डॉ. कुमार विमलेन्दु सिंह | Navpravah Desk
बीत चुका ज़माना अपनी ख़ूबियों को, अगले ज़माने में ज़ाहिर कर सकने का ज़रिया बना कर ही गुज़रता है और अगली नस्लें, अगर ज़हीन होती हैं, तो समेट लेती हैं नेअमत को और जो भूल जाती हैं अपने जड़ों को और बेख़बर होती हैं, आने वाले वक़्त की करवटों से, उनसे बहुत कुछ छूट जाता है|
साल दर साल, लगातार मौसिक़ी की दुनिया को सजाते रहने वाले, वनराज भाटिया, एक कभी न भूलने वाला अज़ीम नाम है| इन्होंने अपनी शानदार मौसिक़ी से, हिन्दुस्तान की कई पीढ़ियों के सपनों को तरन्नुम में ढाल कर, उनकी ज़िंदगी का हिस्सा बना दिया|
1927 में जन्मे, भाटिया, न केवल हिंदुस्तानी क्लासिकल म्यूज़िक बल्कि मग़रिबी मौसिक़ी के भी जानकार हैं| इनकी पढ़ाई बंबई (अब मुंबई) में ही हुई और इन्होंने, अंग्रेज़ी अदब से MA किया, एलफ़िंस्टन कॉलेज मुंबई से| इस दौरान ये हिन्दुस्तानी मौसिक़ी सीखते रहे और इसके बाद ये 1954 तक लंदन और फिर 1958 तक फ़्रांस में भी मौसिक़ी सीखते रहे|
1959 में जब वनराज अपने देश लौटे, तो उन्होंने “शक्ति साड़ी मिल्स” के इश्तिहार के लिए म्यूज़िक दिया| यह पहला भारतीय इश्तिहार था, जिसमें म्यूज़िक का इस्तेमाल हुआ था| इसके बाद वनराज जी ने लगभग, 7000 इश्तिहारों में म्यूज़िक दिया| जिसमें लिरिल, गार्डेन वरेलिया, दिनेश और बहुत सारे ब्राण्ड रहे हैं| इन इश्तिहारों की म्यूज़िक, इतनी असरदार थी कि अब तक हमारे ज़हन में है|
New Wave Cinema के दौर में इन्होंने फ़िल्मों में भी म्यूज़िक देना शुरू किया| बतौर म्यूज़िक डायरेक्टर, 1974 में आई, श्याम बेनेगल की “अंकुर”, इनकी पहली फ़िल्म थी| इसके पहले 60 के दशक के आख़िरी सालों में, ये दिल्ली यूनिवर्सिटी में म्यूज़िक भी पढ़ा चुके थे| “अंकुर” के बाद इन्होंने “निशांत”, “मंथन”, “जाने भी दो यारों”, “मंडी”, “मैसे साहब” और न जाने कितने ही मशहूर फ़िल्मों में म्यूज़िक दिया| सिनेमा के बदलते दौर में भी, इन्होंने, “घातक”, “दामिनी”, “परदेस” और “चाईना गेट”, जैसी फ़िल्मों में बैकग्राउंड स्कोर भी दिया|
“वनराज भाटिया ने टीवी सीरियल और टेलीफ़िल्मों में भी अपना संगीत दिया. 1987 में आई टेलीफ़िल्म, “तमस” के लिए इन्हें नैशनल अवार्ड भी मिला. 1988 में आई, “वागले की दुनिया” टीवी पर ख़ूब मशहूर हुई. इसके बाद 1993 में आई, “बाइबिल की कहानियां” में भी एकदम सटीक और उचित संगीत दिया, लेकिन 1988 में ही “भारत एक खोज” का गीत, “सृष्टि का कौन है कर्ता”, आज भी कानों में गूंजता है और आज भी अपने साथ बचपन की कई यादें लिए आ जाता है. एक ऐसा ही गीत इन्होंने फ़िल्म “मंथन” में भी दिया था, “मेरो गाम काथा पारे…सुनो सुनो रे”, यही गीत बाद में बहुत दिनों तक AMUL दूध के इश्तिहार में भी इस्तेमाल होता रहा.”
मौसिक़ी सुन कर अपने माज़ी में पहुंच जाना, बेशक धुनों की ख़ूबी बताता है, लेकिन जब बीते हुए ज़माने की किसी ड्योढ़ी पर ठिठक कर, रुक कर, अगर किसी ख़ास राग, धुन या तरन्नुम के आने का, सुनाए जाने का इंतज़ार करते हैं, तो ये हमेशा ज़िंदा रहने का हुनर रखने वाले मौसिक़ार की ख़ूबी है|
93 साल के वनराज, आज भी मुंबई में रहते हैं, और इनके किए गए कामों की फ़ेहरिस्त भी इनके उम्र जितनी, या उससे ज़्यादा ही लंबी है| इन्हें और लंबी उम्र और सेहत नसीब हो|
नोट: वनराज भाटिया ने बहुत सारे विदेशी मौसिक़ारों के साथ भी काम किया है और कई तरीके से म्यूज़िक देते रहे हैं| इस लेख में, सिर्फ टीवी और फ़िल्मों में दिए गए म्यूज़िक की बात की गई है|
(लेखक जाने-माने साहित्यकार, स्तंभकार, व शिक्षाविद हैं.)