‘फ़ादर्स डे’- ऐसे पिता की कहानी जिसे बेटे की तलाश ने बनाया भारत का सबसे बड़ा क्राइम जासूस

आनंद रूप द्विवेदी | Editorial Desk

अंग्रेजी में एक कहावत है, “Don’t judge a book by it’s cover” लेकिन बात जब सीनियर क्राइम जर्नलिस्ट और थ्रिलर राइटर प्रफुल शाह की हो, तो उनकी हर किताब, आप कवर से भी जज कर सकते हैं। जितना खूबसूरत प्रफुल शाह की किताब का कवर होता है, उतनी ही दमदार उसकी कहानी और कहानी में छिपे रहस्य की परतें।

प्रफुल शाह की कई किताबें गुजराती, अंग्रेजी, व हिंदी में प्रकाशित होकर अपना दमखम भी दिखा चुकी हैं। उनकी किताबों पर बॉलीवुड में फिल्में/वेब फिल्में भी बन चुकी हैं। उनकी किताब दृश्यम-अदृश्यम (फादर्स डे) पर आधारित एक फिल्म भी निर्माणाधीन है, जिसमें मुख्य भूमिका निभा रहे हैं बॉलीवुड के मशहूर अभिनेता इमरान हाशमी। ‘बरोट हाउस’ , ‘पोशम पा’ जैसी बहुचर्चित साइकोलॉजिकल थ्रिलर वेब फिल्में, प्रफुल शाह की किताबों पर ही आधारित हैं।

प्रफुल शाह के कॉन्सेप्ट पर आधारित वेब फ़िल्म्स ‘पोशम पा’ और ‘बरोट हाउस’

प्रफुल शाह का डॉक्यु-नॉवेल ‘फ़ादर्स डे’ जो कि मूलतः गुजराती में “दृश्यम अदृश्यम” शीर्षक से काफ़ी पसंद किया गया, उसका अंग्रेजी संस्करण है। अब इस किताब का हिंदी संस्करण भी पाठकों के लिए अमेजन/किंडल आदि पर उपलब्ध कराया जा चुका है। दरअसल प्रफुल सस्पेंस और थ्रिलर उपन्यासों के लिए जाने जाते हैं, जिनकी कहानी और किरदार कभी एक दूसरे से अलग-थलग होते नहीं पाए जाते। यही कारण है कि, रचना और पाठकों को बांधकर रखने वाली कुशलता उनकी किताबों पर आधारित फिल्मों में भी देखने को मिलती है।

‘फादर्स डे’ की कहानी शुरू होती है महाराष्ट्र के शिरवल से, जहाँ छत्रपति शिवाजी महाराज के किले का वर्णन है। इतिहास की भयानक त्रासदी और युद्ध के नाद के समाप्त होते ही एक दूसरे युग की ओर रुख करते कथानक में ऐसी चित्रकारी है, जहाँ न राजा न प्रजा, न युद्ध न सैनिक, शेष है तो बस शून्य। ऐसा शून्य जहाँ अब सब सिर्फ़ इतिहास है। लेखक ने समय की शक्ति को दर्शाते हुए बड़ी चालाकी के साथ कहानी को इतिहास से वर्तमान की ओर धकेल दिया है।

कहानी का केंद्रबिंदु है, 32 साल का सिविल कॉन्ट्रेक्टर सूर्यकांत विष्णु भांडे पाटिल। जिसकी दुनिया उसकी पत्नी प्रतिभा और बेटे सौरभ व संकेत हैं। घर, परिवार, बच्चे और कामकाज के इर्द गिर्द घूमती सूर्यकांत की ज़िंदगी में उस वक़्त भूचाल सा आ जाता है जब उसका 3 साल का बेटा संकेत स्कूल से वापस ही नहीं लौटता। गली, मोहल्ले, पुलिस थाने के चक्कर काटता पिता, और व्यापार के लिए उत्तरदायी सूर्यकांत, हर सम्भव प्रयास करता है जो उसके बेटे के सकुशल घर लौट आने का रास्ता दिखाए। इसी क्रम में वह महाराष्ट्र के कद्दावर नेता शरद पवार के उत्तराधिकारी माने जाने वाले अजीत पवार से भी मिलता है और अपने बेटे की गुमशुदगी की गुहार लगाता है। बदले में उसे आश्वासन मिलता है, चिंता न करने का।

कहानी में घुसते ही पाठक का उससे बाहर निकल पाना मुश्किल हो जाता है। शायद यही वजह है कि फ़ादर्स डे को कई भाषाओं में अनुवादित भी किया गया है। भाई सौरभ को उम्मीद है कि उसका छोटा संकेत वापस आकर फिर से उसके साथ खेलेगा, कूदेगा। माँ की बात ही क्या, उसने तो जन्म दिया है। उसकी पीड़ा को तो स्वयं ईश्वर भी नहीं समझ सकता। दादा इस उम्मीद में है कि उसका पोता घर आएगा और उसके बेटे की ज़िंदगी मे वापस वही सुकून। इस सब के बीच सूर्यकांत के मन में द्वंद भी है और द्वेष भी। एक लड़ाई वह अपने बेटे की खोज में बाहर लड़ रहा है तो दूसरी लड़ाई अपने अंदर। जैसे-जैसे कहानी आगे बढ़ती जाती है सूर्यकांत हर कठोर वास्तविकता का सामना करने के लिए तैयार हो जाता है। फ़िरौती, नाकामी और लगातार सात महीने तक बेटे के लापता होने पर पिता का साहस अब स्थिर था, लेकिन उसकी भावनाओं का समुद्र किसी ज्वार भाटा की तरह उफ़ान ले रहा था। जब फ़ादर्स डे पर अख़बार में प्रकाशित एक परिशिष्ट पर सूर्यकांत की नज़र पड़ती है तो वह टूट जाता है। परिशिष्ट में एक असफ़ल पिता के शब्दों को वह स्वयं की बात ही समझ बैठता है।

बतौर लेखक, प्रफुल शाह जीवन के हर उस पहलू को उकेरने में सफल सिद्ध होते हैं, जिसमें न केवल भावनाओं, बल्कि आंतरिक विषाद से जन्में ग्लानि भाव को भी जगह मिलती है, जिसके परिणामस्वरूप कहानी में वेदनाओं का अथाह सागर भरा मिलता है। कहानी जैसे जैसे ढलती है , पिता अपने बेटे को पाने की उम्मीद भी खोने लगता है। उसका अपना संकेत भले ही अब कभी वापस न आने वाले रास्ते पर छोड़ दिया गया हो लेकिन, अब वह कई और बच्चों की गुमशुदगी के लिए भी काम करता है, उनकी खोजबीन में पुलिस के साथ कदम से कदम मिलाकर चलता है।

“प्रफुल शाह के गज़ब के कथानक को सारगर्भित कर पाना थोड़ा मुश्किल है, नाजायज़ भी और डॉक्यूमेंट्री नॉवेल के उद्देश्य के विरुद्ध भी। इसे पढ़ने के बाद ही आप यह आंकलन कर सकते हैं कि प्रफुल शाह अपने प्रयास में किस हद तक सफ़ल रहे हैं। “

बहरहाल, इस किताब पर फ़िल्म आने वाली है, जिसमें लीड रोल यानी शिवकांत के किरदार को निभाएंगे प्रसिद्ध अभिनेता इमरान हाशमी। फिल्म का अनाउंसमेंट इमरान हाशमी, ट्रेड एनालिस्ट तरण आदर्श और कोमल नाहटा ने ट्विटर पर भी किया है।

किताब के कुल 79 खण्ड हैं, हर एक खण्ड अपने में एक कहानी समेटे हुए है। पाठक को कहीं भी ऐसा अनुभव नहीं होगा कि उसे जबरन लंबा खींचा जा रहा है। आख़ीर में सत्यघटना के सभी पात्रों का परिचय, उनका साक्षात्कार और जाँच सम्बन्धी अन्य दस्तावेज संलग्न हैं, जो पुस्तक की सत्यनिष्ठा को सिद्ध कर सकने में सफल होते हैं। लेखक प्रफुल शाह किताब के आखिरी हिस्से में इस बात का ज़िक्र करते हैं कि, “इसकी वास्तविक पात्रों की जीवन यात्रा निरन्तर बढ़ती रहेगी। कथा प्रवाह को घटनास्पद बनाने के लिए पात्रों की मनोवेदनाएँ भला कितना उठाव दे सकती हैं? कथा भले ही पूर्ण हो गई हो, किंतु मनोवेदनाएँ समाप्त नहीं होती।”

इस लिंक पर जाकर आप इस किताब को ऑनलाइन ऑर्डर भी कर सकते हैं –

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