डॉ० कुमार विमलेन्दु सिंह | Editorial Desk
द्वितीय विश्व युद्ध का पूरी दुनिया पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ा और जीवन के हर आयाम ने परिवर्तन का अनुभव किया। कलात्मक अभिव्यक्तियों में भी नई प्रवृत्तियां दिखीं और चूंकि सिनेमा भी ऐसी ही अभिव्यक्ति के सशक्त माध्यम के रूप में उभर रहा था, उसमें भी कई परिवर्तन आए। इटालियन नवयथार्थवाद, एक आंदोलन के रूप में उभरा और इसका प्रभाव इतना दूरगामी था कि भारत में भी सिनेमा, इससे अछूता न रहा।
सिनेमा में नव यथार्थवाद के आंदोलन की भूमि इटली थी और इसकी शुरुआत, “सिनेमा” नाम के एक पत्रिका के कुछ संपादक, विसोन्ती/ विस्कोन्ती, पुक्किनी, ज़ावात्तिनी ने अपने साथियों के साथ मिलकर किया। ये सिनेमाई आंदोलन 1943-1952 तक अपने चरम पर रहा और इसे फ़िल्मों का सुनहरा दौर (Golden Age) भी कहा गया। ये एक राष्ट्रीय आंदोलन था और इसके अंतर्गत जो फिल्में बनाई जा रही थीं, उन्हें मज़दूरों की बस्ती, ग़रीबों की बस्ती, सुदूर ग्रामीण क्षेत्रों में शूट किया जा रहा था और बहुत ज़्यादा अभिनेता जो इन फ़िल्मों में काम करते थे, वे पेशेवर नहीं थे। इन फ़िल्मों में ग़रीबी, शोषण, अन्याय और बेचैनी को दिखाने की कोशिश की गई।
किसी भी काल, स्थिति, समाज और देश में, दो प्रमुख और विपरीत विचारधाराएं आपस में टकराती रहती हैं और इन्हीं के बीच सृजन के अवसर निकलते हैं। द्वितीय विश्व युद्ध के पहले तक, इटालियन सिनेमा में जो दो विचारधाराएं, प्रवृतियां या विधियां थीं, वे थीं, “टेलीफ़ोनी बियांकी” और “कैलिग्राफ़िज़्मो”।
“टेलीफ़ोनी बियांकी” अमरीकी कॉमेडी का अनुकरण थी, जिसमें ऐसे घर/परिवार दिखाए जाते थे, जो संपन्न थे और जिनके यहां सफ़ेद टेलीफ़ोन सेट होते थे, जो संपन्नता के द्योतक थे। यहीं से ये नाम “टेलीफ़ोनी बियांकी”, लिया गया। दूसरी तरफ़ “कैलिग्राफ़िज़्मो”, के अंतर्गत की जाने वाली प्रस्तुतियों में कलात्मक गूढ़ता होती थी। नवयथार्थवाद, “कैलिग्राफ़िज़्मो” को सरल रूप में प्रस्तुत करने का पक्षधर था।
बस्तियों, झुग्गियों और ग्रामीण क्षेत्रों में सेटिंग करना उस दौर के फ़िल्मकारों की मजबूरी भी थी और ज़रूरत भी। मजबूरी इसलिए कि इटली का मशहूर “सिनेसिटा”, जो कि एक फ़िल्म सिटी जैसा प्रसार था, युद्ध की बमबारी में ध्वस्त हो गया था। ज़रूरत इसलिए कि यथार्थ की प्रस्तुति के लिए, स्टूडियो के बाहर की दुनिया बेहतर थी। जो फ़िल्मकार इस दौर को अपनी कला से सजा रहे थे, उनमें प्रमुख थे, फ़ेलीनी, रोसेलीनी और दे सीका।
इन तीन फ़िल्मकारों में से जिसका सबसे ज़्यादा प्रभाव भारतीय सिनेमा पर पड़ा, वो थे दे सीका। 1948 में आई, दे सीका की फ़िल्म “बायसाइकल थीव्स”, ने विश्व सिनेमा पर बहुत गहरा असर डाला और ये कहने की ज़रूरत नहीं कि भारतीय सिनेमा भी इससे प्रभावित हुए बिना न रह सका। इस फ़िल्म में एक मजदूर, अपनी साइकिल में ताला लगाना भूल जाता है, उसकी साइकिल चोरी हो जाती है और अपने बेटे के साथ, साइकिल खोजने के लिए वो कई जगहों पर जाता है और हर जगह उसे निराशा मिलती है। अंत में वो एक साइकिल चुराने की कोशिश करता है और पकड़ा जाता है, फिर छूट भी जाता है लेकिन अपने बेटे से लज्जित, चुपचाप चलता जाता है। लैम्बर्टो मैज्जियोरानी और एन्ज़ो स्टायोला के शानदार अभिनय ने दर्शकों को बहुत भावुक कर दिया।
भारत के महान फ़िल्मकार सत्यजीत रे की “अपू ट्रायलॉजी” और बिमल रॉय की “दो बीघा ज़मीन” सरीखी महान फ़िल्में, इसी इटालियन फ़िल्म से बहुत हद तक प्रभावित हैं। दे सीका का सबसे ज़्यादा असर, राज कपूर की फ़िल्मों पर देखा जा सकता है। “बायसाइकल थीव्स” का असर तो “आवारा”, “श्री 420” में दिखता ही है। 1946 में दे सीका की फ़िल्म “शूशिया” या “शूशाइन” से प्रेरित हो कर, राज कपूर ने इसका भारतीय संस्करण “बूट पॉलिश” के रूप में बना डाला।
किसी भी आंदोलन का असर या कोई भी प्रवृत्ति पूर्णतः ख़त्म नहीं होती, नवयथार्थवाद भी समय समय पर भारतीय सिनेमा में दिखता रहता है। नई पीढ़ी के फ़िल्मकार, अनुराग कश्यप की “गैंग्स अॉफ़ वासेपुर” में भी ये प्रवृत्ति दिखी है।
आज कल वेब सीरीज़ के दौर में भी कई लोग नवयथार्थवाद के अंतर्गत की गई प्रस्तुतियों का अनुकरण करने की कोशिश करते हैं लेकिन नग्नता और हिंसा परोस कर जल्दी प्रसिद्धि पाने की ललक में उनका यथार्थ फ़िसल कर फंतासी की दुनिया में चला जाता है।
(लेखक जाने-माने साहित्यकार, स्तंभकार, व शिक्षाविद हैं.)