डॉ० कुमार विमलेन्दु सिंह | Navpravah Desk
जो ज़िक़्र का सबब नहीं बनते, जो कई बार आते हैं, गुफ़्तगू करते हैं, रुकते हैं बिना कहे और बिना पूछे चले जाते हैं, सबसे ज़्यादा वही चेहरे याद आते हैं। अक्सर हम चुनते हैं कि हमें ज़िंदगी में क्या करना है, लेकिन कई बार ज़िंदगी भी चुनती है, उसे क्या और किससे करवाना है। ये चुने हुए लोग ही , चले जाने के बाद बहुत याद आते हैं। ओम शिवपुरी भी, अदाकारी के लिए चुने गए थे और क़िस्मत उनसे वो सब कुछ करवाती रही, जिसके लिए वे आए थे।
ओम शिवपुरी का जन्म जोधपुर में, एक कुलीन ब्राम्हण परिवार में हुआ और इनके पिता जोधपुर के राजपरिवार के संरक्षण में रहे। ग्रेजुएशन तक की पढ़ाई इनकी, यहीं से हुई। हालांकि इनका परिवार, कश्मीर से ताल्लुक रखता था, ये राजस्थान के हो चुके थे। ग्रेजुएशन के बाद लॉ की पढ़ाई भी इन्होंने शुरू कर दी थी। लेकिन बचपन से ही इनका मन ऐक्टिंग में लगता था। ये कॉलेज से ग़ायब ही रहते थे, सो इन्हें वहाँ से निकाल दिया गया।
बचपन से ही स्टेज पर ये सक्रिय भी रहे थे। एक बार नाटक में इन्होंने लड़की का किरदार निभाया था और नाटक के बाद दर्शकों में इसी बात की चर्चा थी कि कैसे मान लिया जाए कि ओम लड़की नहीं लड़का हैं।
कॉलेज छूटने के बाद ये रेडियो स्टेशन में काम करने लगे और वहाँ इनकी मुलाक़ात, सुधा शर्मा से हुई, जो वहीं काम करती थीं। उन्हें भी नाटकों का शौक़ था।
“सुधा के घर के हालात बहुत बेहतर न थे, सो काम करते रहना ज़रूरी था और ओम शिवपुरी अपनी नाट्य कला को निखारना चाहते थे, तो वे मौक़े तलाशने के लिए, राजस्थान से बाहर जाना चाहते थे। ओम ने फ़ैसला किया, कि सुधा भी उनके साथ दिल्ली चलें और NSD में पढ़ाई करें, नाटक सीखें। थोड़े संघर्ष के बाद ये हुआ भी। NSD से पढ़ लेने के बाद, इब्राहिम अलकाज़ी जैसे उस्ताद से सीखने के बाद, ओम शिवपुरी, NSD Repertory Company के पहले अध्यक्ष बहाल हुए, 1964 में। ये 1976 तक अध्यक्ष बने रहे और इनके बाद मनोहर सिंह ने ये पद संभाला। “
1964 में अध्यक्ष बनने के बाद, ओम और सुधा बहुत ख़ुश थे लेकिन अचानक एक लड़के को, सुधा को, शादी के मतलब से, देखने के लिए भेज दिया गया। इसके बाद ओम शिवपुरी और सुधा शर्मा का शादी कर लेना, ज़रूरी हो गया और इन दोनों ने ये काम भी 1968 में कर लिया। शादी के बाद, दोनों ने मिलकर अपना एक थिएटर ग्रुप भी, “दिशांतर” नाम से बनाया, जो मोहन राकेश और गिरीश कर्नाड के नाटकों का मंचन किया करता था।
1972 में मोहन राकेश के गुज़र जाने के बाद, ओम शिवपुरी और सुधा शिवपुरी, 1974 में मुंबई आ गए, क्योंकि अब नाटकों पर आश्रित रहना काम न आ रहा था। हालांकि इसके पहले ही ओम, मणि कौल और गुलज़ार जैसे पारखी फ़िल्मकारों की फ़िल्मों में दिख चुके थे। मणि कौल की “आषाढ़ का एक दिन” 1971 और गुलज़ार की “कोशिश” 1972 में ये दिख चुके थे। मुंबई आते ही ओम शिवपुरी को ख़ूब काम मिलने लगा। उनकी अदाकारी उन्हें दर्शकों से जोड़ रही थी। “नमक हराम”, “आंधी”, “शोले”, “बालिका वधु”, “डॉन” जैसी 175 से भी अधिक फ़िल्मों में इन्होंने काम किया।
सुधा शिवपुरी भी अब फ़िल्मों का हिस्सा बनने लगी थीं। “स्वामी”, “इंसाफ़ का तराज़ू” और “सावन को आने दो” जैसी फ़िल्मों में इन्होंने काम किया। सुधा टीवी पर भी ख़ूब सक्रिय रहीं। कभी न भूलने वाले धारावाहिक,”रजनी” में ये दिखीं और प्रचलित धारावाहिक, “क्योंकि सास भी कभी बहु थी” में, “बा” के किरदार में, सबने फिर से सुधा शिवपुरी को सराहा।
इन दोनों की बेटी, रितु शिवपुरी भी अभिनेत्री हैं और बेहद कामयाब फ़िल्म “आंखें” में गोविंदा के साथ इनके काम को सराहा गया। इनके बेटे विनीत भी असिस्टेंट डायरेक्टर हैं।
1990 में दिल का दौरा पड़ने से ओम शिवपुरी गुज़र गए। उनके गुज़र जाने के कई साल बाद भी उनकी फ़िल्में आती रहीं। सच में ओम शिवपुरी को अदाकारी के लिए, ज़िंदगी ने चुना था।
उनकी अदाकारी और उनकी शख़्सियत को सलाम।
(लेखक जाने-माने साहित्यकार, स्तंभकार, व शिक्षाविद हैं.)