डॉ० कुमार विमलेन्दु सिंह | Cinema Desk
भारतीय सिनेमा के इतिहास में कई बार ऐसे अवसर आए हैं, जब साहित्य और सिनेमा के लिए ऐसे सम्मेलन स्थल बने या बनाए गए, जिनमें इतना शक्तिशाली अन्योन्याश्रय संबंध दिखा कि दोनों क्षेत्रों की कृतियां संवर्धन के साथ एक दूसरे को स्थापित करने में सफल रहीं। कुछ अवसर ऐसे भी आऐ, जब साहित्यकार संतुष्ट नहीं रहा, अपनी कृतियों के फ़िल्मी रूपांतरण को लेकर। देव आनंद की “गाईड”, एक शानदार फ़िल्म थी, लेकिन आर०के० नारायण संतुष्ट नहीं थे इससे।
1970 के दशक में, हिन्दी साहित्य में, नई कहानियों का दौर अपने पूर्ण गति को प्राप्त कर चुका था और हिन्दी सिनेमा के दर्शक भी मसालेदार फ़िल्मों से अलग मध्यम सिनेमा (मिडिल सिनेमा) पसंद करने लगे थे। ये एक बहुत आदर्श स्थिति थी और इसकी वजह से मन्नू भंडारी जैसी साहित्यकार और बासु चटर्जी जैसे फ़िल्मकार का संयोजन संभव हो पाया। 1974 में मन्नू भंडारी की कहानी, “यही सच है” पर आधारित फ़िल्म, “रजनीगंधा” नाम की फ़िल्म बनी और इसे खूब सराहना मिली।
मन्नू भंडारी की कहानी, “यही सच है”, में एक महिला के उलझन को दिखाया गया है। इस फ़िल्म में दीपा (विद्या सिन्हा) का प्रेम संबंध, संजय (अमोल पालेकर) के साथ होता है और दोनों ने शादी करने का निर्णय कर लिया होता है, लेकिन एक नौकरी के इंटरव्यू के सिलसिले में दीपा (विद्या सिन्हा) को मुंबई जाना पड़ता है, जहाँ उसकी मुलाक़ात, पुराने प्रेमी नवीन (दिनेश ठाकुर) से होती है। दीपा ये पाती है कि पुराने संबंध ख़त्म होने के बाद भी नवीन के पास उसके लिए बहुत समय है और वह उसका बहुत ध्यान रखता है। संजय (अमोल पालेकर) ऐसा व्यक्ति नहीं होता है, वो प्रेम तो करता है, लेकिन उसे महसूस कराने के लिए कोई अलग प्रयास कभी नहीं करता। दीपा का मन बदलता है और वो अब नवीन से शादी करने की सोचने लगती है, लेकिन दिल्ली वापस आते ही जब संजय उससे मिल कर बताता है कि उसकी तरक्क़ी हो गई है, दीपा पुरानी बातें भूल कर, संजय के साथ ही रहने का निश्चय कर लेती है। इसे पूरे प्रकरण की प्रस्तुति में, रजनीगंधा के फूल, कभी नए तो कभी पुराने संबंधों का द्योतक बने रहते हैं।\
ये प्रस्तुति, प्रख्यात नाटककार, जॉर्ज बर्नार्ड शॉ की “कैंडिडा” से काफ़ी मिलती है, जहाँ कैंडिडा, पति मॉरेल और प्रेमी मार्चबैंक्स के बीच, पति को चुनती है जबकि रूमानियत में मार्चबैंक्स, उसके पति की तुलना में बहुत बेहतर होता है। इसकी व्याख्या में शॉ ने, “लाईफ़ फ़ोर्स थ्योरी” दी और बताया कि जहाँ, सामाजिक, आर्थिक और भौतिक सुरक्षा का आश्वासन होता है, संबंध और प्रेम वहीं टिकते हैं। हालांकि ये अंतिम सत्य नहीं है, लेकिन अधिकतर यही मनोवैज्ञानिक दशा होती है, वास्तविक जीवन में।
फ़िल्म के निर्देशक, बासु चटर्जी थे और इसका निर्माण, सुरेश जिन्दाल और कमल सहगल ने किया था। फ़िल्म में संगीत सलिल चौधरी का था और सारे गीत, योगेश ने लिखे थे। सिनेमैटोग्राफ़ी, के० के० महाजन के ज़िम्मे थी और संपादन का काम जी० जी० मायेकर ने किया था।
“ये विद्या सिन्हा की पहली फ़िल्म थी और अमोल पालेकर की भी पहली हिन्दी फ़िल्म थी। फ़िल्म को रिलीज़ करने में काफ़ी परेशानियां आईं, लेकिन ये फ़िल्म “स्लीपर हिट ” निकली। “स्लीपर हिट “, ऐसी फ़िल्मों को कहते हैं, जिनकी शुरूआत छोटी होती है, लेकिन वे आगे जाकर खूब सफ़ल होती हैं और यादगार बन जाती हैं।”
इस फ़िल्म को कई पुरस्कार मिले,जिनमें फ़िल्मफ़ेयर 1975 भी शामिल है। इसके एक गीत, “कई बार यूं ही देखा है”, के लिए मुकेश को सर्वश्रेष्ठ पार्श्व गायक का राष्ट्रीय पुरस्कार मिला।
मानव जीवन के शाश्वत मानसिक दोलन का, जिसमें सुरक्षा और और रोमांच के बिंदुओं के बीच मस्तिष्क झूलता रहता है और वर्तमान एवं भविष्य के बीच घर्षण होता रहता है, इस फ़िल्म में अविस्मरणीय चित्रण किया गया है।
(लेखक जाने-माने साहित्यकार, फ़िल्म समालोचक, स्तंभकार, व शिक्षाविद हैं.)
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