डॉ. कुमार विमलेन्दु सिंह | Navpravah Desk
“इश्क़ में गुफ़्तगू मुझको,
सहल रही तब तक
मतले से मक़ते के दरम्यां,
ग़ज़ल रही जब तक|”
–विमलेन्दु
“क़सीदा” से शुरू होकर “ग़ज़ल” बन जाने तक, अल्फ़ाज़ों का सफ़र बेहद दिलचस्प है और ग़ज़लों का ज़िंदगी में, इस क़दर शामिल हो जाने का क़िस्सा भी|
अरब के देशों से जब क़सीदा पढ़ने का चलन, एक तवील सफ़र के बाद हमारे देश पहुंचा, उसमें काफ़ी तब्दीलियां हो चुकी थीं और ग़ज़ल नमूदार हो चुकी थी| इस बीच जो हुआ वो तफ़सील से कहने वाली एक कहानी है लेकिन जो इसके बाद हुआ, उसने ग़ज़लों को हर ज़ुबान और हर दिल तक पहुंचाया|
मीर, ग़ालिब, मोमिन, ज़ौक़ के दीवानों से निकल कर बहादुरशाह ज़फ़र के क़िले के मुशायरों से होते हुए, जब अश’आर तवायफ़ों के कोठों तक पहुंचे, तब इन्हें “मुजराई ग़ज़ल” के नाम से जाना गया और जो सबसे बेहतरीन बात हुई, वो थी, अल्फ़ाज़ों को मौसिक़ी का साथ मिलना| ये कहना भी ग़लत न होगा कि ग़ज़लें यहीं से मशहूर हुईं|
उर्दू के अदीबों ने इसे संभाले रखा और जब हमारे यहाँ (भारत में) सिनेमा आया और उसमें मौसिक़ी को जगह मिली, ग़ज़लों का दायरा और बड़ा हो गया और ये हर ख़ास और आम शख़्स के ज़िंदगी का हिस्सा बन गईं|
फ़िल्मों में ग़ज़लों का इस्तेमाल होता आया था लेकिन ये सारे ग़ज़ल बीते ज़माने के बड़े शायरों के हुआ करते थे, मसलन ग़ालिब, मीर वगैरह के| बाद में भी जिन शायरों की ग़ज़लों को फ़िल्मों में लिया गया, वो फ़ैज़, साहिर, जानिसार अख़्तर, मजरूह जैसे बड़े अदीब थे, जिनको समझने के लिए दिमाग़ के मशक़्कत और तालीम के असर की ज़रूरत थी| लेकिन 80 के दशक के शुरूआत से ही ऐसी ग़ज़लें फ़िल्मों के लिए लिखी जाने लगीं जिसके मायने सब को समझ आने लगे, और ऐसे शायरों में जावेद अख़्तर और गुलज़ार का नाम आता है, कुछ ऐसे गुलूकार हुए जिनकी आवाज़ सबको जानी पहचानी सी लगी| जगजीत सिंह, भुपिन्दर, ग़ुलाम अली जैसे फ़नकारों का नाम इस फ़ेहरिस्त में आता है, लेकिन बस वाहिद नाम है, जिसकी मौसिक़ी ने ग़ज़लों को उम्र बख़्शी और हमेशा के लिए सबकी ज़िंदगी के पुरसुकून लम्हों में शामिल कर दिया| वो नाम है, कुलदीप सिंह जी का|
1982 में फ़ारूक़ शेख़ और दीप्ती नवल ने फ़िल्म साथ-साथ में काम किया और इस फ़िल्म में एक ग़ज़ल थी, जिसे जगजीत सिंह जी ने गाया था और शायर जावेद अख़्तर थे, इस ग़ज़ल में जो सुकून और रुमानियत भरी मौसिक़ी थी, वो कुलदीप सिंह जी की ही थी| वो ग़ज़ल थी, “तुमको देखा तो ये ख़याल आया”| जिसे भी ज़रा भी दिलचस्पी है ग़ज़लों में वो आज भी ये ग़ज़ल ज़रूर सुनता है| ग़ज़ल गायकी में बेशक मेहदी हसन और बेग़म अख़्तर का कोई सानी नहीं, लेकिन ये ग़ज़ल आवाम के दिल और दिमाग़ में चस्पा हो गई|
कुलदीप सिंह जी ने 1986 में आई फ़िल्म अंकुश में भी अपने हुनर का जादू दिखाया और इसका एक गाना, “इतनी शक्ति हमें देना दाता”, इतना मक़बूल हुआ कि आज भी कई बैंकों में इसे बतौर थीम सौंग रखा गया है| इन्होंने IPTA के लिए लगातार काम किया और 2009 में इन्हें संगीत नाटक अकादमी अवार्ड से भी नवाज़ा गया| इनके बेटे जसविंदर सिंह भी एक मशहूर ग़ज़ल गायक हैं|
वैसे तो कई लोगों ने बहुत अच्छा काम किया ग़ज़लों और मौसिक़ी की दुनिया में लेकिन जिन्होंने आज़ाद हिंदुस्तान में ग़ज़लों को सबका बनाया और सब को ग़ज़लों से आशना किया, उनमें कुलदीप सिंह जी का नाम हमेशा लिया जाएगा|
उनके लिए उनके ही बनाए हुए सुर-ताल में डूबे अल्फ़ाज़,
“…एक मैं क्या, अभी आएंगे दीवाने कितने
अभी गूंजेंगे, मोहब्बत के तराने कितने…”
(लेखक जाने-माने साहित्यकार, स्तंभकार, व शिक्षाविद हैं.)