डॉ० कुमार विमलेन्दु सिंह | Navpravah Desk
हिन्दी सिनेमा के हर दौर में, बेहतरीन नायकों के साथ शानदार खलनायकों को भी अपना परचम लहराते देखा गया है| प्राण, प्रेम चोपड़ा, अमरीश पुरी, अमजद ख़ान और भी कई नाम हैं, जिन्हें कोई भी दर्शक हमेशा याद करेगा| इनकी अदाकारी में इतना दम था कि आज तक इनमें से कई अपने पर्दे के नाम से ही याद किए जाते हैं| इन सभी के पहले, जिस अदाकार ने खलनायक की परिभाषा को अपने ढंग से परिभाषित किया और जिसकी संवाद शैली में ज़मींदारों का रौब भी था और एक ख़ानदानी रईस की नफ़ासत भी, उसका नाम था कृष्ण निरंजन सिंह या के०एन० सिंह|
के०एन० सिंह का जन्म, 1908 में, देहरादून में हुआ| इनके पिता, चांदी प्रसाद सिंह, राजपरिवार के राजकुमार थे और एक मशहूर वकील भी| इनके पिता चाहते थे कि के०एन० सिंह भी वकील बनें|
” के०एन० सिंह को खेल कूद में बहुत दिलचस्पी थी और ये बेहद अच्छे खिलाड़ी थे. इन्होंने वकालत की पढ़ाई तो की लेकिन इस पेशे के झूठ और सच को बेहद क़रीब से, अपने पिता की पेशेवर ज़िंदगी में देखा. इसके बाद ये ठान लिया कि अब वे खेल कूद पर ही ध्यान देंगे.”
के०एन० सिंह इतने अच्छे खिलाड़ी थे, जैवेलिन थ्रो और शॉटपुट के, कि, 1936 के बर्लिन ओलंपिक में, इनका जाना, लगभग तय हो गया था, लेकिन क़िस्मत को कुछ और ही मंज़ूर था| इसी साल इनकी बहन कलकत्ते में बीमार पड़ीं, और इन्हें वहाँ जाना पड़ा|
कलकत्ता में इनकी मुलाक़ात पृथ्वीराज कपूर से हुई, जो इनके पारिवारिक दोस्त भी थे| पृथ्वीराज कपूर ने के०एन० सिंह की मुलाक़ात देबकी बोस से करवाई| ये 1936 की बात है| इसी साल अपनी फ़िल्म, “सुनहरा संसार” में, के०एन० सिंह को अपना पहला काम मिला| 1938 में “बाग़बान”, से के०एन० सिंह एक स्थापित खलनायक बन गए|
इसके बाद तो “सिकंदर”, “ज्वार भाटा”, “आवारा”, “हुमायुं” और कई फ़िल्में, एक के बाद एक इन्हें मिलती रहीं और एक शानदार आवाज़, असरदार नज़र और सूट बूट वाले खलनायक के रूप में इनकी शोहरत लगातार बढ़ती रही| “ज्वार भाटा”, 1944 में आई थी और ये दिलीप कुमार की पहली फ़िल्म थी|
70 के दशक तक, ये लगातार काम करते रहे| “हाथी मेरे साथी”, “मेरे जीवन साथी”, “रेशमा और शेरा”, “रफ़ूचक्कर” और भी कई फ़िल्मों में इन्होंने काम किया| 1986 में आई, “वो दिन आएगा”, इनकी आख़िरी फ़िल्म थी|
के०एन० सिंह, बहुत भाषाएं जानते थे| लैटिन इन्होंने, विषय के तौर पर पढ़ी थी और रशियन भी बोल लेते थे| फ़िल्म, “आवारा”, बहुत मशहूर हुई थी और रूस में दर्शकों ने इसे बहुत ज़्यादा पसंद किया था| फ़िल्म की डबिंग जब हो रही थी, के०एन० सिंह, एकमात्र कलाकार थे जिन्होंने अपनी आवाज़ में ही रशियन भाषा में डब किया|
बाद के दौर में प्राण के अलावा किसी और खलनायक ने वो नफ़ासत भरी अदायगी नहीं दोहराई| सन् 2000 में के०एन० सिंह गुज़र गए, लेकिन उनकी शानदार अदाकारी को भूलना मुमकिन नहीं|
(लेखक जाने-माने साहित्यकार, स्तंभकार, व शिक्षाविद हैं.)