डॉ. कुमार विमलेन्दु सिंह | Navpravah Desk
“ये तवह्हुम का कारखाना है
यां वही है जो ऐतबार किया”
–मीर
ज़िन्दगी जब जश्ने अज़ीम की तरह गुज़रे और हर वक़्फ़े में खुसूसियत आपका आक़िब हो, आप से रोशन हो, सब जो दूर हो या जिसको आपकी क़ुरबत नसीब हो, तब भी वहम को नमूदार जानिये, भले ही वो छिपा हो आने वाले लम्हों के लिबास में। कब समां बदल जाए और आपका ज़हीन होना ही आपकी परेशानी का सबब हो जाए, ये कोई नहीं जानता। कई बार ये भूल चुके होते हैं चाँद के लिए क़सीदे पढ़ने वाले, कि, वो भी रोशन आफ़ताब से ही है। ऐसा ही एक नूर-ए-आफ़ताब , ऐसी ही एक ग़ैरत-ए-तरन्नुम थीं, शमशाद बेगम, जिनकी आवाज़ के साये में कितनी ही आवाज़ों ने तरबियत पायी और फिर अचानक क़िस्मत ने एक ऐसी ख़ामोशी भर दी इनकी ज़िन्दगी में कि, वो कशिश भरी आवाज़ फिर सुनाई न पड़ी।
शमशाद बेगम , 14 अप्रैल, 1919 को, यानि कि जलियांवाला बाग़ के क़त्ल-ए -आम के ठीक एक दिन बाद पैदा हुईं। इनके वालिद एक मैकेनिक थे। बचपन से ही इन्हे गाने का बहुत शौक़ था लेकिन घर में इसे अच्छा नहीं माना जाता था। 16 साल की उम्र में इनके एक चाचा, जो की ग़ज़लों के शौक़ीन थे, इन्हे लेकर ज़ेनफोन स्टूडियो गए और वहां शमशाद बेगम ने मशहूर मौसीक़ार ग़ुलाम हैदर को बहादुर शाह ज़फर की ग़ज़ल, “मेरा यार मुझे मिल जाए अगर, सुनाई। हैदर साहब को इनकी आवाज़ बहुत पसंद आयी और कई गानों का क़रार उन्होंने कर लिया। ये 1931की बात है, इसके बाद कई सालों तक शमशाद गाती रहीं और लोगों के दिलों तक उनकी आवाज़ जाती रही। इनके वालिद ने इनसे वादा लिया था कि ये कभी कैमरा के सामने नहीं जाएंगी और हमेशा बुर्क़े में ही गाएंगी। ये वादा तो इन्होने कर दिया लेकिन शादी इन्होने एक हिन्दू से कि जिनका नाम था गणेश लाल बत्तो। इस शादी के खिलाफ बहुत लोग थे लेकिन फिर भी ये शादी हुई।
बंटवारे के बाद ग़ुलाम हैदर पाकिस्तान चले गए, लेकिन शमशाद यहीं रहीं और मुंबई को अपने रहने के लिए चुना क्योंकि तब तक उन्होंने फ़िल्मों में गाना शुरू कर दिया था और मशहूर भी हो चुकी थीं। 1941-47 के बीच इन्होने कई फिमों में गाया जिसमे “खजांची , “ख़ानदान” और “तक़दीर”, बहुत मशहूर हुए। “तक़दीर “, 1943 में आयी थी और ये इसलिए भी यादगार है कि इसी फिल्म में पहली बार नरगिस दिखीं और शमशाद बेगम ही उनकी आवाज़ थीं।
आज़ादी के बाद से 1960 तक ये लगातार कामयाबी की सीढ़ियां चढ़ रही थीं, हालांकि 1955 में एक रोड एक्सीडेंट में इनके शौहर के गुज़र जाने के बाद इनकी रफ़्तार बहुत धीमी हो गयी। इन्होने नौशाद साहब के शुरूआती दिनों में उनकी बहुत मदद की थी और उन्होंने भी शमशाद बेगम को ताउम्र इज़्ज़त बख़्शी। 1957 में आयी फ़िल्म “मदर इंडिया” के 12 में से 4 गाने इन्हीं को दिए। “गाड़ी वाले गाड़ी धीरे हाँक रे”, आज भी उसी मोहब्बत से सुना जाता है। 1960 में आयी फिल्म मुग़ल-ए-आज़म में लता मंगेशकर के साथ गाया, इनका गाना,”तेरी महफ़िल में क़िस्मत आज़मा के हम भी देखेंगे”, आज भी बेहतरीन और ताज़ा लगता है।
इन गानों के अलावा इन्होने कई गाने गाये जो, जिन्हें आज भी नए कलेवर में बार बार पेश किया जाता है। इनके कुछ मशहूर गाने जो कभी भी नहीं भूल पायेगा कोई:
“ले के पहला पहला प्यार”
“मेरे पिया गए रंगून”
“कहीं पे निगाहें कहीं पे निशाना”
“सैयां दिल में आना रे”
“रेशमी सलवार कुरता जाली का”
“कजरा मोहब्बत वाला”
इनके अलावा भी कई ऐसे गाने हैं जो हमेशा गाये जाते रहेंगे और इनकी याद दिलाते रहेंगे। शौहर के गुज़र जाने के बाद ये बिलकुल टूट गयीं और बहुत से ऐसे मौसीक़ार जो इनके साथ काम करना चाहते थे, वो इन्हें उतने पैसे नहीं दे पाते थे जो इनकी फ़ीस थी। इनकी जगह बहुत सारा काम, लता मंगेशकर और आशा भोंसले को मिलने लगा, क्योंकि वे गाती भी अच्छा थीं लेकिन बड़ी वजह ये थी कि वे पैसे भी इनसे काम लेती थीं। शमशाद बेगम का इतना असर था की शुरुआती दौर में लता मंगेशकर भी इन्ही के अंदाज़ में गाने की कोशिश करती थीं, क्योंकि डायरेक्टर भी यही चाहते थे।
1940-42 के बीच मदन मोहन और किशोर कुमार इनके साथ कोरस में गाते थे। वे उस वक़्त बहुत छोटे थे। उसी वक़्त शमशाद बेगम ने कह दिया था की मदन मोहन बहुत अच्छे संगीतकार बनेंगे और वे उनसे कम फ़ीस लेकर उनके लिए गा दिया करेंगी। किशोर कुमार के बारे में भी उन्होंने कहा था की आने वाले समय के सितारे वही होंगे।
इतनी समझ और खुशदिली होने के बाद भी उन्हें काम मिलना बंद होता चला गया और उन्होंने अपना ध्यान अपनी बेटी की परवरिश में ही लगा दिया। 2009 में उन्हें पद्म भूषण मिला और 2013 में वे गुज़र गयीं। ठीक एक साल पहले 2012 में एक इंटरव्यू के दौरान उन्होंने कहा था, “मेरे गाने जब मशहूर होने लगे तो मैंने किसी म्यूज़िक डायरेक्टर को सिर्फ मुझे ही गाने देने के लिए, मजबूर नहीं किया या करवाया जो कि और बहुत से लोगों ने किया, क्योंकि मेरा मानना है की दे बस ऊपर वाला सकता है” उनकी इस बात से अंदाजा लगाया जा सकता है कि उन्हें फ़िल्मी दुनिया के कुछ रिवाज़ों से चोट पहुंची थी। एक इंटरव्यू में उनकी बेटी उषा ने भी कहा था की उनकी माँ कभी नहीं चाहती थीं की वे भी उनकी तरह फिल्मों में काम करें क्योंकि उस दुनिया के रिवाज़ अलग हैं, हिसाब अलग हैं। 2016 में इनके नाम और तस्वीर के साथ एक डाक टिकट भी जारी किया गया।
कितने अदब से गुज़र गयीं शमशाद बेगम, अपने सारे दुःख और दर्द खुद में समेटे हुए, एक शिकायत छोड़ गयीं लेकिन,जिसका एहसास होता ही रहता है मगर जिसकी शिद्दत का अंदाज़ा लगाना मुश्किल है|
“करेंगे शिकायत किसी और जहाँ में
न तेरी महफ़िल होगी, न तेरा आस्तां होगा”
–विमलेन्दु
(लेखक जाने-माने साहित्यकार, स्तंभकार, व शिक्षाविद हैं.)