, व शिक्षाविद हैं.)

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