डॉ० कुमार विमलेन्दु सिंह | Navpravah Desk
ख़्वाहिशें और हासिल, बारहा दूर ही चलते हैं एक दूसरे से, लेकिन अपने हिस्से, अगर ख़ुशी रखनी हो आख़िरकार, तो क्या फ़र्क़, कहाँ से गुज़रे, क्या मलाल कहाँ पे ठहरे। तफ़सील से करनी हो बात, या मुख़्तसर रखनी हो मुलाक़ात, कुछ लोग अपना असर छोड़ ही जाते हैं, बोलें या न बोलें, उन्हें पुकार भर लेने से ठहर जाते हैं वे यादों में हमेशा के लिए। मैक मोहन भी तो हमारी यादों में ऐसे ही बसे हैं।
मैक मोहन का जन्म 1938 में कराची में हुआ और बंटवारे के समय इनका परिवार भारत आ गया और कुछ दिनों के संघर्ष के बाद, ये लोग लखनऊ में बस गए। इनका असली नाम मोहन मकीजानी था। एक इत्तेफ़ाक़ ये भी है कि उसी समय शानदार अदाकार सुनील दत्त का परिवार भी बंटवारे का ज़हर झेलते हुए लखनऊ ही पहुंचा था और ये दोनों एक ही स्कूल में पढ़े भी।
” मैक मोहन क्रिकेट के बेहद अच्छे खिलाड़ी थे और उन दिनों मुंबई को क्रिकेट के लिए बेहतरीन जगह माना जाता था। क्रिकेटर बनने की चाह में, इन्होंने मुंबई जाने का फ़ैसला किया और जा भी पहुंचे। क्रिकेट के साथ- साथ नाटकों में भी हिस्सा लेते थे। नाटकों में मैक मोहन की दिलचस्पी बढ़ती गई और IPTA के साथ भी काम करने लगे। “
शौकत कैफ़ी ने इनकी अदाकारी को सराहा और अभिनय जारी रखने को कहा। साथ ही ये भी हिदायत दी कि मैक फ़िल्मों में भी काम ढूंढते रहें। 60 का दशक शुरु हो चुका था और शौकत कैफ़ी की बात मान, मैक, चेतन आनंद के साथ बतौर असिस्टेंट काम करने लगे। इसी दौरान इन्होंने Filmalaya School of Acting में अदाकारी के भी गुर सीखे।
1964 में आई फ़िल्म, “हक़ीकत” में पहली बार, चेतन आनंद ने इन्हें, पर्दे पर आने का मौक़ा दिया। इनका किरदार थोड़ी ही देर के लिए दिखा लेकिन सबने इनकी सलाहियत देखी और इन्हें लगातार काम मिलने लगा। इनके रोल बड़े नहीं होते थे, लेकिन खलनायक के सबसे ख़ास गुर्गे के रूप में, सबको मैक ही चाहिए थे। एक इंटरव्यू में, मैक ने कहा भी था कि एक ही तरह का किरदार निभाने से उन्हें ये फ़ायदा हुआ कि जब भी वैसे किरदार फ़िल्मकारों के ज़हन में आते, मैक को बुला लिया जाता।
1975 में आई फ़िल्म, “शोले” ने मैक की ज़िंदगी बदल दी और गब्बर सिंह ने स्क्रीन पर जैसे ही पुकारा, “अरे ओ सांभा”, ये किरदार हमेशा के लिए ठहर गया सबके ज़हन में, सबकी यादों में हमेशा के लिए। एक इंटरव्यू के दौरान, मैक ने बड़ी दिलचस्प बात, “शोले” के बारे में बताई। इस फ़िल्म के लिए इन्होंने बहुत मेहनत की और कई सीन भी शूट किए, लेकिन जब फ़िल्म पूरी हुई तो इन्होंने देखा कि इनके ज़्यादातर सीन काट दिए गए हैं। मैक की आंखों में आंसू आ गए। वे रमेश सिप्पी के पास गए और कहा कि ” ये भी सीन काट लिया होता”, इसपर रमेश सिप्पी ने हंसते हुए कहा, “इससे ज़्यादा नहीं काट सकता और अगर ये फ़िल्म चल गई, मैक तुम्हारा नाम सांभा ही हो जाएगा।” ऐसा ही हुआ भी।
इस फ़िल्म के बाद मैक मोहन ने पीछे नहीं देखा, “डॉन”, “काला पत्थर”, “क़र्ज़”, “कुर्बानी”, “सत्ते पे सत्ता” जैसी कई बेहद कामयाब फ़िल्मों का, ये हिस्सा रहे। इन्होंने 200 से ज़्यादा फ़िल्में की और उड़िया को छोड़, सभी प्रमुख भारतीय भाषाओं में संवाद बोले।
मैक ने अंग्रेज़ी, फ़्रेंच और स्पैनिश भाषाओं में भी काम किया। इनकी अंग्रेज़ी बोलने और लिखने में बेहद उम्दा थी, जिसका मिसाल आज तक दिया जाता है। मैक मोहन ने 1986 में शादी की। इनके एक बेटा और दो बेटियाँ हैं।
इन्हें कपड़ों का बहुत शौक़ था इसलिए हमेशा इनका लिबास, चमकता रहता था। इनकी और संजीव कुमार की बड़ी गहरी दोस्ती थी। मशहूर फ़िल्मकार, रवि टंडन से इनके बहन की शादी हुई थी, इस तरीक़े से, ख़ूबसूरत अदाकारा, रवीना टंडन, इनकी भांजी हैं।
फ़िल्मों में शानदार काम मैक ने किया, हमसे उनकी मुलाक़ातें, मुख़्तसर सी ही रहीं हर बार, पर राबता कुछ ऐसा क़ायम हुआ, कि इतने तफ़सील से उन्हें आज भी याद किया गया। 2010 में मैक हमारे बीच नहीं रहे। बहुत ज़्यादा शराब और सिगरेट ने इन्हें 72 साल से ज़्यादा जीने न दिया।
मैक मोहन भारतीय सिनेमा के एक बेमिसाल सितारे थे, वे हमेशा याद आएंगे।
(लेखक जाने-माने साहित्यकार, स्तंभकार, व शिक्षाविद हैं.)